The Idea
We believe that a radical intervention in the world of knowledge is a necessary condition for a radical transformation of society.
This belief has deepened since the appearance of the internet in the last decade of 20th Century. The World wide web (www) has brought great flux to the world of knowledge. Virtual networks of knowledge are ascendant, Science is losing its place of command and lokavidya (knowledge in society ) is getting new recognition.
At the same time, globalization and corporate reorganization in the Age of Information are shaping new forms of exploitation uprooting the lives of peasants, artisans, adivasis, women and small retailers, all bearers of lokavidya.
In the Knowledge Age equal respect for all streams of knowledge is a pre-condition for shaping a world based on ideals of equality.
Lokavidya Movement that derives its strength from the ideas and organization of the samaj is the demand of the times. Lokavidya philosophy of knowledge needs to become a social force if a new world is to be built.
All knowledge starts with lokavidya and must return to lokavidya.
Knowledge that does not return turns against humanity and nature.
Standpoint
Lokavidya and Ordinary Life
Unconditional knowledge and unconditional life is lokavidya and ordinary life. Lokavidya is the knowledge with the people which changes with their experience, needs, change of ethical and aesthetic contexts and so on. It incorporates their way of thinking, principles of organisation, mode of abstraction etc. It is made up of a body of information, practices, techniques, expertise and much more. There is nothing in lokavidya which is not changeable. It grows with ordinary life, gels with it and never dies. Ordinary life is life without condition. It assumes no science, no technology, no religion, no methods of organisation and communication of knowledge, it assumes nothing. It is not true, austere or moral life, for there is falsehood, extravaganza and immorality in ordinary life. But it has the criteria of truth, morality, justice, wisdom etc. and exhortation for these in it.
Lokavidya constitutes the epistemic strength of the people. It is constituted of those traditions of knowledge which refuse to die and produce ever new modes of subsistence, innovation and growth under oppression, marginalisation or distortion by alien intervention. Ironically they die out if the bearers of these traditions become expansionist, colonisers and oppressors. This is a kind of socio-epistemic law. So lokavidya is an inexhaustible source of strength of the people. The chief value associated with lokavidya is that of ordinary life. Not austere life, not simple life, just ordinary life. From the twin concepts of lokavidya and ordinary life we can proceed to develop concepts which would enable us to build emancipatory resistance both in the epistemic realm and the realm of physical activity.
We do not assume that one or other form of knowledge can not contribute to development of emancipatory politics, for we think that knowledge can not essentially be limited. Every concept, piece of information and even method of inference of a type of knowledge may be limited (say by its historical roots, cultural or regional genesis and application or by embodying elements of some specific cosmology etc.), but knowledge per se is not limited in any of its locations. So what is proposed is a dialogue between all locations of knowledge. Lokavidya and ordinary life constitute our normative framework for this dialogue between various streams of knowledge, locations of knowledge. Since lokavidya and ordinary life are not just primary expressions of people’s knowledge and life but also constitute the primary sources of strength of the people, therefore the normative framework of lokavidya and ordinary life radically favours political formations for emancipation of the samaj from subjugation and being externed. Lokavidya standpoint is the people’s standpoint in the Age of Information. To say that there exist so many respectable and genuin traditions of knowledge is not to say that some or all of them have answers to people’s problems and a sufficiently wide basis for reconstructing the world differently. To say that lokavidya and ordinary life reinforce, enliven, protect and move each other is not to say that they are complete unto themselves and the ideology they may spin out has recepies for reconstruction of the world. It is only to say that they constitute our starting point, constant reference and also the ultimate criteria.
Lokavidya standpoint is the standpoint of truth and justice in the Age of Information . It enables us to fight against falsehood imposed upon the world in the name of a future global and connected world based on Globalization and Knowledge Management. It enables our struggles to last out because it enables us to think differently.
The Journey
The development of the concept of lokavidya and generally the focus on vidya in socially and politically significant aspects of life dates back to 1995. It owes its genesis to the thought and work of three organisations in the preceeding period, namely Mazdoor Kisan Niti group (Kanpur), PPST Foundation (Chennai) and Nari Hastakala Udyoga Samiti (Varanasi) and specifically to the concrete context of the Congresses of Traditional Sciences & Technologies of India (1993 Mumbai, 1995 Chennai, 1998 Varanasi).
Lokavidya Mahadhiveshan (Third Congress of Traditional Sciences & Technologies of India) and the simultaneous beginning of the publication of the Lokavidya Samvad gave some shape to the social pursuit focussed on vidya. The workshop Dialogues on Knowledge in Society organised by Indigen Research Foundation, Pune, and Lokavidya Samvad, Varanasi, at World Social Forum 2004 in Mumbai gave this pursuit a further impetus.
In August 2004 the Vidya Ashram got off to a start at Sarnath.
धारणा
हमारी यह मान्यता है कि आज समाज में मौलिक परिवर्तन बगैर ज्ञान की दुनिया में मौलिक दखल बनाए संभव नहीं है.
इंटरनेट के आने और इसके साथ ज्ञान की दुनिया में उठे भूचाल के बाद हमारी यह मान्यता और गहरी हो गई है. ज्ञान के मायावी जाल (व्हर्चुअल नेटवर्क्स) फैले हैं, साइंस का एकछत्र दबदबा कमजोर हुआ है. इसके साथ ही लोकविद्या (समाज में व्याप्त ज्ञान) के वजूद की पहचान बढ़ी है.
इसके साथ ही सूचना-युग ने मुहैय्या कराये नए औजारों को लेकर कॉर्पोरेट दुनिया के पुनर्संगठन तथा वैश्वीकरण से पिछले तीन दशकों में शोषण के नए तौर-तरीके इजाद कर लिए गये हैं, और दिन-ब-दिन किये जा रहे हैं. किसान, कारीगर, आदिवासी, फुटकर व्यापारी-दुकानदार तथा महिला समाज, अर्थात सारे लोकविद्याधर इस शोषण के मुख्य शिकार हैं.
शोषण कि नई व्यवस्थाओं को आकार और अंजाम देने का कार्य वाम और दक्षिण पंथी राज्य-व्यवस्थाओं की निगरानी में होता रहा है. पिछले एक दशक से सभ्यता-परक राज्य (सिविलाइझेशन-स्टेट) के नाम से उभरती व्यवस्था जुड़ गई है. इन सभी व्यवस्थाओं के सामार्थाकोन में विकास और आधुनिक दुनिया के सपनों को साकार करने में लोकविद्याधर समाज के शोषण की अपरिहार्यता के मुद्दे को लेकर गहरा मतैक्य है.
ज्ञान-युग में समता के आदर्श पर दुनिया को बनाने के लिए यह लाज़मी शर्त है कि सभी ज्ञान-धाराओं के लिए एक सा सम्मान और स्थान हो.
समाज-केन्द्रित मौलिक परिवर्तन के लिए जन-आन्दोलनों में आस्था रखने वाले डिजिटल-खाई के परले छोर पर खड़े ज्ञान आन्दोलन की आवश्यकता है.
दृष्टिकोण
लोकविद्या और सामान्य जीवन
लोकविद्या वह ज्ञान है जिसकी कोई शर्त नहीं होती. सामान्य जीवन वह जीवन है जिसकी कोई शर्त नहीं होती.
लोकविद्या लोगों के पास का वह ज्ञान है जो उनके अनुभव, जरुरत, नैतिक और सौंदर्य-बोधक सन्दर्भ इत्यादि के साथ बदलता रहता है. इस ज्ञान में उनके सोचने के तरीके, संगठन के नियम, अमूर्तिकरण के तरीके सब एकत्रित होते हैं. जानकारियों का एक भण्डार, लोगों के काम करने के तौर-तरीके, तकनीक, हुनर, और क्या क्या जोड़ कर इस ज्ञान का वास्तव रूप गढ़ा होता है. लोकविद्या में ऐसा कुछ नहीं जो स्थिर हो, जड़ हो. लोकविद्या सामान्य जीवन के साथ फलती फूलती है, और कभी मरती नहीं.
सामान्य जीवन हर शर्त से मुक्त है. वह न किसी विज्ञान पर आश्रित है, न किसी तांत्रिकी पर, न किसी धर्म पर, और न ही संगठन या ज्ञान-प्रसार की किन्ही पद्धतियों पर. उसकी अपनी कोई मान्यता नहीं. सामान्य जीवन सच्चा, या कठोर, या नैतिक जीवन नहीं है. उसमे झूठ भी है, फिजूलखर्ची भी, और अनैतिकता भी. लेकिन सामान्य जीवन में सत्य, नैतिकता, न्याय, विवेक इत्यादि की कसौटियां मौजूद हैं.
लोकविद्या समाज की ज्ञान-गत ताकत है. समाज की वे परम्पराएं जो मरती नहीं, बल्कि बाहरी हस्तक्षेप से दमन, विकृतीकरण और उपेक्षा के बावजूद बने रहने के, नवीनीकरण के और आगे बढ़ने के नए मार्गों का सतत आविष्कार करती रहती हैं, लोकविद्या को गढ़ती हैं. हाँ, इन परम्पराओं के धारक और वाहक अगर विस्तारवादी, उपनिवेशवादी और शोषक बन जाते हैं तो वे अवश्य नष्टप्राय हो जाती हैं. लोकविद्या समाज की ताकत का अक्षय स्रोत है. लोकविद्या के साथ मुख्यतः जो मूल्य जुड़ा है वह सामान्य जीवन का मूल्य है. न कठोर जीवन, न साधा जीवन, सिर्फ सामान्य जीवन. लोकविद्या और सामान्य जीवन इन दो को लेकर हम उन सारी धारणाओं को गढ़ सकते हैं जो हमें न सिर्फ ज्ञान की दुनिया में, बल्कि भौतिक कार्यों के क्षेत्र में भी मुक्तिदायी संघर्ष खड़ा करने की काबीलियत दे सकती हैं.
नए शासक वर्ग सिद्धांत और अभ्यास दोनों क्षेत्रो में ज्ञान को केंद्र में रखते हुए उभरे हैं, और संगठित भी हुए हैं. इस प्रक्रिया में ज्ञान-प्रबंधन सबसे अधिक महत्वपूर्ण और कमाई का सैद्धांतिक और अभ्यासिक व्यवसाय रहा है. इसने डिजिटल खाई को ज्ञान की मौलिक खाई में बदल दिया है. दूसरी तरफ तो समाज में बसने वाला ज्ञान, अर्थात लोकविद्या है, जिससे ये उम्मीद की जा रही है कि इस खाई को पार करने के प्रयासों में वह लगातार साइंस और धर्मं को अपनाए.
चूँकि हम यह मानते हैं कि ज्ञान को अंततोगत्वा सीमाओं में बांधना नामुमकिन है, हम यह नहीं समझते कि इस या उस प्रकार का ज्ञान मुक्ति की राजनीति की बढ़ोत्तरी में कोई भूमिका नहीं हो सकती. यह संभव है कि अपनी ऐतिहासिक जड़ों या अपनी सांस्कृतिक या क्षेत्रीय विरासत या उपयोग, या फिर हो सकता है कि सृष्टि के उगम की किसी विशिष्ठ समझ के बंधन से ही हर धारणा, हर जानकारी या हर ज्ञान प्रकार की अनुमान लगाने की हर पद्धति कि निश्चित सीमाए हों. लेकिन अपने आप में ज्ञान इनमें से किन्हीं विशिष्ठाताओं या स्थानों से सीमित नहीं होता. इसलिए हमारा प्रस्ताव ज्ञान के सभी स्थानों और विशेषताओं के बीच आपसी संवाद का है. लोकविद्या और सामान्य जीवन विविध ज्ञान धाराओं के बीच इस प्रकार के संवाद के लिए एक मानक इजाद करते हैं. चूँकि लोकविद्या और सामान्य जीवन समाज के ज्ञान तथा जीवन की मात्र एक अभिव्यक्ति न होकर समाज की ताकत का मूल स्रोत भी हैं, लोकविद्या और सामान्य जीवन के मानक का झुकाव उन राजनीतिक संरचनाओं की ओर है जो डिजिटल और सामाजिक विभाजन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं.
