गिरीश सहस्रबुद्धे (25 फरवरी 2020)
चर्चा: देश की परिस्थिति और भविष्य (28 फरवरी – 01 मार्च 2020)
लोकविद्या जन-आन्दोलन लोकविद्याधर समाज और लोकविद्या के व्यापक अस्तित्व की पहचान के आधार पर खडा आन्दोलन है| एक तरह से यह हमारे देश के लोगों की असली पहचान का ही आन्दोलन है| जगह-जगह ज्ञान पंचायतों का आयोजन लोजआ के कार्यक्रम का रूप रहा है| ज्ञान-जगत में विभिन्न ज्ञान परम्पराओं के बीच ऊँच-नीच की व्यवस्था और भावना को हमने नकारा है| लोकविद्या के लिए समाज में बराबरी की प्रतिष्ठा की स्थापना हो यह हमारा उद्देश्य रहा है| इसी तर्क के बल पर लोकविद्याधर समाज के लोगों के लिए सरकारी वेतनों के बराबरी के मुआवज़े की व्यवस्था की माँग हमने लगातार की है| हमारी दृढ़ मान्यता यह है कि यह माँग सारे समाज में हमें उस चेतना की दिशा में ले जाती है जो लोकविद्या समाज की आतंरिक ताकत को मुक्त करने की क्षमता रखती है| साथ ही यह भी कि इस माँग के निराकरण से वे आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक स्थितियां पैदा होंगी जो उस क्षमता के परिणाम सबके समक्ष लाने के लिए ज़रूरी होंगी| यह इसलिये कि इससे लोकविद्याधर समाज के लोगों के हाथ में उनके अपने ज्ञान की टूट को रोकने, और उन आर्थिक-सामाजिक साधनों को संगठित करने की ताकत बनेगी जिनसे ये लोग अपना जीवन व्यवस्थित करते हैं| लोकविद्या पर टिकी क्रियाओं को बराबरी के मुआवज़े से जिस प्रकार के वितरित वित्तीय साधनों का निर्माण होगा वे न सिर्फ सारे समाज में भाईचारे और आपसी सहकार की सोच और भावना को बढ़ावा देंगे, बल्कि सभी सामाजिक क्रियाओं में लोकविद्याधर समाज की पहल को जन्म देंगे| औपनिवेशिक भूतकाल और आज़ादी के पश्चात भी साइंस और पश्चिम से प्रेरित व्यवस्था में झुलस रहे हमारे देश के पुनर्निर्माण के परिप्रेक्ष्य में इस पहल का महत्व स्वयंसिद्ध है|
नागरिकत्व-संशोधन कानून के पारित होने के बाद देश में फैले आन्दोलन वर्तमान राजनीति के सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभरे हैं| इन आन्दोलनों नें जहाँ एक तरफ विरोधी दलों को दरकिनार किया है, वहीं शाहीन बाग़ जैसे प्रदर्शनों ने सत्ताधारियों के भडकाऊ बयानों और कारनामों का बड़ी धृष्टता से सामना किया है| यह भी महत्वपूर्ण है कि कई स्थानों पर शाहीन बाग़ ही आन्दोलनों के प्रकार का प्रेरणा स्रोत रहा है, बावजूद इसके कि वहां मुसलमान महिलायें आन्दोलन का प्रमुख मजबूत खम्भा बनी बैठी हैं| चूँकि ये आन्दोलन राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप को नकारता है, इन्हें नेतृत्वहीन भी कहा गया है| ज़ाहिर है कि ये आन्दोलन ऐसी चेतना को जन्म दे रहे हैं जो न तो प्रस्थापित राजनीतिक विचारों में समेटी जा सकती है, और न ही मात्र आर्थिक दिक्कतों में देखी जा सकती है| यही इन आन्दोलनों की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी|
इसमें संदेह नहीं कि गत छह सालों से दलित और मुसलमान समाजों में फैलायी गयी दहशत, नागरिकता-संशोधन कानून (CAA), राष्ट्रीय नागरिक सूची (NRC) और राष्ट्रीय जनगणना सूची (NPR) के माहौल से पैदा हुआ अपने ही देश-जीवन से विस्थापन का डर और सरकारी कागजों का बढ़ता निर्णायक महत्व इन सबका मिला-जुला असर वर्त्तमान प्रदर्शनों-आन्दोलनों की प्रेरणा है| हमारी पहचान का हमारी स्मृति और हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से कोई सम्बन्ध न हो, हम कौन हैं यह किसी कागज़ में सिमट कर रह जाये, इन बातों से लोगों की कतई सहमति नहीं है| सरकार की ओर से यह स्थिति पैदा