लोकविद्या दृष्टिकोण सूचना युग में सामान्य लोगों का दृष्टिकोण है. बहुत सारी गौरवशाली, यथार्थ तथा खरी ज्ञान-परम्पराओं के अस्तित्व को मानने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि उनमें से कुछ या सभी लोगों की समस्याओं का समाधान दे सकती हैं, या दुनिया को नए छोर से बांधने के लिए विस्तृत आधार प्रदान कराती हैं. लोकविद्या और सामान्य जीवन एक-दूसरे को मजबूती देते हैं, एक-दूसरे में प्राण भरते हैं, एक-दूसरे की रक्षा करते हैं और एक-दूसरे को गति प्रदान करते हैं. लेकिन इस कथन का अर्थ यह नहीं होता कि वे अपने-आप में पूर्ण हैं, या यह भी नहीं कि जिस विचारधारा के धागे वे मिलकर साथ बुनते हैं, उनमें से अपने आप ही दुनिया के पुनर्निर्माण के नुस्खे निकल आयेंगे. कहना यह है कि ये दो हमारे लिए प्रस्थान के बिंदु, निरंतर सन्दर्भ और अंतिम कसौटी हैं. इस सूचना-युग में लोकविद्या दृष्टिकोण सत्य और न्याय का दृष्टिकोण है, वैश्वीकरण और ज्ञान-प्रबंधन की बदौलत किसी काल्पनिक भविष्य की परस्पर जुडी हुई वैश्विक व्यवस्था का जो झूठ हम पर बरपा जा रहा है, उससे निबटने और निजात पाने का दृष्टिकोण है. चूँकि यह दृष्टिकोण हमें नए सिरे से सोचने की प्रेरणा देता है, वह हमारे संघर्षों को बने रहने की ताकत देता है.
यात्रा
लोकविद्या विचार देश के बहुजन समाजों की आकाँक्षाओं और आन्दोलनों, विशेषत: नए किसान आन्दोलनों से जन्मा है. 1980 के दशक से विद्या को केंद्र में रखकर जीवन के सामाजिक, राजनीतिक आदि पक्षों पर विचार शुरू हुआ और मजदूर किसान नीति समूह ने लोकविद्या प्रतिष्ठा प्रयास के नाम से 1995 की गर्मियों में वाराणसी में एक बैठक की. अलग-अलग तीन संगठनों के विचारों और कार्यों से लोकविद्या का विचार पनपा, ये संगठन क्रमश: हैं – मज़दूर किसान नीति (कानपुर), पी.पी.एस.टी. फाउंडेशन (चेन्नई) और नारी हस्तकला उद्योग समिति (वाराणसी). 1990 के दशक में पारंपरिक भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मुंबई (1993), चेन्नई (1995) और वाराणसी (1998) में तीन बड़े-बड़े महाधिवेशन हुए. वाराणसी का महाधिवेशन लोकविद्या महाधिवेशन के नाम से हुआ और लोकविद्या विचार राष्ट्रीय पटल पर आया. वाराणसी महाधिवेशन के दौरान लोकविद्या संवाद नाम की पत्रिका प्रकाशित करना शुरू किया गया. लोकविद्या के विविध पक्षों, इसकी शक्ति, गतिशीलता, प्रासंगिकता और स्वरुप को बहस का मुद्दा बनाया गया. मुंबई में जनवरी 2004 में विश्व सामाजिक मंच के अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन में समाज में ज्ञान पर संवाद के नाम से इंडीजन रिसर्च फाउंडेशन (पुणे) और लोकविद्या संवाद (वाराणसी) ने मिलकर एक कार्यशाला का आयोजन कर लोकविद्या के विचार को विश्व मंच पर रखा.फिर अगस्त 2004 में सारनाथ, वाराणसी में विद्या आश्रम बना.
यह वह संक्रमण काल था जब दुनिया औद्योगिक-युग से सूचना-संपर्क-युग में प्रवेश कर रही थी. लोकहितकारी ज्ञान की परख और लोकविद्या ज्ञान मीमांसा का उद्घाटन करने का यह ऐतिहासिक अवसर था. इसके लिए सारनाथ योग्य ही स्थान था. सारनाथ परिवर्तन के विचार, दर्शन और ज्ञान का स्थान माना जाता रहा है.
दुनिया तेज़ी से बदल रही थी. औद्योगिक क्रांति के समय से मनुष्य की वैचारिक और व्यावहारिक गतिविधियों का केंद्र ‘उत्पादन’ में रहा और औद्योगिक उत्पादन के आधारभूत ज्ञान पर साइंस का एकाधिकार था. उत्पादन के साधन, मालिकाना, मशीनीकरण, नियंत्रण, प्रबंधन, केंद्रीकृत/ विकेन्द्रित उत्पादन आदि इस युग की राजनीति और जीवन में बहस के मुद्दे रहे. 21वीं सदी में सूचनायुग के उद्घाटन से सूचना उद्योग, निजीकरण, बड़े बाज़ार, वैश्वीकरण, शहरों का पुनर्संगठन, जैविक खेती, इन्टरनेट, आदि ने मिलकर एक नई मायावी दुनिया का निर्माण किया जिसने ज्ञान की दुनिया पर साइंस का वर्चस्व तोड़ दिया. अब शोध और प्रयोगों का रास्ता ‘ऑटोमेशन’ के ज्ञान से ‘प्रबंधन’ के ज्ञान पर आ गया. ‘ज्ञान’ की परिभाषा ही बदल गई. और उसका केंद्र ‘उत्पादन’ से हटकर ‘ज्ञान’ पर आ गया. दूसरी तरफ किसानी, कारीगरी और जंगल-पहाड़-नदियों से जुड़े तमाम समाज तथा छोटी-छोटी पूँजी से जीवनयापन करने वाले परिवार/समाजों पर विस्थापन, बेगारी, बेरोज़गारी और गरीबी का पहाड़ टूट पड़ा. इन नई परिस्थितियों में सार्वजनिक दुनिया में न्यायपूर्ण परिवर्तन की विचारधाराओं की सीमाओं पर बहस खड़ी हो गई और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता बुनियादी राजनीति के ज्ञान-दर्शन पर चिंतन के लिए बाध्य हो गये. विद्या आश्रम ने ज्ञान की राजनीति पर संवाद चलाकर इस क्रिया में योगदान का मार्ग खोला.
ज्ञान की राजनीति के मार्फ़त लोकविद्या संवाद, ज्ञान मुक्ति आवाहन, लोकविद्या भाईचारा विद्यालय, शिक्षा वार्ता, चिंतन ढाबा, किसान पीठ, युवा ज्ञान शिविर जैसे कार्यक्रमों को आकार दिया गया. इनके मार्फ़त लोकविद्या के विशाल भण्डार, उसकी शक्ति और उसके खिलाफ हो रहे पक्षपात को समाज के सामने लाया गया. देश और दुनिया के शासक ज्ञान-समाज के नाम पर प्रबंधन के ज्ञान, कोग्निटिव साइंसेस, इन्टरनेट, जैव प्रौद्योगिकी के लिए शोध और नए बाज़ारों के निर्माण पर सारे संसाधन लगा रहे थे. इसके चलते ये सभी तेज़ी से विकसित हो रहे थे. दूसरी तरफ जनता में विस्थापन के विरोध के आन्दोलन भी तेज़ी से फैलने लगे. देश और दुनिया का किसान समाज कृषि-नीतियों के विरोध में आंदोलित था. ज्ञान की राजनीति ने तथाकथित ज्ञान-समाज के निर्माण का आधार बहुजन समाजों के ज्ञान यानि लोकविद्या के शोषण में देखा. श्रम के साथ ज्ञान के शोषण की पहचान की गई और मुकाबले का पहला चरण बौद्धिक सत्याग्रह में देखा गया. लोकविद्या की प्रतिष्ठा में ही न्यायपूर्ण परिवर्तन की चाभी है. लोकविद्या वार्ता, ज्ञान पंचायत, लोकविद्या पंचायत जैसे कार्यक्रमों ने और लोकविद्या साहित्य ने बौद्धिक सत्याग्रह के लिए ज़मीन तैयार की.
औद्योगिक युग में लोकविद्या को ज्ञान का दर्जा कभी नहीं मिला और बहुजन समाज के मुख्य धारा से बहिष्कृत किये जाने का एक बड़ा आधार इसमें रहा. सूचना-संपर्क-युग में लोकविद्या को ज्ञान क्षेत्र में प्रवेश तो मिला लेकिन उसे बराबरी का मान नहीं दिया गया. लोकविद्या को बराबरी के ज्ञान का दर्जा मिले इसका दावा पेश किये बिना लोकविद्या-समाज गैर-बराबरी, गरीबी और गुलामी के बंधनों से मुक्त नहीं होगा. लोकविद्या का दावा पेश करने के स्थान के रूप में समाज में ज्ञान पंचायत लगाने के कार्यक्रमों ने आकार लिया इनमें किसान ज्ञान पंचायत, कारीगर ज्ञान पंचायत, बिजली ज्ञान पंचायत, किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत, नारी ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत, स्वराज ज्ञान पंचायत आदि प्रमुख रहीं. वाराणसी के आलावा ये पंचायतें चंदौली, नागपुर, औरंगाबाद, मुंबई, दरभंगा, गया, इंदौर, सिंगरौली, हैदराबाद, बंगलुरु आदि अनेक शहरों में की गईं. ज्ञान पंचायतों का सिलसिला लम्बा चला. इसी क्रम में सिंगरौली में लोकविद्या आश्रम, चिराला से लोकविद्या सदस्सु, इंदौर में लोकविद्या समन्वय समूह तथा बंगलुरु में लोकविद्या वेदिके का निर्माण हुआ. हैदराबाद से लोकविद्या प्रपंचम और वाराणसी से कारीगर नजरिया का प्रकाशन शुरू हुआ. ये सब विचार और कार्यक्रम 2011 में लोकविद्या जन आन्दोलन के नाम से शुरू किये गए ज्ञान आन्दोलन के हिस्से बन गए.
हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में यह दौर जनता के बीच बड़ी हलचल का था. शासकों के द्वारा ज्ञान-समाज बनाने के आक्रामक आग्रह के विरोध में विश्व सामाजिक मंच ने नारा दिया ‘एक दूसरी दुनिया संभव है’ और इस मंच ने दुनिया के कई देशों में बड़े-बड़े सम्मलेन किये जिसमें विद्या आश्रम ने Dialogues on Knowledge in Society की चार पुस्तिकाओं का प्रकाशन कर भागीदारी की. यूरोप के विश्वविद्यालयों के छात्रों ने बड़े-बड़े आन्दोलन कर शिक्षा के निजीकरण का विरोध किया. इन आन्दोलनों ने ज्ञान के सवाल को नए ढंग से सामने रखा. एडू-फैक्टरी नाम के वैश्विक समूह में विद्या आश्रम से लोकविद्या का पक्ष रखा गया. इसी दौरान इक्वाडोर, बोलीविया जैसे देशों ने देसी जनता के ज्ञान के आधार पर ‘धरती माँ‘ और ‘अच्छा जीवन’ जैसे विचार को देश और समाज के संगठन का आधार बनाये जाने के आग्रह को विश्व मंच पर रखा. इन गतिविधियों को ज्ञान-आन्दोलन के रूप में देखा जाना चाहिए. विद्या आश्रम ने लोकज्ञान आन्दोलनों के वैश्विक भाईचारा की आवश्यकता को रेखांकित किया और इस आशय की एक पुस्तिका (Global Fraternity of People’s Knowledge Movements) विश्व सामाजिक मंच के 2015 में हुए तुनीसिया के महासम्मेलन के लिए तैयार किया. लोकविद्या जन आन्दोलन ने इन सभी घटनाओं से शक्ति हासिल की और ‘लोकविद्या के बल पर जीवनयापन करना यह मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है‘ इस बात को केन्द्र बनाकर लोकविद्या-समाज को अपने ज्ञान का दावा पेश करने का आवाहन किया. अलग-अलग शहरों में हुए लोकविद्या जन आन्दोलन के अधिवेशनों और सम्मेलनों ने लोकविद्या-समाज (बहुजन-समाज) के ज्ञान का दावा सामने लाया. इस मुद्दे को आम लोगों से संवाद के लिए लोकविद्या सत्संग चलाये गए. दर्शन अखाड़ा कार्यक्रम के द्वारा संत परम्पराओं में लोकशक्ति और समाज-संगठन के ज्ञान और दर्शन के सूत्र पहचानने के प्रयास हुए. ज्ञान-दर्शन संवाद चलाया गया. जिसके मार्फ़त ज्ञान की इजारेदारी को समाज विरोधी करार दिया तथा यह स्थापना की कि किसी भी काल में समाज में विविध ज्ञान धारायें और दर्शन होते हैं और इनके बीच बराबरी ही समाज में बराबरी और भाईचारा बना सकती है.
समाज में लोकविद्या का आधार वितरित सत्ता में होता है और आज समाज के संगठन का आधार केंद्रीकृत व्यवस्थाओं में है. ऐसे में लोकविद्या की प्रतिष्ठा के लिए समाज-संगठन की वितरित व्यवस्थाओं की परम्पराओं और ज्ञान पर ध्यान देना होगा इस विचार से स्वराज ज्ञान पंचायतों को दिशा मिली. लोकनीति-संवाद के मार्फ़त समाज, लोक, लोकनीति, स्थानीयता, वितरित सत्ता, न्याय, भाईचारा आदि पर संवाद को आकार मिला. इस संवाद और विमर्श ने वाराणसी ज्ञान पंचायत और सुर साधना को आकार दिया.