करने के प्रयासों को अन्यायपूर्ण माना जा रहा है| आर्थिक क्षेत्र में इसी प्रकार के प्रयास पहले हो चुके हैं| नोटबंदी के जरिये तथाकथित अनौपचारिक आर्थिक क्षेत्र को कागजों में बांधने का बहुत बड़ा प्रयास हम सबने देखा है| यह क्षेत्र लोकविद्या समाज के लोगों के लिए उपलब्ध रोजगार का महत्वपूर्ण स्रोत है| इस क्षेत्र में लगने वाली छोटी पूंजी स्थानीय स्तर पर उत्पादकों और व्यवसायों की सुविधानुसार आपसी विश्वास और तय शर्तों पर मुहैय्या कराने वाली व्यवस्थाएं लम्बे समय से काम कर रही हैं| बावजूद इसके कि नोटबंदी इस क्षेत्र पर जानलेवा हमला है, या शायद इसीलिए, यह घातक प्रयोग किया गया, ताकि इस क्षेत्र को औपचारिक कागज़ी व्यवस्थाओं में बांधा जा सके| उस अवसर पर नोटबंदी के पक्ष में ऐसे तर्क सामने किये गए जिनसे तत्काल में इस प्रयास की घातकता पर से आम लोगों का ध्यान हटा, और जो अंत में जाकर काल्पनिक या सरासर झूठे साबित हुए| लोकविद्या विचार की दृष्टिमें नोटबंदी लोकविद्या समाज के लिए उनकी वास्तविक पहचान को नकारते हुए एक नयी मात्र कानूनी, औपचारिक और परावलम्बी आर्थिक पहचान कायम करने का प्रयास है| लेकिन, चूँकि इसका सीधा सम्बन्ध पहलेसे ही मौजूद आर्थिक परिस्थितियों से था, इसका यह रूप खुलकर सामने नहीं आया| नागरिकता से जुड़े सवालों पर उठी हलचल ने लोगों की पहचान को बलपूर्वक तय करने के प्रयासों का पर्दाफाश किया है और वास्तविक पहचान के सवाल को खोल दिया है|
लोकविद्या जन आन्दोलन को इस सवाल से जूझना होगा| देशमें फैले आन्दोलनों से उभरी चेतना और आत्मविश्वास को प्रचलित राजनैतिक खेमों से मुक्त करने के प्रयास करने होंगे| दक्षिणपंथी बनाम वामपंथी, या राष्ट्रवाद बनाम नव-उदारमत से उपजी समझ इस चेतना को देख पाने में नाकाबिल है| उदाहरणतः ‘कागज़ नहीं दिखाएँगे’ का पैंतरा दोनों ही पक्षों के विचारकों लिए आधुनिक समाज के निर्माण में एक रोड़ा ही है – जिसको हटाने में कितनी कठोरता का इस्तेमाल हो मात्र इस बारे में भले ही दो पक्षों में मतभेद हों| लोकविद्या विचार समाज की एक ताकतवर पहचान कायम करता है – एक ऎसी पहचान जो रोजमर्रा के सामान्य जीवन से सीधे तौर से सम्बंधित है और किसी भी राजनैतिक विचार से परे है| फैज़ का ऐलान ‘हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जायेंगे’ हमारे विचार में लोकविद्या की सामाजिक प्रतिष्ठा से सिद्ध होगा|
भारतीय समाज की सशक्त पहचान के विचार के अभाव में वर्त्तमान बहस व्यक्ति-केन्द्रित संविधान की स्थिर चौकट में बंधी हुई है| क्या हम गाँवों की प्राथमिकता को लेकर संविधान-सभा में हुई बहस को वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से छेड़ सकते है? क्या इस माध्यम से लोकविद्या समाज की स्वायत्तता और पहल की बात की जा सकती है?
B Krishnarajulu (01 Feb 2020)
The World situation
The major developed countries of the World, such as China and Russia and some smaller ones such as Singapore, are one-Party dictatorships and many of the other so-called democracies of the First World, such as the USA and UK, there are serious attempts to transform them into One-party dictatorships. The developing economies such as Brazil and India are also in the process of becoming One-party dictatorships.
The countries of Latin America and South-east Asia are also verging catastrophically into dictatorships while the oligarchies of the Arab world are wallowing in wealthy despotism.
All these political dispensations have actively and militarily perpetuated a ‘development’ paradigm based on brutal industrialisation, Globalisation and market-based economic imperialism. The political structure that has allowed and encouraged this to happen is One-Party dictatorship. The dramatic rise of China and the sustenence of Russia; both under the dictatorship of the Communist party, as global economic superpowers; underlines the ‘success’ of this strategy. It is therefore not surprising that the other established economic giants such as USA and UK and the aspiring developing countries, such as India and Brazil, are also heading in the same political direction.
Dictatorships allow the ruling dispensation to wrest and excercise control over all resources, production and marketing and use military might to subjugate any dissidence. Such a situation inevitably results in the loss of a number of fundamental human rights for the population, who are then surely driven into a new form of dehumanised slavery.
Every dictatorship needs an ‘ideological’ base for its sustenance. While the Communist ideology (and Party), bolstered by some ethnic nationalism, led the way in Russia and China; the nascent dictatorships of Western Europe and North America have long tried to establish a social base in White Supremacy (recall White Aryan supremacy in Nazi Germany) and the would-be dictatorships of Latin America seem to have embarked on a process of political ethnic cleansing. The oligarchies of the Arab world have increasingly used Sunni Islam as the ideological base of their dictatorships.
The Indian situation
The predominant thinking, in intellectual and Government circles in India, has been influenced by these development models and is now wholly committed to market-based economic imperialism. All political parties have essentially supported this development paradigm and, during the past 50 years or so, the attempt to establish their dictatorships has been underway. The Congress, through the Indira Gandhi regime attempted to usher in dictatorial control over the economy and polity in the 70s, but failed to complete the task. The RSS -BJP, who have been open advocates of rampant capitalism (their anti-socialism/ communism emanates from adherence to the capitalist development paradigm) and have long sought to establish a popular base (as support to their dictatorship) through Hindutva (Vedic Brahmin supremacy) ideology. They have now unabashedly begun to consolidate the dictatorship given the political mandate that has gone in their favour.
There has been growing opposition to alternate development paradigms, based on decentralised production, local market economy and backed by a democratic polity; long suggested by Mahatma Gandhi, Kumarappa, Rammanohar Lohia etc. In fact, the assassination of Mahatma Gandhi was the first ‘violent’ blow heralding this opposition. The RSS – BJP have continuously been attempting to consolidate Hindu opinion to back their efforts to establish a one-party dictatorship and set the country on the path to becoming an important player in global market capitalism.
On the other hand, the very existence of Lokavidya Samaj is dependent on the success of a decentralised, local market economy based in Lokavidya livelihoods and backed by local self-government (democratic Gram Panchayats).
The current debate on CAA, NRC, NPR etc
It should be abundantly clear that the current support for and opposition to the CAA/NRC/NPR are based in support for or opposition to the attempt to set up a one-party dictatorship. In fact, the composition of both camps suggest that they would in fact root for the dominance of the global market economy; with however the support camp arrogating to itself the ‘selection’ of those sections of society who should be included among the beneficiaries of the system while the opposition camp roots for an all-inclusive beneficiary dispensation. Neither camp appears interested in establishing a truly egalitarian society that will help liberate Lokavidya Samaj from the growing clutches of the global market economy.
The Dalits and Tribals have long been struggling for equal inclusion while women have been struggling for gender equality and against gender discrimination in all spheres of human activity. Muslim women, especially the upward mobile younger generation, seem to be aware that, nowhere else in the world but ONLY in an Indian democratic setup, can they hope to achieve some urgent social and ‘religious’ reforms. For them, the freedom to voice such opinion exists only in India and, like the rest of the women in the country, they do not want to lose this hope to religion-based discrimination.
The Lokavidya Samaj perspective
It should be quite clear that the global attempts to establish dictatorships to further the capitalist market system seek to suppress and eliminate all ‘subaltern’ societies that comprise a vast majority of the global population. The nascent dictatorships of Latin America are rapidly moving to capture centre stage in the movement to marginalize and eliminate all ‘traditional’ societies and their cultural and social identities. In India too, the attempt at establishing a dictatorship is aimed at obliterating Lokavidya and the very identity of Lokavidya Samaj and convert the vast population of Lokavidyadhars into ‘controllable’ components/robots of the market economy. (The attempt to enact a law that ties up farm incomes with big-agribusiness industries is a case in point.)
It is therefore imperative that Lokavdiya Samaj intervene in the current agitation against the dictatorship and project it’s views on socio-economic reorganization clearly and strongly.