हाल ही में कोरोना काल, रूस-यूक्रेन युद्ध और आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स ने फिर एक बार विश्व के पुनर्संगठन के नए दौर की शुरुआत की है. सभ्यता और नस्ल इस पुनर्संगठन के महत्वपूर्ण मुद्दे बन रहे हैं. कृत्रिम ज्ञान इस पुनर्संगठन का एक शक्तिशाली सहयोगी बनता देखा गया है. ऐसे में परिवर्तन विमर्श में बहुजन समाज के ज्ञान यानी लोकविद्या के दावों को स्थापित करना अनिवार्य हो गया है. सामान्य जीवन और लोकविद्या की परम्पराओं का वाहक लोकविद्या–समाज सत्य के पथ को प्रकाशित करेगा और न्यायपूर्ण परिवर्तन का आगाज़ होगा.
धारणा
आज समाजात मूलभूत बदल घडवून आणण्यासाठी ज्ञानाच्या जगात मौलिक हस्तक्षेप आवश्यक आहे असे आम्ही मानतो.
इंटरनेट चे आगमन आणि याबरोबर ज्ञान-क्षेत्रात आलेल्या धरणीकंपानंतर आमचा हा समाज अधिक दृढ झाला आहे. ज्ञानाची मायावी जाळी (वर्चुअल नेटवर्क्स) पसरली आहेत, सायंस च्या एकछत्र वर्चस्वाला लगाम लागली आहे. याबरोबरच लोकविद्येचे अस्तित्व ओळखले जाऊ लागले आहे.
या सोबत संचार-युगात उपलब्ध झालेल्या नव्या अवजारांचा वापर करून नवीन रूपाने संघटित झालेले कॉर्पोरेट जग आणि जागतिकीकरण यांच्या जोरावर गेल्या तीन दशकांत शोषणाचे नवीन मार्ग तयार झाले आहेत. शेतकरी, कारागीर, आदिवासी, लहान व्यापारी व दुकानदार आणि महिला समाज, म्हणजेच सर्व लोकविद्याधार या शोषणाचे प्रमुख शिकार झाले आहेत.
नवीन शोषण-व्यवस्थांना आकार देण्याचे व वापरात उतरवायचे कार्य डाव्या व उजव्या दोनही धरतीच्या राज्य-व्यवस्थांच्या देख-रेखीत झाले. गेल्या एक दशकापासून यात सिविलाइझेशन स्टेट या नावाने वाढीस लागलेल्या राज्य व्यवस्थेची भर पडली आहे. विकास आणि आधुनिक जगाची निर्मिती यांसाठी लोकविद्याधार समाजाचे शोषण करणे अपरिहार्य आहे या मुद्द्यावर या सर्वच राज्य-व्यवस्थांच्या पुरस्कर्त्यांत कमालीचे एकमत आहे.
विभिन्न ज्ञान-प्रवाहांना सारखाच सन्मान आणि सारखेच स्थान मिळाल्याशिवाय ज्ञान-युगात समतेच्या आदर्शावर समाज-बांधणी अशक्य आहे.
मूलभूत समाज-केंद्रित बदलांसाठी जन-आंदोलनांवर आस्था असलेले व डिजिटल-दरी च्या पलिकडलेल्या किनाऱ्यावर उभया ज्ञान-आंदोलनाची गरज आहे.
दृष्टिकोन
लोकविद्या आणि सामान्य जीवन
लोकविद्या ते ज्ञान आहे ज्याला कुठलीही अट नाही, आणि सामान्य जीवन ते जीवन आहे ज्याची कुठलीही अट नाही.
लोकांकडे असलेले, त्यांचे अनुभव, गरजा, नैतिक संदर्भ, सौंदर्य-बोधाचे संदर्भ इत्यादीशी सुसंगती जोपासत बदलत जाणारे ज्ञान म्हणजे लोकविद्या. लोकांत रूढ विचार पद्धती, संघटन पद्धती, अमूर्तीकरणा च्या पद्धती या सर्वच या ज्ञानात एकरूप झालेल्या असतात. विविध विषयांबद्दल ची माहिती, लोकांचे कामे करायचे प्रकार, तांत्रिकी, कौशल्य अशा अनेक गोष्टी मिळून या ज्ञानाची ठोस रूपे घडवली जातात. लोकाविद्येत स्थिर आणि निर्जीव असे काहीच नाही. सामान्य जीवना सोबतच लोकविद्या फळाला येते, आणि कधीच मरत नाही.
सामान्य जीवनाला कुठल्याही अटी नाहीत. ते कुठल्याही विज्ञानावर, अगर तंत्रज्ञानावर आश्रित नाही. कुठल्याही धर्मावर, किंवा संघटन प्रकारावर, किंवा ज्ञान प्रसाराच्या कुठल्याही पद्धतीवर ही ते विसंबून नाही. सामान्य जीवनाच्या स्वतः च्या अशा मान्यता नसतात. ते म्हणजे सत्याला वाहिलेले, किंवा कठोर, किंवा नैतिक असे जीवन नाही. त्यात खोटे पण असते, अनैतिकता ही, आणि उधळपट्टीही. परंतू, सामान्य जीवनात सत्य, नैतिकता, न्याय, विवेक या सर्व गोष्टींचे निकष मात्र असतात. शिवाय हे निकष पाळावे असा आग्रह देखील असतो.
लोकविद्या म्हणजे लोकांची ज्ञानाधिष्ठित ताकद होय. कधीही संपुष्टात न येणाऱ्या, आणि बाह्य हस्तकांकरवी दमन, विकृतीकरण अगर दुर्लक्ष सोसून देखील निर्वाह, नवीनीकरण आणि प्रगती चे मार्ग चोखाळणाऱ्या अशा परंपरा लोकविद्येत सामावलेल्या असतात. पण विपर्यास असा की या परंपरांचे वाहकच जर शोषण, उपनिवेशवाद किंवा विस्तारवाद स्वीकारते झाले, तर मग मात्र त्या संपुष्टात येतात. हा एक प्रकारचा समाज-ज्ञानशास्त्रीय नियमच म्हणायचा. म्हणून लोकविद्या हा लोकांच्या ताकदीचा कधीही न आटणारा स्रोत आहे. लोकाविद्येचे प्रमुख मूल्य सामान्य जीवन आहे – कठोर जीवन नव्हे, साधे जीवन नव्हे तर फक्त सामान्य जीवन. ज्ञानक्षेत्रात, तसेच भौतिक जगात मुक्ती चे आह्वान पेलणारे लढे उभारायला लागणारा सर्व विचार मांडायला लोकविद्या व सामान्य जीवन या दोन संकल्पना पुरेशा आहेत.
सिद्धांत आणि व्यवहार दोन्ही बाबतीत ज्ञानाला केंद्रस्थानी ठेवूनच नवीन शासक वर्ग उभे झालेत, संघटित झालेत. या प्रक्रियेत सैद्धांतिक, व्यावहारिक – आणि कमाई च्या सुद्धा – क्षेत्रांत सर्वात जास्त महत्व प्राप्त झालेला विषय म्हणजे ज्ञान-प्रबंधन. डिजिटल दरीचे रूपांतर मूलभूत दरीत करण्याला हा विषय कारणीभूत ठरला. या परिस्थितीत समाजात जगणाऱ्या लोकविद्ये कडून शासक वर्ग अशी अपेक्षा बाळगून आहेत की तिने सतत सायंस अगर धर्म यांचे पाय धरावे.
ज्ञानाला शेवटी कुठल्याही मर्यादा घालणे अशक्य आहे, अशी आमची मान्यता आहे. परिणामी या किंवा त्या प्रकारचे ज्ञान मुक्ती-संघर्षात मदत करू शकत नाही, असे आम्ही मानत नाही. कुठली ही एखादी संकल्पना, अगर माहिती, अगर अनुमान-पद्धती मर्यादित असू शकेल. याला त्यांची ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, किंवा क्षेत्रीय पार्श्वभूमी, किंवा त्यांचा आजवर झालेला विशिष्ट वापर, किंवा विश्व-निर्मिती बद्दल च्या कुठल्यातरी विशिष्ट सिद्धांतावर त्यांचे अवलम्बित्व अशी अनेक कारणे असू शकतात. परंतू, या कुठल्याही कारणांनी खुद्द ज्ञानावर मात्र मर्यादा येत नाहीत. यास्तव आमचा प्रस्ताव ज्ञानाच्या सर्व क्षेत्रांत, सर्व आयामांत व प्रवाहांत परस्पर संवाद घडावा असा आहे. विविध ज्ञान-प्रवाहांत अशा संवादासाठी लोकविद्या आणि सामान्य जीवन एक मानक पुरवतात. लोकविद्या आणि सामान्य जीवन लोकांच्या ज्ञानाची आणि जीवनाची फक्त एक प्राथमिक अभिव्यक्तीच नसून लोकांच्या ताकदीचा स्रोत ही आहेत. परिणामी डिजिटल आणि सामाजिक विभाजनातून मुक्ती चे मार्ग प्रशस्त करणाऱ्या अशा राजकीय घडवणुकी कडेच या मानकाचा कल असेल.
माहिती-युगात सामान्य लोकांचा दृष्टिकोन म्हणजेच लोकविद्या दृष्टिकोन. अनेक गौरवशाली, समर्थ आणि अस्सल ज्ञान-परंपरांचे अस्तित्व स्वीकारणे म्हणजे असे मानणे नव्हे की त्यांपैकी काही, किंवा सर्व मिळून लोकांचे प्रश्न सोडवू शकतात, किंवा समाजाच्या नवनिर्मिती साठी व्यापक पाया पुरवू शकतात. लोकविद्या आणि सामान्य जीवन एकमेकाला बळ देतात, एकमेकात प्राण फुंकतात, एकमेकाचे रक्षक असतात व एकमेकाला गती देतात, हे नक्की. परंतु, म्हणून ते स्वयं-पूर्ण आहेत असा अर्थ निघत नाही, किंवा मिळून ज्या विचारांची वीण ते घालतात त्यांत नवीन जग उभारणीचा मंत्र आपोआपच विणलेला असेल असा ही नाही. आग्रह एवढाच की लोकविद्या व सामान्य जीवन यांना प्रस्थान रेषा, कायम चे संदर्भ आणि अंतिम निकष असे तिहेरी महत्व आहे. लोकविद्येचा दृष्टिकोन म्हणजे सत्य व न्यायाचा दृष्टिकोन होय. जागतिकीकरण व ज्ञान-प्रबंधन यांच्या दिमतीवर एकसंध होऊ शकणाऱ्या कुठल्यातरी काल्पनिक भावी जगाची जी मिथ्या आपल्या सर्वांच्या गळी उतरवण्यात येत आहे. त्यांपासून निवारणाचा दृष्टिकोन होय. या दृष्टिकोनातून सतत नवीन बाजू हाताळत विचार करण्याची प्रेरणा मिळते, आणि त्यातून संघर्ष टिकवून ठेवायचे बळ.
वाटचाल
देशातील बहुजन समाजाच्या आशा-आकांक्षा आणि आंदोलने, व विशेष करून नवीन शेतकरी आंदोलन यांपासून प्रेरणा घेत लोकविद्या विचार जन्माला आला. 1980 च्या दशकापासून ‘ज्ञान’ मध्यवर्ती मानून जीवनाच्या सामाजिक, राजकीय बाजूंवर वैचारिक मंथन सुरू केले. लोकविद्या प्रतिष्ठा प्रयास या नावाने मजदूर किसान नीति समूहाच्या वतीने वाराणसीला 1995 च्या उन्हाळ्यात एक बैठक झाली. मजदूर किसान नीति (कानपूर), पी.पी.एस.टी. फाउंडेशन (चेन्नई), आणि नारी हस्तकला उद्योग समिति (वाराणसी) या तीन संघटनांचे विचार व कार्य या पायावर लोकविद्या विचार पुढे वाढला. पारंपारिक भारतीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी या विषयावर 1990 च्या दशकात मुंबई (1993), चेन्नई (1995) आणि वाराणसी (1998) अशी तीन महाअधिवेशने भरली. वाराणसी चे महाअधिवेशन लोकविद्या महाअधिवेशन या नावाने भरले. लोकविद्या विचार देशाच्या पातळीवर पुढे यायला याने मदत झाली. वाराणसी महाअधिवेशना पासून लोकविद्या संवाद नावाच्या पत्रिकेचे प्रकाशन सुरु केले. लोकाविद्येची विविध अंगे, तिची ताकद, गतिशीलता, प्रासंगिकता आणि स्वरूप हे विषय पत्रिकेत चर्चेला घेतले. जानेवारी 2004 मध्ये मुंबईला भरलेल्या विश्व सामाजिक मंच (WSF) या संघटनेच्या आंतरराष्ट्रीय महाअधिवेशनात इंडिजेन रीसर्च फाउंडेशन (पुणे) आणि लोकविद्या संवाद (वाराणसी) यांच्या संयुक्त विद्यमाने समाजात ज्ञानावर संवाद (Dialogue on Knowledge in Society) या नावाने एका कार्यशाळेचे आयोजन करून लोकविद्या विचार आंतरराष्ट्रीय पटलावर मांडण्यात आला. ऑगस्ट, २००४ मध्ये सारनाथ, वाराणसीला विद्या आश्रम स्थापन केला.
हा काळ संक्रमणाचा होता. औद्योगिक युग पाठीमागे सोडून जग माहिती-संपर्क युगात प्रवेश करत होते. लोकहित साधणाऱ्या ज्ञानाचे निकष आणि लोकविद्येची ज्ञान-मीमांसा दोहोंच्या उद्घाटनासाठी हा ऐतिहासिक प्रसंग होता. यासाठी स्थळाचे औचित्य सारनाथ ने साध्य झाले कारण सार्नाठ्ची ओळख मुळात परिवर्तनवादी विचार, दर्शन व ज्ञान यासाठीच आहे.
जग वेगाने बदलत होते. औद्योगिक क्रांती च्या वेळेला वैचारिक आणि व्यावहारिक दृष्टीने केंद्र स्थानी ‘उत्पादन’ असे. ज्ञान-दृष्टीने औद्योगिक उत्पादनाचा पाया सायंस होता. ज्ञान-क्षेत्रावर सायंस चा एकाधिकार होता. त्या युगात राजकारण व सार्वत्रिक क्षेत्रातील चर्चा उत्पादनाची साधने, मालकी हक्क, औद्योगिक प्रक्रियांचे मशीनीकरण, नियंत्रण, व्यवस्थापन, केंद्रीकृत / विकेंद्रित उत्पादन अशा मुद्द्यांवर घडत. एकविसाव्या शतकासोबत माहिती-संचार युगाला सुरवात झाली. सार्वत्रिक चर्चांचे मुद्दे बदलले. माहिती उद्योग, खाजगीकरण, मोठ्या बाजारपेठा, जागतिकीकरण, शहरांचे पुनर्वसन, जैविक शेती, इंटरनेट अशा गोष्टी मिळून नवीन मायावी जग उदयाला आले. ज्ञान-क्षेत्रा वरील सायंस ची पकड शिथिल झाली. संशोधन आणि प्रयोग यांनी ‘ऑटोमेशन’ व ‘ज्ञान-व्यवस्थापन’ यांची वाट धरली. ज्ञानाची व्याख्या बदलली. सार्वत्रिक चर्चांनी उत्पादनाची कास सोडून ‘ज्ञान’ या संकल्पनेची कास धरली. दुसरीकडे शेतकरी, कारागीर, डोंगर- जंगले-नद्यांसोबत जुडलेल्या समाजांवर आणि लहान भांडवलावर व्यवसाय करणाऱ्या कुटुंबावर विस्थापन, बेरोजगारी चा डोंगर कोसळला. या सर्व नवीन वातावरणात न्याय व सामाजिक बदल हे मुद्दे व यांवरील वेगवेगळ्या विचारांच्या मर्यादा हे विषय चर्चेत आले आणि बऱ्याच सामाजिक-राजकीय कार्यकर्त्यांना मूलगामी राजकीय विचारांचे ज्ञानाधार तपासणे गरजेचे वाटू लागले. या प्रक्रियेत योगदान म्हणून विद्या आश्रमच्या वतीने ज्ञानाचे राजकारण या नावाने एक संवाद सुरु करण्यात आला.
या संवादाच्या माध्यमातून लोकविद्या संवाद, ज्ञान-मुक्ती आवाहन, लोकविद्या भाईचारा विद्यालय, शिक्षण वार्ता, चिंतन धाबा, किसान पीठ, युवा ज्ञान शिबिर या सारखे कार्यक्रम साकारण्यात आले. लोकविद्येचे मोठे भांडार, तिची ताकद, आणि वर्तमान व्यवस्थेत तिच्या बाबतीत राबवण्यात येत असलेले पक्षपाती धोरण या गोष्टी समाजा समोर मांडणे या कार्यक्रमांतून शक्य झाले. तथाकथित ज्ञान-समाज उभारण्याच्या नावाने देश आणि सर्व जगातले शासक ज्ञान व्यवस्थापन, कॉग्निटिव्ह सायंस, इंटरनेट, जैव-तंत्रज्ञान या क्षेत्रांत भारी गुंतवणूक करत असल्याने त्यांत भरभराट होत होती. दुसरीकडे जागोजागी घडत असलेल्या विस्थापानाने या विरोधात लोकांची आंदोलने होत होती. देशातले आणि जग भारातले शेतकरी शेतकी धोरणांविरुद्ध उभे ठाकले होते. ज्ञान-राजकारणाच्या दृष्टीने या घटनांमागे कारण तथाकथित ज्ञान-समाज उभारण्यासाठी बहुजन समाजाच्या ज्ञानाचे, म्हणजेच लोकविद्येचे होत असलेले शोषण हे होते. याने बहुजन समाजाचे केवळ श्रम नव्हे तर ज्ञानाचे हि शोषण घडवले जात असल्याची ओळख तयार झाली. याला आव्हान म्हणून बौद्धिक सत्याग्रह हा कार्यक्रम पुढे आला. लोकविद्या वार्ता, ज्ञान पंचायत, लोकविद्या पंचायत हे कार्यक्रम आणि लोकविद्या साहित्य प्रकाशन याने बौद्धिक सत्याग्रहासाठी पार्श्वभूमी तयार झाली.
औद्योगिक युगाने लोकाविद्येला ज्ञानाचा दर्जा नाकारला. समाजाच्या मुख्य प्रवाहातून बहुजन समाज बहिष्कृत ठरण्यामागे या नकाराचा मोठा वाटा होता. पुढे माहिती-संपर्क युगात ज्ञान-क्षेत्रात लोकविद्येचे अस्तित्व नाकारणे शक्य नसले तरी लोकविद्येला समान ज्ञानाचा मान मिळाला नाही. तसा तो मिळत नाही तोवर बहुजन समाज (लोकविद्या समाज) विषमता, दारिद्र्य आणि गुलामगिरीच्या बंधनांतून मुक्त होणार नाही. लोकविद्येचा ज्ञान म्हणून समतेचा दावा समाजात मांडायचे स्थान म्हणून ज्ञान पंचायती भरवायचा कार्यक्रम राबवला गेला. यात शेतकरी ज्ञान पंचायत, कारागीर ज्ञान पंचायत, वीज ज्ञान पंचायत, शेतकरी-कारागीर ज्ञान पंचायत, स्त्री ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत, स्वराज ज्ञान पंचायत अशा विविध स्वरूपाच्या ज्ञान पंचायती आयोजित केल्या गेल्या. या पंचायती वाराणसी, चंदौली, नागपूर, औरंगाबाद, मुंबई, दरभंगा, गया, इंदोर, सिंगरौली, हैदराबाद, बंगळुरू व इतर अनेक ठिकाणी भरल्या. हैदराबाद वरून लोकविद्या प्रपंचम आणि वाराणसीहून कारीगर नजरिया या पत्रिकांचे प्रकाशन सुरु झाले. प्रस्तुत सर्व विचार आणि कार्ये 2011 साली आरम्भलेल्या लोकविद्या जन आंदोलनात एकत्र झाली.
हा सर्व काळ आपल्याच नव्हे तर जगातील अनेक देशांत मोठ्या लोकांत वाढत्या अस्वस्थतेचा, असंतोषाचा व आंदोलनांचा होता. शासकांकरवी ‘ज्ञान-समाज’ उभारण्यासाठी होत असलेल्या आक्रामक कारवायांच्या विरोधात विश्व सामाजिक मंचाने अनेक देशांत मोठी संमेलने भरवून ‘एक वेगळे जग शक्य आहे’ असा नारा बुलंद केला. या संमेलनांत विद्या आश्रमने समाजात ज्ञानावर संवाद (Dialogues on Knowledge in Society) या नावाने कार्यशाळा आयोजित केल्या. कार्यशाळांकरीता चार पुस्तिकांचे प्रकाशन केले गेले. या दरम्यान यूरोप मधील विद्यापीठांत विद्यार्थी मोठ्या संख्येने आंदोलने करत होते. या आंदोलनांतून ज्ञानाचा प्रश्न एका वेगळ्या रूपाने समोर आला. एडू-फैक्टरी (Edu-Factory) या जागतिक समूहा समक्ष विद्या आश्रम कडून लोकविद्या विचार मांडण्यात आला. बोलिविया, इक्वाडोर सारख्या देशांत या काळात स्वदेशी ज्ञानाच्या आधारावर ‘धरणी माता’ आणि ‘चांगले जीवन’ हे विचार समोर येत होते. या देशांकडून जागतिक मंचावर देश व समाज उभारणी साठी हे विचार आधारभूत मानले जावेत असा आग्रह धरला जात होता. या प्रक्रियांकडे एकंदर ज्ञान आंदोलनाचा भाग म्हणूनच बघायला हवे. विद्या आश्रमच्या वतीने वेगवेगळ्या लोकज्ञान आंदोलनांत परस्पर बंधुभावाची गरज असल्याची भूमिका मांडली. यासाठी या आशयाची एक पुस्तिका (Global Fraternity of Knowledge Movements) प्रकाशित केली आणि हा विचार 2015 साली ट्युनिशिया येथील विश्व सामाजिक मंचाच्या महासंमेलनात पुढे नेला. या सर्व प्रक्रियांतून ताकद घेऊन पुढे लोकविद्या जन आंदोलनाने ‘लोकविद्येच्या बळावर उपजीविका हा माणसाचा जन्मसिद्ध हक्क आहे’ अशी मांडणी झाली. या मांडणी सोबत बहुजन समाजाने लोकविद्येचा दावा पुढे करायचे आव्हान लोकविद्या जन आंदोलनामार्फत करण्यात आले. 11 जानेवारी 2014 मध्ये भरलेल्या मुलताई मेळाव्याचे औचित्य साधून लोकविद्येच्या दाव्याचा, जन-संघर्षांसाठी लोकविद्या (बहुजन) समाजाच्या एकीचा आणि ज्ञान आंदोलनाचा हा सर्व विचार नेमक्या अपेक्षा आणि मागण्यांसह एका पुस्तिकेत (जन-संघर्ष और लोकविद्याधर समाज की एकता) मांडण्यात आला. लोकविद्या सत्संग या कार्यक्रमाच्या माध्यमाने सामान्य लोकांत यावर चर्चा पुढे नेता आली. लोकशक्ती आणि समाज संघटन या संबंधीचे ज्ञान व चिंतन संत परंपरेत शोधून पुढे आणायचे प्रयत्न दर्शन अखाडा कार्यक्रमातून सुरू झाले. ज्ञाना वर एकाधिकार समाज-विरोधी असल्याची मांडणी ज्ञान-दर्शन संवाद कार्यक्रमांतून केली गेली. कुठल्याही समाजात कुठल्याही काळात अनेक व विविध ज्ञान-प्रवाह असतात, आणि या प्रवाहांत परस्पर समता असल्यानेच समाजात समता व बंधुभाव नांदू शकतो, अशी मांडणी या ज्ञान संवादाच्या माध्यमाने पुढे आली.
वर्तमान सामाजिक बांधणी केंद्रीकृत सत्तेवर आधारलेली आहे. पण लोकविद्येचा आधार मात्र सर्व समाजात वितरीत अशा सत्तेत आहे. त्यामुळे लोकविद्या प्रतिष्ठित व्हायची असेल तर सामाजिक बांधणीच्या अशा परंपरा महत्वाच्या ठरतात ज्यांत सत्ता समाजात काही ठिकाणी एकवटलेली नसून समाजात सर्वत्र पसरलेली आहे. स्वराज ज्ञान पंचायती कल्पना व कार्यक्रम या विचाराने साकारले. समाज, लोक, लोकनीती, स्थानिकाता, वितरीत सत्ता, न्याय व बंधुभाव या विषयांवरील चर्चेला लोकनीती-संवाद या कार्यक्रमातून गती मिळाली. यातून पुढे वाराणसी ज्ञान पंचायत कार्यक्रम आणि सुर साधना हे पत्रक सुरु करण्यात आले.
एवढ्यात करोना महामारी, रशिया-युक्रेन युद्ध आणि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजन्स) क्षेत्रातील शोध या घटनांतून जागतिक पातळीवर पुन्हा एकदा संघटनात्मक बदलांची चाहूल लागते आहे. या प्रक्रियेत संस्कृती (सिविलाइझेशन) आणि वर्ण (रेस) हे मुद्दे महत्वाचे होत चालले आहेत. कृत्रिम ज्ञान याला सहयोगी तर ठरतय असे म्हणायला जागा आहे. अशा परिस्थितीत परिवर्तन विमर्श या धरतीच्या कार्यक्रमांतून बहुजन समाजाचे ज्ञान किंवा लोकविद्ये चा दावा ताकदीने मांडणे गरजेचे आहे. सामान्य जीवन आणि लोकविद्येच्या परंपरांतून लोकविद्या समाज सत्य, न्याय आणि समते साठी समाज-परिवर्तनाचा मार्ग दाखवेल.