Vidya Ashram (10 Mar 2020)
वाराणसी में देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य पर 29 फरवरी 2020 को विद्या आश्रम, सारनाथ और 1 मार्च 2020 को दर्शन अखाड़ा, राजघाट में एक राजनैतिक और दार्शनिक वार्ता का आयोजन किया गया. देश भर में पिछले दो-तीन महीनों से CAA/NRC/NPR के विरोध में हो रही गतिविधियों की पृष्ठभूमि में और हम कौन हैं और किधर चले विषय पर शुरू हुई वार्ताओं के सन्दर्भ में समाज के कई तबकों से और देश भर से आये लोगों ने आगे के रास्ते और एक सार्थक परिवर्तन की संभावना पर अपने विचार रखे. लगभग 75 व्यक्तियों की भागीदारी में यह संवाद हुआ. वार्ता में 25 से 70 के आस पास के आयुवर्ग के लोग शामिल रहे.
यह महसूस किया गया कि सरकार के वर्तमान कदम और सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त विरोध दोनों ही पिछले समय से नाता तोड़ते नज़र आते हैं और एक राष्ट्रीय समाज के रूप में हम कौन हैं और किधर जाना चाहते हैं? यह सवाल उठ खड़ा हुआ है. वार्ता में शुरू से यह आग्रह रहा कि इसकी समझ बनाने के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों और समाज वैज्ञानिकों से मार्गदर्शन लेने की जगह यह ज्यादा महत्वपूर्ण होगा कि हम इसे सामान्य लोगों, उनका जीवन और उनके विचारों के राजनीतिक-दार्शनिक सन्दर्भ में अवस्थित करने का प्रयास करें.
सुरेश और सिवरामकृष्णन ने बंगलुरु में चल रहे ‘पवित्र आर्थिकी सत्याग्रह’ की बात के साथ चर्चा शुरू की. यह सत्याग्रह हाथ के काम और उन्हें करने वालों के पक्ष में एक आर्थिक-सामाजिक आन्दोलन है. इस आन्दोलन ने सीएए/एनआरसी के विरोध का समर्थन किया है तथा उसमें एक महत्वपूर्ण पक्ष जोड़ने का प्रयास किया है. देश में चल रहे सीएए/एनआरसी के विरोध के आन्दोलन के सन्दर्भ में कई भागीदारों ने इस बात पर जोर दिया कि वर्तमान सरकार हिंदुत्व की वैचारिकी से प्रभावित होकर एक विनाशकारी रास्ता अपना रही है और इस देश में सभी पंथों और धर्मों के लोगों की आपसी सौहार्द के जीवन की जो परंपरा है उसे ख़त्म करने पर तुली हुई है. कई तबकों के लोग यह सोचते हैं कि सी.ए.ए., एन.आर.सी. और एन.पी.आर. का पैकज उनके अस्तित्व के लिए ही खतरा है. इसलिए इसका विरोध जिन लोगों ने और जितनी मजबूती से खड़ा किया है उसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. यह किसी प्रकार के “वाद” से बंधा हुआ नहीं है और इसने देशप्रेम की नयी परिभाषा दी है. यह मुख्यधारा के वर्तमान पक्षों को पीछे छोड़ आया है. ख़ास कर शाहीन बाग़ की महिलाओं ने यह दिखा दिया है कि जो लोग मुस्लिम समाज की स्त्रियों को सार्वजनिक मंच से कटा हुआ समझते हैं वे कितने ग़लत हैं. इन महिलाओं ने न सिर्फ राजनैतिक पक्षों को बल्कि अपने समाज के लीडरों को भी पीछे छोड़ दिया है. उनकी शक्ति के स्रोत क्या हैं यह समझने की ज़रुरत है. क्या यह एक नई प्रेरणा का स्रोत है?
वक्ताओं ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि यह आंदोलन केवल मुसलमानों का नहीं है. ये नए कानून और सरकार के प्रयास सिर्फ मुसलमान समाज के लिए ही नहीं, बल्कि देश के तमाम किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, स्त्रियों और छोटे धंधे वालों के लिए समस्या पैदा करते हैं. इन लोगों के पास अथाह ज्ञान, विद्या और हुनर तो है, लेकिन कागज़ नहीं हैं. इस लिए “कागज़ नहीं दिखाएंगे” का नारा इस लोकविद्याधारी समाज का नारा है. इस आंदोलन के मार्फ़त समाज सरकार से कह रहा है “हमारे ही देश से हमें बेदखल करने का विचार त्याग दें”. यह बात भी सामने आयी कि सीएए के मुद्दे तक सीमित न रह कर इस आंदोलन को सरकार की अन्य नीतियों जैसे नोटबंदी, जीएसटी आदि की पार्श्वभूमि में देखा जाए.