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The Idea
We believe that a radical intervention in the world of knowledge is a necessary condition for a radical transformation of society.
This belief has deepened since the appearance of the internet in the last decade of 20th Century. The World wide web (www) has brought great flux to the world of knowledge. Virtual networks of knowledge are ascendant, Science is losing its place of command and lokavidya (knowledge in society ) is getting new recognition.
At the same time, globalization and corporate reorganization in the Age of Information are shaping new forms of exploitation uprooting the lives of peasants, artisans, adivasis, women and small retailers, all bearers of lokavidya.
In the Knowledge Age equal respect for all streams of knowledge is a pre-condition for shaping a world based on ideals of equality.
Lokavidya Movement that derives its strength from the ideas and organization of the samaj is the demand of the times. Lokavidya philosophy of knowledge needs to become a social force if a new world is to be built.All knowledge starts with lokavidya and must return to lokavidya.
Knowledge that does not return turns against humanity and nature.
Standpoint
Lokavidya and Ordinary Life
Unconditional knowledge and unconditional life is lokavidya and ordinary life. Lokavidya is the knowledge with the people which changes with their experience, needs, change of ethical and aesthetic contexts and so on. It incorporates their way of thinking, principles of organisation, mode of abstraction etc. It is made up of a body of information, practices, techniques, expertise and much more. There is nothing in lokavidya which is not changeable. It grows with ordinary life, gels with it and never dies. Ordinary life is life without condition. It assumes no science, no technology, no religion, no methods of organisation and communication of knowledge, it assumes nothing. It is not true, austere or moral life, for there is falsehood, extravaganza and immorality in ordinary life. But it has the criteria of truth, morality, justice, wisdom etc. and exhortation for these in it.
Lokavidya constitutes the epistemic strength of the people. It is constituted of those traditions of knowledge which refuse to die and produce ever new modes of subsistence, innovation and growth under oppression, marginalisation or distortion by alien intervention. Ironically they die out if the bearers of these traditions become expansionist, colonisers and oppressors. This is a kind of socio-epistemic law. So lokavidya is an inexhaustible source of strength of the people. The chief value associated with lokavidya is that of ordinary life. Not austere life, not simple life, just ordinary life. From the twin concepts of lokavidya and ordinary life we can proceed to develop concepts which would enable us to build emancipatory resistance both in the epistemic realm and the realm of physical activity.
We do not assume that one or other form of knowledge can not contribute to development of emancipatory politics, for we think that knowledge can not essentially be limited. Every concept, piece of information and even method of inference of a type of knowledge may be limited (say by its historical roots, cultural or regional genesis and application or by embodying elements of some specific cosmology etc.), but knowledge per se is not limited in any of its locations. So what is proposed is a dialogue between all locations of knowledge. Lokavidya and ordinary life constitute our normative framework for this dialogue between various streams of knowledge, locations of knowledge. Since lokavidya and ordinary life are not just primary expressions of people’s knowledge and life but also constitute the primary sources of strength of the people, therefore the normative framework of lokavidya and ordinary life radically favours political formations for emancipation of the samaj from subjugation and being externed. Lokavidya standpoint is the people’s standpoint in the Age of Information. To say that there exist so many respectable and genuin traditions of knowledge is not to say that some or all of them have answers to people’s problems and a sufficiently wide basis for reconstructing the world differently. To say that lokavidya and ordinary life reinforce, enliven, protect and move each other is not to say that they are complete unto themselves and the ideology they may spin out has recepies for reconstruction of the world. It is only to say that they constitute our starting point, constant reference and also the ultimate criteria.
Lokavidya standpoint is the standpoint of truth and justice in the Age of Information . It enables us to fight against falsehood imposed upon the world in the name of a future global and connected world based on Globalization and Knowledge Management. It enables our struggles to last out because it enables us to think differently.
The Journey
The development of the concept of lokavidya and generally the focus on vidya in socially and politically significant aspects of life dates back to 1995. It owes its genesis to the thought and work of three organisations in the preceeding period, namely Mazdoor Kisan Niti group (Kanpur), PPST Foundation (Chennai) and Nari Hastakala Udyoga Samiti (Varanasi) and specifically to the concrete context of the Congresses of Traditional Sciences & Technologies of India (1993 Mumbai, 1995 Chennai, 1998 Varanasi).
Lokavidya Mahadhiveshan (Third Congress of Traditional Sciences & Technologies of India) and the simultaneous beginning of the publication of the Lokavidya Samvad gave some shape to the social pursuit focussed on vidya. The workshop Dialogues on Knowledge in Society organised by Indigen Research Foundation, Pune, and Lokavidya Samvad, Varanasi, at World Social Forum 2004 in Mumbai gave this pursuit a further impetus.
In August 2004 the Vidya Ashram got off to a start at Sarnath. - हिन्दी
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धारणा
हमारी यह मान्यता है कि आज समाज में मौलिक परिवर्तन बगैर ज्ञान की दुनिया में मौलिक दखल बनाए संभव नहीं है.
इंटरनेट के आने और इसके साथ ज्ञान की दुनिया में उठे भूचाल के बाद हमारी यह मान्यता और गहरी हो गई है. ज्ञान के मायावी जाल (व्हर्चुअल नेटवर्क्स) फैले हैं, साइंस का एकछत्र दबदबा कमजोर हुआ है. इसके साथ ही लोकविद्या (समाज में व्याप्त ज्ञान) के वजूद की पहचान बढ़ी है.
इसके साथ ही सूचना-युग ने मुहैय्या कराये नए औजारों को लेकर कॉर्पोरेट दुनिया के पुनर्संगठन तथा वैश्वीकरण से पिछले तीन दशकों में शोषण के नए तौर-तरीके इजाद कर लिए गये हैं, और दिन-ब-दिन किये जा रहे हैं. किसान, कारीगर, आदिवासी, फुटकर व्यापारी-दुकानदार तथा महिला समाज, अर्थात सारे लोकविद्याधर इस शोषण के मुख्य शिकार हैं.
शोषण कि नई व्यवस्थाओं को आकार और अंजाम देने का कार्य वाम और दक्षिण पंथी राज्य-व्यवस्थाओं की निगरानी में होता रहा है. पिछले एक दशक से सभ्यता-परक राज्य (सिविलाइझेशन-स्टेट) के नाम से उभरती व्यवस्था जुड़ गई है. इन सभी व्यवस्थाओं के सामार्थाकोन में विकास और आधुनिक दुनिया के सपनों को साकार करने में लोकविद्याधर समाज के शोषण की अपरिहार्यता के मुद्दे को लेकर गहरा मतैक्य है.
ज्ञान-युग में समता के आदर्श पर दुनिया को बनाने के लिए यह लाज़मी शर्त है कि सभी ज्ञान-धाराओं के लिए एक सा सम्मान और स्थान हो.समाज-केन्द्रित मौलिक परिवर्तन के लिए जन-आन्दोलनों में आस्था रखने वाले डिजिटल-खाई के परले छोर पर खड़े ज्ञान आन्दोलन की आवश्यकता है.
दृष्टिकोण
लोकविद्या और सामान्य जीवन
लोकविद्या वह ज्ञान है जिसकी कोई शर्त नहीं होती. सामान्य जीवन वह जीवन है जिसकी कोई शर्त नहीं होती.
लोकविद्या लोगों के पास का वह ज्ञान है जो उनके अनुभव, जरुरत, नैतिक और सौंदर्य-बोधक सन्दर्भ इत्यादि के साथ बदलता रहता है. इस ज्ञान में उनके सोचने के तरीके, संगठन के नियम, अमूर्तिकरण के तरीके सब एकत्रित होते हैं. जानकारियों का एक भण्डार, लोगों के काम करने के तौर-तरीके, तकनीक, हुनर, और क्या क्या जोड़ कर इस ज्ञान का वास्तव रूप गढ़ा होता है. लोकविद्या में ऐसा कुछ नहीं जो स्थिर हो, जड़ हो. लोकविद्या सामान्य जीवन के साथ फलती फूलती है, और कभी मरती नहीं.
सामान्य जीवन हर शर्त से मुक्त है. वह न किसी विज्ञान पर आश्रित है, न किसी तांत्रिकी पर, न किसी धर्म पर, और न ही संगठन या ज्ञान-प्रसार की किन्ही पद्धतियों पर. उसकी अपनी कोई मान्यता नहीं. सामान्य जीवन सच्चा, या कठोर, या नैतिक जीवन नहीं है. उसमे झूठ भी है, फिजूलखर्ची भी, और अनैतिकता भी. लेकिन सामान्य जीवन में सत्य, नैतिकता, न्याय, विवेक इत्यादि की कसौटियां मौजूद हैं.
लोकविद्या समाज की ज्ञान-गत ताकत है. समाज की वे परम्पराएं जो मरती नहीं, बल्कि बाहरी हस्तक्षेप से दमन, विकृतीकरण और उपेक्षा के बावजूद बने रहने के, नवीनीकरण के और आगे बढ़ने के नए मार्गों का सतत आविष्कार करती रहती हैं, लोकविद्या को गढ़ती हैं. हाँ, इन परम्पराओं के धारक और वाहक अगर विस्तारवादी, उपनिवेशवादी और शोषक बन जाते हैं तो वे अवश्य नष्टप्राय हो जाती हैं. लोकविद्या समाज की ताकत का अक्षय स्रोत है. लोकविद्या के साथ मुख्यतः जो मूल्य जुड़ा है वह सामान्य जीवन का मूल्य है. न कठोर जीवन, न साधा जीवन, सिर्फ सामान्य जीवन. लोकविद्या और सामान्य जीवन इन दो को लेकर हम उन सारी धारणाओं को गढ़ सकते हैं जो हमें न सिर्फ ज्ञान की दुनिया में, बल्कि भौतिक कार्यों के क्षेत्र में भी मुक्तिदायी संघर्ष खड़ा करने की काबीलियत दे सकती हैं.
नए शासक वर्ग सिद्धांत और अभ्यास दोनों क्षेत्रो में ज्ञान को केंद्र में रखते हुए उभरे हैं, और संगठित भी हुए हैं. इस प्रक्रिया में ज्ञान-प्रबंधन सबसे अधिक महत्वपूर्ण और कमाई का सैद्धांतिक और अभ्यासिक व्यवसाय रहा है. इसने डिजिटल खाई को ज्ञान की मौलिक खाई में बदल दिया है. दूसरी तरफ तो समाज में बसने वाला ज्ञान, अर्थात लोकविद्या है, जिससे ये उम्मीद की जा रही है कि इस खाई को पार करने के प्रयासों में वह लगातार साइंस और धर्मं को अपनाए.
चूँकि हम यह मानते हैं कि ज्ञान को अंततोगत्वा सीमाओं में बांधना नामुमकिन है, हम यह नहीं समझते कि इस या उस प्रकार का ज्ञान मुक्ति की राजनीति की बढ़ोत्तरी में कोई भूमिका नहीं हो सकती. यह संभव है कि अपनी ऐतिहासिक जड़ों या अपनी सांस्कृतिक या क्षेत्रीय विरासत या उपयोग, या फिर हो सकता है कि सृष्टि के उगम की किसी विशिष्ठ समझ के बंधन से ही हर धारणा, हर जानकारी या हर ज्ञान प्रकार की अनुमान लगाने की हर पद्धति कि निश्चित सीमाए हों. लेकिन अपने आप में ज्ञान इनमें से किन्हीं विशिष्ठाताओं या स्थानों से सीमित नहीं होता. इसलिए हमारा प्रस्ताव ज्ञान के सभी स्थानों और विशेषताओं के बीच आपसी संवाद का है. लोकविद्या और सामान्य जीवन विविध ज्ञान धाराओं के बीच इस प्रकार के संवाद के लिए एक मानक इजाद करते हैं. चूँकि लोकविद्या और सामान्य जीवन समाज के ज्ञान तथा जीवन की मात्र एक अभिव्यक्ति न होकर समाज की ताकत का मूल स्रोत भी हैं, लोकविद्या और सामान्य जीवन के मानक का झुकाव उन राजनीतिक संरचनाओं की ओर है जो डिजिटल और सामाजिक विभाजन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं.
लोकविद्या दृष्टिकोण सूचना युग में सामान्य लोगों का दृष्टिकोण है. बहुत सारी गौरवशाली, यथार्थ तथा खरी ज्ञान-परम्पराओं के अस्तित्व को मानने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि उनमें से कुछ या सभी लोगों की समस्याओं का समाधान दे सकती हैं, या दुनिया को नए छोर से बांधने के लिए विस्तृत आधार प्रदान कराती हैं. लोकविद्या और सामान्य जीवन एक-दूसरे को मजबूती देते हैं, एक-दूसरे में प्राण भरते हैं, एक-दूसरे की रक्षा करते हैं और एक-दूसरे को गति प्रदान करते हैं. लेकिन इस कथन का अर्थ यह नहीं होता कि वे अपने-आप में पूर्ण हैं, या यह भी नहीं कि जिस विचारधारा के धागे वे मिलकर साथ बुनते हैं, उनमें से अपने आप ही दुनिया के पुनर्निर्माण के नुस्खे निकल आयेंगे. कहना यह है कि ये दो हमारे लिए प्रस्थान के बिंदु, निरंतर सन्दर्भ और अंतिम कसौटी हैं. इस सूचना-युग में लोकविद्या दृष्टिकोण सत्य और न्याय का दृष्टिकोण है, वैश्वीकरण और ज्ञान-प्रबंधन की बदौलत किसी काल्पनिक भविष्य की परस्पर जुडी हुई वैश्विक व्यवस्था का जो झूठ हम पर बरपा जा रहा है, उससे निबटने और निजात पाने का दृष्टिकोण है. चूँकि यह दृष्टिकोण हमें नए सिरे से सोचने की प्रेरणा देता है, वह हमारे संघर्षों को बने रहने की ताकत देता है.
यात्रा
लोकविद्या विचार देश के बहुजन समाजों की आकाँक्षाओं और आन्दोलनों, विशेषत: नए किसान आन्दोलनों से जन्मा है. 1980 के दशक से विद्या को केंद्र में रखकर जीवन के सामाजिक, राजनीतिक आदि पक्षों पर विचार शुरू हुआ और मजदूर किसान नीति समूह ने लोकविद्या प्रतिष्ठा प्रयास के नाम से 1995 की गर्मियों में वाराणसी में एक बैठक की. अलग-अलग तीन संगठनों के विचारों और कार्यों से लोकविद्या का विचार पनपा, ये संगठन क्रमश: हैं – मज़दूर किसान नीति (कानपुर), पी.पी.एस.टी. फाउंडेशन (चेन्नई) और नारी हस्तकला उद्योग समिति (वाराणसी). 1990 के दशक में पारंपरिक भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मुंबई (1993), चेन्नई (1995) और वाराणसी (1998) में तीन बड़े-बड़े महाधिवेशन हुए. वाराणसी का महाधिवेशन लोकविद्या महाधिवेशन के नाम से हुआ और लोकविद्या विचार राष्ट्रीय पटल पर आया. वाराणसी महाधिवेशन के दौरान लोकविद्या संवाद नाम की पत्रिका प्रकाशित करना शुरू किया गया. लोकविद्या के विविध पक्षों, इसकी शक्ति, गतिशीलता, प्रासंगिकता और स्वरुप को बहस का मुद्दा बनाया गया. मुंबई में जनवरी 2004 में विश्व सामाजिक मंच के अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन में समाज में ज्ञान पर संवाद के नाम से इंडीजन रिसर्च फाउंडेशन (पुणे) और लोकविद्या संवाद (वाराणसी) ने मिलकर एक कार्यशाला का आयोजन कर लोकविद्या के विचार को विश्व मंच पर रखा.फिर अगस्त 2004 में सारनाथ, वाराणसी में विद्या आश्रम बना.
यह वह संक्रमण काल था जब दुनिया औद्योगिक-युग से सूचना-संपर्क-युग में प्रवेश कर रही थी. लोकहितकारी ज्ञान की परख और लोकविद्या ज्ञान मीमांसा का उद्घाटन करने का यह ऐतिहासिक अवसर था. इसके लिए सारनाथ योग्य ही स्थान था. सारनाथ परिवर्तन के विचार, दर्शन और ज्ञान का स्थान माना जाता रहा है.
दुनिया तेज़ी से बदल रही थी. औद्योगिक क्रांति के समय से मनुष्य की वैचारिक और व्यावहारिक गतिविधियों का केंद्र ‘उत्पादन’ में रहा और औद्योगिक उत्पादन के आधारभूत ज्ञान पर साइंस का एकाधिकार था. उत्पादन के साधन, मालिकाना, मशीनीकरण, नियंत्रण, प्रबंधन, केंद्रीकृत/ विकेन्द्रित उत्पादन आदि इस युग की राजनीति और जीवन में बहस के मुद्दे रहे. 21वीं सदी में सूचनायुग के उद्घाटन से सूचना उद्योग, निजीकरण, बड़े बाज़ार, वैश्वीकरण, शहरों का पुनर्संगठन, जैविक खेती, इन्टरनेट, आदि ने मिलकर एक नई मायावी दुनिया का निर्माण किया जिसने ज्ञान की दुनिया पर साइंस का वर्चस्व तोड़ दिया. अब शोध और प्रयोगों का रास्ता ‘ऑटोमेशन’ के ज्ञान से ‘प्रबंधन’ के ज्ञान पर आ गया. ‘ज्ञान’ की परिभाषा ही बदल गई. और उसका केंद्र ‘उत्पादन’ से हटकर ‘ज्ञान’ पर आ गया. दूसरी तरफ किसानी, कारीगरी और जंगल-पहाड़-नदियों से जुड़े तमाम समाज तथा छोटी-छोटी पूँजी से जीवनयापन करने वाले परिवार/समाजों पर विस्थापन, बेगारी, बेरोज़गारी और गरीबी का पहाड़ टूट पड़ा. इन नई परिस्थितियों में सार्वजनिक दुनिया में न्यायपूर्ण परिवर्तन की विचारधाराओं की सीमाओं पर बहस खड़ी हो गई और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता बुनियादी राजनीति के ज्ञान-दर्शन पर चिंतन के लिए बाध्य हो गये. विद्या आश्रम ने ज्ञान की राजनीति पर संवाद चलाकर इस क्रिया में योगदान का मार्ग खोला.
ज्ञान की राजनीति के मार्फ़त लोकविद्या संवाद, ज्ञान मुक्ति आवाहन, लोकविद्या भाईचारा विद्यालय, शिक्षा वार्ता, चिंतन ढाबा, किसान पीठ, युवा ज्ञान शिविर जैसे कार्यक्रमों को आकार दिया गया. इनके मार्फ़त लोकविद्या के विशाल भण्डार, उसकी शक्ति और उसके खिलाफ हो रहे पक्षपात को समाज के सामने लाया गया. देश और दुनिया के शासक ज्ञान-समाज के नाम पर प्रबंधन के ज्ञान, कोग्निटिव साइंसेस, इन्टरनेट, जैव प्रौद्योगिकी के लिए शोध और नए बाज़ारों के निर्माण पर सारे संसाधन लगा रहे थे. इसके चलते ये सभी तेज़ी से विकसित हो रहे थे. दूसरी तरफ जनता में विस्थापन के विरोध के आन्दोलन भी तेज़ी से फैलने लगे. देश और दुनिया का किसान समाज कृषि-नीतियों के विरोध में आंदोलित था. ज्ञान की राजनीति ने तथाकथित ज्ञान-समाज के निर्माण का आधार बहुजन समाजों के ज्ञान यानि लोकविद्या के शोषण में देखा. श्रम के साथ ज्ञान के शोषण की पहचान की गई और मुकाबले का पहला चरण बौद्धिक सत्याग्रह में देखा गया. लोकविद्या की प्रतिष्ठा में ही न्यायपूर्ण परिवर्तन की चाभी है. लोकविद्या वार्ता, ज्ञान पंचायत, लोकविद्या पंचायत जैसे कार्यक्रमों ने और लोकविद्या साहित्य ने बौद्धिक सत्याग्रह के लिए ज़मीन तैयार की.
औद्योगिक युग में लोकविद्या को ज्ञान का दर्जा कभी नहीं मिला और बहुजन समाज के मुख्य धारा से बहिष्कृत किये जाने का एक बड़ा आधार इसमें रहा. सूचना-संपर्क-युग में लोकविद्या को ज्ञान क्षेत्र में प्रवेश तो मिला लेकिन उसे बराबरी का मान नहीं दिया गया. लोकविद्या को बराबरी के ज्ञान का दर्जा मिले इसका दावा पेश किये बिना लोकविद्या-समाज गैर-बराबरी, गरीबी और गुलामी के बंधनों से मुक्त नहीं होगा. लोकविद्या का दावा पेश करने के स्थान के रूप में समाज में ज्ञान पंचायत लगाने के कार्यक्रमों ने आकार लिया इनमें किसान ज्ञान पंचायत, कारीगर ज्ञान पंचायत, बिजली ज्ञान पंचायत, किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत, नारी ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत, स्वराज ज्ञान पंचायत आदि प्रमुख रहीं. वाराणसी के आलावा ये पंचायतें चंदौली, नागपुर, औरंगाबाद, मुंबई, दरभंगा, गया, इंदौर, सिंगरौली, हैदराबाद, बंगलुरु आदि अनेक शहरों में की गईं. ज्ञान पंचायतों का सिलसिला लम्बा चला. इसी क्रम में सिंगरौली में लोकविद्या आश्रम, चिराला से लोकविद्या सदस्सु, इंदौर में लोकविद्या समन्वय समूह तथा बंगलुरु में लोकविद्या वेदिके का निर्माण हुआ. हैदराबाद से लोकविद्या प्रपंचम और वाराणसी से कारीगर नजरिया का प्रकाशन शुरू हुआ. ये सब विचार और कार्यक्रम 2011 में लोकविद्या जन आन्दोलन के नाम से शुरू किये गए ज्ञान आन्दोलन के हिस्से बन गए.
हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में यह दौर जनता के बीच बड़ी हलचल का था. शासकों के द्वारा ज्ञान-समाज बनाने के आक्रामक आग्रह के विरोध में विश्व सामाजिक मंच ने नारा दिया ‘एक दूसरी दुनिया संभव है’ और इस मंच ने दुनिया के कई देशों में बड़े-बड़े सम्मलेन किये जिसमें विद्या आश्रम ने Dialogues on Knowledge in Society की चार पुस्तिकाओं का प्रकाशन कर भागीदारी की. यूरोप के विश्वविद्यालयों के छात्रों ने बड़े-बड़े आन्दोलन कर शिक्षा के निजीकरण का विरोध किया. इन आन्दोलनों ने ज्ञान के सवाल को नए ढंग से सामने रखा. एडू-फैक्टरी नाम के वैश्विक समूह में विद्या आश्रम से लोकविद्या का पक्ष रखा गया. इसी दौरान इक्वाडोर, बोलीविया जैसे देशों ने देसी जनता के ज्ञान के आधार पर ‘धरती माँ‘ और ‘अच्छा जीवन’ जैसे विचार को देश और समाज के संगठन का आधार बनाये जाने के आग्रह को विश्व मंच पर रखा. इन गतिविधियों को ज्ञान-आन्दोलन के रूप में देखा जाना चाहिए. विद्या आश्रम ने लोकज्ञान आन्दोलनों के वैश्विक भाईचारा की आवश्यकता को रेखांकित किया और इस आशय की एक पुस्तिका (Global Fraternity of People’s Knowledge Movements) विश्व सामाजिक मंच के 2015 में हुए तुनीसिया के महासम्मेलन के लिए तैयार किया. लोकविद्या जन आन्दोलन ने इन सभी घटनाओं से शक्ति हासिल की और ‘लोकविद्या के बल पर जीवनयापन करना यह मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है‘ इस बात को केन्द्र बनाकर लोकविद्या-समाज को अपने ज्ञान का दावा पेश करने का आवाहन किया. अलग-अलग शहरों में हुए लोकविद्या जन आन्दोलन के अधिवेशनों और सम्मेलनों ने लोकविद्या-समाज (बहुजन-समाज) के ज्ञान का दावा सामने लाया. इस मुद्दे को आम लोगों से संवाद के लिए लोकविद्या सत्संग चलाये गए. दर्शन अखाड़ा कार्यक्रम के द्वारा संत परम्पराओं में लोकशक्ति और समाज-संगठन के ज्ञान और दर्शन के सूत्र पहचानने के प्रयास हुए. ज्ञान-दर्शन संवाद चलाया गया. जिसके मार्फ़त ज्ञान की इजारेदारी को समाज विरोधी करार दिया तथा यह स्थापना की कि किसी भी काल में समाज में विविध ज्ञान धारायें और दर्शन होते हैं और इनके बीच बराबरी ही समाज में बराबरी और भाईचारा बना सकती है.
समाज में लोकविद्या का आधार वितरित सत्ता में होता है और आज समाज के संगठन का आधार केंद्रीकृत व्यवस्थाओं में है. ऐसे में लोकविद्या की प्रतिष्ठा के लिए समाज-संगठन की वितरित व्यवस्थाओं की परम्पराओं और ज्ञान पर ध्यान देना होगा इस विचार से स्वराज ज्ञान पंचायतों को दिशा मिली. लोकनीति-संवाद के मार्फ़त समाज, लोक, लोकनीति, स्थानीयता, वितरित सत्ता, न्याय, भाईचारा आदि पर संवाद को आकार मिला. इस संवाद और विमर्श ने वाराणसी ज्ञान पंचायत और सुर साधना को आकार दिया.
हाल ही में कोरोना काल, रूस-यूक्रेन युद्ध और आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स ने फिर एक बार विश्व के पुनर्संगठन के नए दौर की शुरुआत की है. सभ्यता और नस्ल इस पुनर्संगठन के महत्वपूर्ण मुद्दे बन रहे हैं. कृत्रिम ज्ञान इस पुनर्संगठन का एक शक्तिशाली सहयोगी बनता देखा गया है. ऐसे में परिवर्तन विमर्श में बहुजन समाज के ज्ञान यानी लोकविद्या के दावों को स्थापित करना अनिवार्य हो गया है. सामान्य जीवन और लोकविद्या की परम्पराओं का वाहक लोकविद्या–समाज सत्य के पथ को प्रकाशित करेगा और न्यायपूर्ण परिवर्तन का आगाज़ होगा.
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धारणा
आज समाजात मूलभूत बदल घडवून आणण्यासाठी ज्ञानाच्या जगात मौलिक हस्तक्षेप आवश्यक आहे असे आम्ही मानतो.
इंटरनेट चे आगमन आणि याबरोबर ज्ञान-क्षेत्रात आलेल्या धरणीकंपानंतर आमचा हा समाज अधिक दृढ झाला आहे. ज्ञानाची मायावी जाळी (वर्चुअल नेटवर्क्स) पसरली आहेत, सायंस च्या एकछत्र वर्चस्वाला लगाम लागली आहे. याबरोबरच लोकविद्येचे अस्तित्व ओळखले जाऊ लागले आहे.
या सोबत संचार-युगात उपलब्ध झालेल्या नव्या अवजारांचा वापर करून नवीन रूपाने संघटित झालेले कॉर्पोरेट जग आणि जागतिकीकरण यांच्या जोरावर गेल्या तीन दशकांत शोषणाचे नवीन मार्ग तयार झाले आहेत. शेतकरी, कारागीर, आदिवासी, लहान व्यापारी व दुकानदार आणि महिला समाज, म्हणजेच सर्व लोकविद्याधार या शोषणाचे प्रमुख शिकार झाले आहेत.
नवीन शोषण-व्यवस्थांना आकार देण्याचे व वापरात उतरवायचे कार्य डाव्या व उजव्या दोनही धरतीच्या राज्य-व्यवस्थांच्या देख-रेखीत झाले. गेल्या एक दशकापासून यात सिविलाइझेशन स्टेट या नावाने वाढीस लागलेल्या राज्य व्यवस्थेची भर पडली आहे. विकास आणि आधुनिक जगाची निर्मिती यांसाठी लोकविद्याधार समाजाचे शोषण करणे अपरिहार्य आहे या मुद्द्यावर या सर्वच राज्य-व्यवस्थांच्या पुरस्कर्त्यांत कमालीचे एकमत आहे.
विभिन्न ज्ञान-प्रवाहांना सारखाच सन्मान आणि सारखेच स्थान मिळाल्याशिवाय ज्ञान-युगात समतेच्या आदर्शावर समाज-बांधणी अशक्य आहे.
मूलभूत समाज-केंद्रित बदलांसाठी जन-आंदोलनांवर आस्था असलेले व डिजिटल-दरी च्या पलिकडलेल्या किनाऱ्यावर उभया ज्ञान-आंदोलनाची गरज आहे.
दृष्टिकोन
लोकविद्या आणि सामान्य जीवन
लोकविद्या ते ज्ञान आहे ज्याला कुठलीही अट नाही, आणि सामान्य जीवन ते जीवन आहे ज्याची कुठलीही अट नाही.
लोकांकडे असलेले, त्यांचे अनुभव, गरजा, नैतिक संदर्भ, सौंदर्य-बोधाचे संदर्भ इत्यादीशी सुसंगती जोपासत बदलत जाणारे ज्ञान म्हणजे लोकविद्या. लोकांत रूढ विचार पद्धती, संघटन पद्धती, अमूर्तीकरणा च्या पद्धती या सर्वच या ज्ञानात एकरूप झालेल्या असतात. विविध विषयांबद्दल ची माहिती, लोकांचे कामे करायचे प्रकार, तांत्रिकी, कौशल्य अशा अनेक गोष्टी मिळून या ज्ञानाची ठोस रूपे घडवली जातात. लोकाविद्येत स्थिर आणि निर्जीव असे काहीच नाही. सामान्य जीवना सोबतच लोकविद्या फळाला येते, आणि कधीच मरत नाही.
सामान्य जीवनाला कुठल्याही अटी नाहीत. ते कुठल्याही विज्ञानावर, अगर तंत्रज्ञानावर आश्रित नाही. कुठल्याही धर्मावर, किंवा संघटन प्रकारावर, किंवा ज्ञान प्रसाराच्या कुठल्याही पद्धतीवर ही ते विसंबून नाही. सामान्य जीवनाच्या स्वतः च्या अशा मान्यता नसतात. ते म्हणजे सत्याला वाहिलेले, किंवा कठोर, किंवा नैतिक असे जीवन नाही. त्यात खोटे पण असते, अनैतिकता ही, आणि उधळपट्टीही. परंतू, सामान्य जीवनात सत्य, नैतिकता, न्याय, विवेक या सर्व गोष्टींचे निकष मात्र असतात. शिवाय हे निकष पाळावे असा आग्रह देखील असतो.
लोकविद्या म्हणजे लोकांची ज्ञानाधिष्ठित ताकद होय. कधीही संपुष्टात न येणाऱ्या, आणि बाह्य हस्तकांकरवी दमन, विकृतीकरण अगर दुर्लक्ष सोसून देखील निर्वाह, नवीनीकरण आणि प्रगती चे मार्ग चोखाळणाऱ्या अशा परंपरा लोकविद्येत सामावलेल्या असतात. पण विपर्यास असा की या परंपरांचे वाहकच जर शोषण, उपनिवेशवाद किंवा विस्तारवाद स्वीकारते झाले, तर मग मात्र त्या संपुष्टात येतात. हा एक प्रकारचा समाज-ज्ञानशास्त्रीय नियमच म्हणायचा. म्हणून लोकविद्या हा लोकांच्या ताकदीचा कधीही न आटणारा स्रोत आहे. लोकाविद्येचे प्रमुख मूल्य सामान्य जीवन आहे – कठोर जीवन नव्हे, साधे जीवन नव्हे तर फक्त सामान्य जीवन. ज्ञानक्षेत्रात, तसेच भौतिक जगात मुक्ती चे आह्वान पेलणारे लढे उभारायला लागणारा सर्व विचार मांडायला लोकविद्या व सामान्य जीवन या दोन संकल्पना पुरेशा आहेत.
सिद्धांत आणि व्यवहार दोन्ही बाबतीत ज्ञानाला केंद्रस्थानी ठेवूनच नवीन शासक वर्ग उभे झालेत, संघटित झालेत. या प्रक्रियेत सैद्धांतिक, व्यावहारिक – आणि कमाई च्या सुद्धा – क्षेत्रांत सर्वात जास्त महत्व प्राप्त झालेला विषय म्हणजे ज्ञान-प्रबंधन. डिजिटल दरीचे रूपांतर मूलभूत दरीत करण्याला हा विषय कारणीभूत ठरला. या परिस्थितीत समाजात जगणाऱ्या लोकविद्ये कडून शासक वर्ग अशी अपेक्षा बाळगून आहेत की तिने सतत सायंस अगर धर्म यांचे पाय धरावे.
ज्ञानाला शेवटी कुठल्याही मर्यादा घालणे अशक्य आहे, अशी आमची मान्यता आहे. परिणामी या किंवा त्या प्रकारचे ज्ञान मुक्ती-संघर्षात मदत करू शकत नाही, असे आम्ही मानत नाही. कुठली ही एखादी संकल्पना, अगर माहिती, अगर अनुमान-पद्धती मर्यादित असू शकेल. याला त्यांची ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, किंवा क्षेत्रीय पार्श्वभूमी, किंवा त्यांचा आजवर झालेला विशिष्ट वापर, किंवा विश्व-निर्मिती बद्दल च्या कुठल्यातरी विशिष्ट सिद्धांतावर त्यांचे अवलम्बित्व अशी अनेक कारणे असू शकतात. परंतू, या कुठल्याही कारणांनी खुद्द ज्ञानावर मात्र मर्यादा येत नाहीत. यास्तव आमचा प्रस्ताव ज्ञानाच्या सर्व क्षेत्रांत, सर्व आयामांत व प्रवाहांत परस्पर संवाद घडावा असा आहे. विविध ज्ञान-प्रवाहांत अशा संवादासाठी लोकविद्या आणि सामान्य जीवन एक मानक पुरवतात. लोकविद्या आणि सामान्य जीवन लोकांच्या ज्ञानाची आणि जीवनाची फक्त एक प्राथमिक अभिव्यक्तीच नसून लोकांच्या ताकदीचा स्रोत ही आहेत. परिणामी डिजिटल आणि सामाजिक विभाजनातून मुक्ती चे मार्ग प्रशस्त करणाऱ्या अशा राजकीय घडवणुकी कडेच या मानकाचा कल असेल.
माहिती-युगात सामान्य लोकांचा दृष्टिकोन म्हणजेच लोकविद्या दृष्टिकोन. अनेक गौरवशाली, समर्थ आणि अस्सल ज्ञान-परंपरांचे अस्तित्व स्वीकारणे म्हणजे असे मानणे नव्हे की त्यांपैकी काही, किंवा सर्व मिळून लोकांचे प्रश्न सोडवू शकतात, किंवा समाजाच्या नवनिर्मिती साठी व्यापक पाया पुरवू शकतात. लोकविद्या आणि सामान्य जीवन एकमेकाला बळ देतात, एकमेकात प्राण फुंकतात, एकमेकाचे रक्षक असतात व एकमेकाला गती देतात, हे नक्की. परंतु, म्हणून ते स्वयं-पूर्ण आहेत असा अर्थ निघत नाही, किंवा मिळून ज्या विचारांची वीण ते घालतात त्यांत नवीन जग उभारणीचा मंत्र आपोआपच विणलेला असेल असा ही नाही. आग्रह एवढाच की लोकविद्या व सामान्य जीवन यांना प्रस्थान रेषा, कायम चे संदर्भ आणि अंतिम निकष असे तिहेरी महत्व आहे. लोकविद्येचा दृष्टिकोन म्हणजे सत्य व न्यायाचा दृष्टिकोन होय. जागतिकीकरण व ज्ञान-प्रबंधन यांच्या दिमतीवर एकसंध होऊ शकणाऱ्या कुठल्यातरी काल्पनिक भावी जगाची जी मिथ्या आपल्या सर्वांच्या गळी उतरवण्यात येत आहे. त्यांपासून निवारणाचा दृष्टिकोन होय. या दृष्टिकोनातून सतत नवीन बाजू हाताळत विचार करण्याची प्रेरणा मिळते, आणि त्यातून संघर्ष टिकवून ठेवायचे बळ.
वाटचाल
देशातील बहुजन समाजाच्या आशा-आकांक्षा आणि आंदोलने, व विशेष करून नवीन शेतकरी आंदोलन यांपासून प्रेरणा घेत लोकविद्या विचार जन्माला आला. 1980 च्या दशकापासून ‘ज्ञान’ मध्यवर्ती मानून जीवनाच्या सामाजिक, राजकीय बाजूंवर वैचारिक मंथन सुरू केले. लोकविद्या प्रतिष्ठा प्रयास या नावाने मजदूर किसान नीति समूहाच्या वतीने वाराणसीला 1995 च्या उन्हाळ्यात एक बैठक झाली. मजदूर किसान नीति (कानपूर), पी.पी.एस.टी. फाउंडेशन (चेन्नई), आणि नारी हस्तकला उद्योग समिति (वाराणसी) या तीन संघटनांचे विचार व कार्य या पायावर लोकविद्या विचार पुढे वाढला. पारंपारिक भारतीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी या विषयावर 1990 च्या दशकात मुंबई (1993), चेन्नई (1995) आणि वाराणसी (1998) अशी तीन महाअधिवेशने भरली. वाराणसी चे महाअधिवेशन लोकविद्या महाअधिवेशन या नावाने भरले. लोकविद्या विचार देशाच्या पातळीवर पुढे यायला याने मदत झाली. वाराणसी महाअधिवेशना पासून लोकविद्या संवाद नावाच्या पत्रिकेचे प्रकाशन सुरु केले. लोकाविद्येची विविध अंगे, तिची ताकद, गतिशीलता, प्रासंगिकता आणि स्वरूप हे विषय पत्रिकेत चर्चेला घेतले. जानेवारी 2004 मध्ये मुंबईला भरलेल्या विश्व सामाजिक मंच (WSF) या संघटनेच्या आंतरराष्ट्रीय महाअधिवेशनात इंडिजेन रीसर्च फाउंडेशन (पुणे) आणि लोकविद्या संवाद (वाराणसी) यांच्या संयुक्त विद्यमाने समाजात ज्ञानावर संवाद (Dialogue on Knowledge in Society) या नावाने एका कार्यशाळेचे आयोजन करून लोकविद्या विचार आंतरराष्ट्रीय पटलावर मांडण्यात आला. ऑगस्ट, २००४ मध्ये सारनाथ, वाराणसीला विद्या आश्रम स्थापन केला.
हा काळ संक्रमणाचा होता. औद्योगिक युग पाठीमागे सोडून जग माहिती-संपर्क युगात प्रवेश करत होते. लोकहित साधणाऱ्या ज्ञानाचे निकष आणि लोकविद्येची ज्ञान-मीमांसा दोहोंच्या उद्घाटनासाठी हा ऐतिहासिक प्रसंग होता. यासाठी स्थळाचे औचित्य सारनाथ ने साध्य झाले कारण सार्नाठ्ची ओळख मुळात परिवर्तनवादी विचार, दर्शन व ज्ञान यासाठीच आहे.
जग वेगाने बदलत होते. औद्योगिक क्रांती च्या वेळेला वैचारिक आणि व्यावहारिक दृष्टीने केंद्र स्थानी ‘उत्पादन’ असे. ज्ञान-दृष्टीने औद्योगिक उत्पादनाचा पाया सायंस होता. ज्ञान-क्षेत्रावर सायंस चा एकाधिकार होता. त्या युगात राजकारण व सार्वत्रिक क्षेत्रातील चर्चा उत्पादनाची साधने, मालकी हक्क, औद्योगिक प्रक्रियांचे मशीनीकरण, नियंत्रण, व्यवस्थापन, केंद्रीकृत / विकेंद्रित उत्पादन अशा मुद्द्यांवर घडत. एकविसाव्या शतकासोबत माहिती-संचार युगाला सुरवात झाली. सार्वत्रिक चर्चांचे मुद्दे बदलले. माहिती उद्योग, खाजगीकरण, मोठ्या बाजारपेठा, जागतिकीकरण, शहरांचे पुनर्वसन, जैविक शेती, इंटरनेट अशा गोष्टी मिळून नवीन मायावी जग उदयाला आले. ज्ञान-क्षेत्रा वरील सायंस ची पकड शिथिल झाली. संशोधन आणि प्रयोग यांनी ‘ऑटोमेशन’ व ‘ज्ञान-व्यवस्थापन’ यांची वाट धरली. ज्ञानाची व्याख्या बदलली. सार्वत्रिक चर्चांनी उत्पादनाची कास सोडून ‘ज्ञान’ या संकल्पनेची कास धरली. दुसरीकडे शेतकरी, कारागीर, डोंगर- जंगले-नद्यांसोबत जुडलेल्या समाजांवर आणि लहान भांडवलावर व्यवसाय करणाऱ्या कुटुंबावर विस्थापन, बेरोजगारी चा डोंगर कोसळला. या सर्व नवीन वातावरणात न्याय व सामाजिक बदल हे मुद्दे व यांवरील वेगवेगळ्या विचारांच्या मर्यादा हे विषय चर्चेत आले आणि बऱ्याच सामाजिक-राजकीय कार्यकर्त्यांना मूलगामी राजकीय विचारांचे ज्ञानाधार तपासणे गरजेचे वाटू लागले. या प्रक्रियेत योगदान म्हणून विद्या आश्रमच्या वतीने ज्ञानाचे राजकारण या नावाने एक संवाद सुरु करण्यात आला.
या संवादाच्या माध्यमातून लोकविद्या संवाद, ज्ञान-मुक्ती आवाहन, लोकविद्या भाईचारा विद्यालय, शिक्षण वार्ता, चिंतन धाबा, किसान पीठ, युवा ज्ञान शिबिर या सारखे कार्यक्रम साकारण्यात आले. लोकविद्येचे मोठे भांडार, तिची ताकद, आणि वर्तमान व्यवस्थेत तिच्या बाबतीत राबवण्यात येत असलेले पक्षपाती धोरण या गोष्टी समाजा समोर मांडणे या कार्यक्रमांतून शक्य झाले. तथाकथित ज्ञान-समाज उभारण्याच्या नावाने देश आणि सर्व जगातले शासक ज्ञान व्यवस्थापन, कॉग्निटिव्ह सायंस, इंटरनेट, जैव-तंत्रज्ञान या क्षेत्रांत भारी गुंतवणूक करत असल्याने त्यांत भरभराट होत होती. दुसरीकडे जागोजागी घडत असलेल्या विस्थापानाने या विरोधात लोकांची आंदोलने होत होती. देशातले आणि जग भारातले शेतकरी शेतकी धोरणांविरुद्ध उभे ठाकले होते. ज्ञान-राजकारणाच्या दृष्टीने या घटनांमागे कारण तथाकथित ज्ञान-समाज उभारण्यासाठी बहुजन समाजाच्या ज्ञानाचे, म्हणजेच लोकविद्येचे होत असलेले शोषण हे होते. याने बहुजन समाजाचे केवळ श्रम नव्हे तर ज्ञानाचे हि शोषण घडवले जात असल्याची ओळख तयार झाली. याला आव्हान म्हणून बौद्धिक सत्याग्रह हा कार्यक्रम पुढे आला. लोकविद्या वार्ता, ज्ञान पंचायत, लोकविद्या पंचायत हे कार्यक्रम आणि लोकविद्या साहित्य प्रकाशन याने बौद्धिक सत्याग्रहासाठी पार्श्वभूमी तयार झाली.
औद्योगिक युगाने लोकाविद्येला ज्ञानाचा दर्जा नाकारला. समाजाच्या मुख्य प्रवाहातून बहुजन समाज बहिष्कृत ठरण्यामागे या नकाराचा मोठा वाटा होता. पुढे माहिती-संपर्क युगात ज्ञान-क्षेत्रात लोकविद्येचे अस्तित्व नाकारणे शक्य नसले तरी लोकविद्येला समान ज्ञानाचा मान मिळाला नाही. तसा तो मिळत नाही तोवर बहुजन समाज (लोकविद्या समाज) विषमता, दारिद्र्य आणि गुलामगिरीच्या बंधनांतून मुक्त होणार नाही. लोकविद्येचा ज्ञान म्हणून समतेचा दावा समाजात मांडायचे स्थान म्हणून ज्ञान पंचायती भरवायचा कार्यक्रम राबवला गेला. यात शेतकरी ज्ञान पंचायत, कारागीर ज्ञान पंचायत, वीज ज्ञान पंचायत, शेतकरी-कारागीर ज्ञान पंचायत, स्त्री ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत, स्वराज ज्ञान पंचायत अशा विविध स्वरूपाच्या ज्ञान पंचायती आयोजित केल्या गेल्या. या पंचायती वाराणसी, चंदौली, नागपूर, औरंगाबाद, मुंबई, दरभंगा, गया, इंदोर, सिंगरौली, हैदराबाद, बंगळुरू व इतर अनेक ठिकाणी भरल्या. हैदराबाद वरून लोकविद्या प्रपंचम आणि वाराणसीहून कारीगर नजरिया या पत्रिकांचे प्रकाशन सुरु झाले. प्रस्तुत सर्व विचार आणि कार्ये 2011 साली आरम्भलेल्या लोकविद्या जन आंदोलनात एकत्र झाली.
हा सर्व काळ आपल्याच नव्हे तर जगातील अनेक देशांत मोठ्या लोकांत वाढत्या अस्वस्थतेचा, असंतोषाचा व आंदोलनांचा होता. शासकांकरवी ‘ज्ञान-समाज’ उभारण्यासाठी होत असलेल्या आक्रामक कारवायांच्या विरोधात विश्व सामाजिक मंचाने अनेक देशांत मोठी संमेलने भरवून ‘एक वेगळे जग शक्य आहे’ असा नारा बुलंद केला. या संमेलनांत विद्या आश्रमने समाजात ज्ञानावर संवाद (Dialogues on Knowledge in Society) या नावाने कार्यशाळा आयोजित केल्या. कार्यशाळांकरीता चार पुस्तिकांचे प्रकाशन केले गेले. या दरम्यान यूरोप मधील विद्यापीठांत विद्यार्थी मोठ्या संख्येने आंदोलने करत होते. या आंदोलनांतून ज्ञानाचा प्रश्न एका वेगळ्या रूपाने समोर आला. एडू-फैक्टरी (Edu-Factory) या जागतिक समूहा समक्ष विद्या आश्रम कडून लोकविद्या विचार मांडण्यात आला. बोलिविया, इक्वाडोर सारख्या देशांत या काळात स्वदेशी ज्ञानाच्या आधारावर ‘धरणी माता’ आणि ‘चांगले जीवन’ हे विचार समोर येत होते. या देशांकडून जागतिक मंचावर देश व समाज उभारणी साठी हे विचार आधारभूत मानले जावेत असा आग्रह धरला जात होता. या प्रक्रियांकडे एकंदर ज्ञान आंदोलनाचा भाग म्हणूनच बघायला हवे. विद्या आश्रमच्या वतीने वेगवेगळ्या लोकज्ञान आंदोलनांत परस्पर बंधुभावाची गरज असल्याची भूमिका मांडली. यासाठी या आशयाची एक पुस्तिका (Global Fraternity of Knowledge Movements) प्रकाशित केली आणि हा विचार 2015 साली ट्युनिशिया येथील विश्व सामाजिक मंचाच्या महासंमेलनात पुढे नेला. या सर्व प्रक्रियांतून ताकद घेऊन पुढे लोकविद्या जन आंदोलनाने ‘लोकविद्येच्या बळावर उपजीविका हा माणसाचा जन्मसिद्ध हक्क आहे’ अशी मांडणी झाली. या मांडणी सोबत बहुजन समाजाने लोकविद्येचा दावा पुढे करायचे आव्हान लोकविद्या जन आंदोलनामार्फत करण्यात आले. 11 जानेवारी 2014 मध्ये भरलेल्या मुलताई मेळाव्याचे औचित्य साधून लोकविद्येच्या दाव्याचा, जन-संघर्षांसाठी लोकविद्या (बहुजन) समाजाच्या एकीचा आणि ज्ञान आंदोलनाचा हा सर्व विचार नेमक्या अपेक्षा आणि मागण्यांसह एका पुस्तिकेत (जन-संघर्ष और लोकविद्याधर समाज की एकता) मांडण्यात आला. लोकविद्या सत्संग या कार्यक्रमाच्या माध्यमाने सामान्य लोकांत यावर चर्चा पुढे नेता आली. लोकशक्ती आणि समाज संघटन या संबंधीचे ज्ञान व चिंतन संत परंपरेत शोधून पुढे आणायचे प्रयत्न दर्शन अखाडा कार्यक्रमातून सुरू झाले. ज्ञाना वर एकाधिकार समाज-विरोधी असल्याची मांडणी ज्ञान-दर्शन संवाद कार्यक्रमांतून केली गेली. कुठल्याही समाजात कुठल्याही काळात अनेक व विविध ज्ञान-प्रवाह असतात, आणि या प्रवाहांत परस्पर समता असल्यानेच समाजात समता व बंधुभाव नांदू शकतो, अशी मांडणी या ज्ञान संवादाच्या माध्यमाने पुढे आली.
वर्तमान सामाजिक बांधणी केंद्रीकृत सत्तेवर आधारलेली आहे. पण लोकविद्येचा आधार मात्र सर्व समाजात वितरीत अशा सत्तेत आहे. त्यामुळे लोकविद्या प्रतिष्ठित व्हायची असेल तर सामाजिक बांधणीच्या अशा परंपरा महत्वाच्या ठरतात ज्यांत सत्ता समाजात काही ठिकाणी एकवटलेली नसून समाजात सर्वत्र पसरलेली आहे. स्वराज ज्ञान पंचायती कल्पना व कार्यक्रम या विचाराने साकारले. समाज, लोक, लोकनीती, स्थानिकाता, वितरीत सत्ता, न्याय व बंधुभाव या विषयांवरील चर्चेला लोकनीती-संवाद या कार्यक्रमातून गती मिळाली. यातून पुढे वाराणसी ज्ञान पंचायत कार्यक्रम आणि सुर साधना हे पत्रक सुरु करण्यात आले.
एवढ्यात करोना महामारी, रशिया-युक्रेन युद्ध आणि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजन्स) क्षेत्रातील शोध या घटनांतून जागतिक पातळीवर पुन्हा एकदा संघटनात्मक बदलांची चाहूल लागते आहे. या प्रक्रियेत संस्कृती (सिविलाइझेशन) आणि वर्ण (रेस) हे मुद्दे महत्वाचे होत चालले आहेत. कृत्रिम ज्ञान याला सहयोगी तर ठरतय असे म्हणायला जागा आहे. अशा परिस्थितीत परिवर्तन विमर्श या धरतीच्या कार्यक्रमांतून बहुजन समाजाचे ज्ञान किंवा लोकविद्ये चा दावा ताकदीने मांडणे गरजेचे आहे. सामान्य जीवन आणि लोकविद्येच्या परंपरांतून लोकविद्या समाज सत्य, न्याय आणि समते साठी समाज-परिवर्तनाचा मार्ग दाखवेल.