वार्ता में यह बात भी उभर कर आयी कि हिंदुत्ववादी सोच का मुक़ाबला करने और देश के विविध सम्प्रदायों के बीच भाईचारे के सम्बन्ध बनाने और अधिक मजबूत करने के लिए जिन मूल्यों और व्यवहार के तरीकों की ज़रुरत है, वह हमें सामान्य जीवन में और लोक परम्पराओं तथा लोकस्मृति में मिलते हैं. भारत में ऐसे भाईचारे की परम्परा है जिसे हिन्दुत्ववादी सोच नकारती है. लेकिन अगर हम महाभारत से कुछ सीखते हैं तो वह यह कि जब घर ही में युद्ध होता है तो किसी की जीत नहीं होती, सबकी हार होती है. वक्ताओं ने कहा की आर्थिक विषमताओं, बेरोज़गारी, और कॉर्पोरेट सेक्टर के फायदे के लिए बनी आर्थिक नीतियों को भी चुनौती देने की ज़रुरत है. ये ऐसे हालात पैदा करती हैं जिनमें युवा नफरत और हिंसा की ओर गुमराह किये जाते हैं. यह एक लम्बी लड़ाई है.
यह भी कहा गया कि केवल संवैधानिक मूल्यों को पकड़कर देश बहुत दूर तक नहीं जा सकता. जिस उदारतावाद और प्रगतिशीलता से हम परिचित हैं वह अब और आगे देश को किसी नए रास्ते पर ले जा सकेगा इसकी संभावना नहीं दिखाई देती. उदार और सकारात्मक मूल्यों के स्रोत के रूप में हमें सामान्य लोगों के बीच प्रचलित परम्पराओं की ओर देखने का मन बनाना चाहिए, खासकर संत-परंपरा की ओर. केवल इतना ही नहीं बल्कि वर्तमान आन्दोलन में कलाकारों की भूमिका यह कहती नज़र आती है कि देश और दुनिया को कला दर्शन की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. इस सन्दर्भ में श्रीमती मंजू सुन्दरम जी का एक विशेष व्याख्यान रखा गया था. श्रीमती मंजू सुन्दरम कला और भाषा के क्षेत्रों में विशेष दखल रखने वाली एक दार्शनिक विदुषी हैं. वे उपस्थित लोगों को एक ऐसी कला की दुनिया में ले गईं जहाँ से बातों को समझने और देखने के लिए प्रचलित राजनैतिक और आर्थिक श्रेणियों से अलग वैचारिक श्रेणियों के बीच खुद को ले जाना पड़ता है. ‘दर्शन’, ‘भाव’ और ‘मर्यादा’ की बातें करते हुए उस वैचारिक दुनिया का निर्माण किया जिसमें विश्लेषणात्मक तरीके का महत्त्व तो है लेकिन औरों की तरह ही, उनसे अधिक नहीं. पूरी सुबह राजनैतिक दृष्टिकोण से बात चल रही थी और कला की दुनिया का यह दखल ताज़ी हवा के एक झोंके की तरह था तथा वार्ता को एक बड़ी दुनिया में ले गया. इनके तुरत बाद आते हुए राहुल राज ने विश्लेषणात्मक वैचारिकी के द्वंद्वों के ऊपर उठने में दर्शन की भूमिका को रेखांकित किया. अंत में चित्रा सहस्रबुद्धे ने कहा कि रचनात्मक पहल के लिए जिस सार्वजनिक और सबको शामिल करने वाले संवाद की ज़रूरत है उसे बनाने के लिए एक ज्ञान आन्दोलन की ज़रूरत है, एक ऐसे ज्ञान आन्दोलन की जिसमें लोकविद्या और नैतिकता को अहम् स्थान मिलता हो. इसे हम बौद्धिक सत्याग्रह का नाम दे सकते हैं, जिसमें कला दर्शन और संत वाणी की बड़ी भूमिका है.
कार्यक्रम के दूसरे दिन लोकतंत्र, समाजवाद, रामराज्य, और स्वराज पर गंगाजी के किनारे दर्शन अखाडा में वार्ता हुई. यहाँ उपस्थित लोगों ने इन अवधारणाओं और व्यवस्थाओं पर अपनी-अपनी समझ रखी. लगभग 50 लोगों की उपस्थिति में बोलने वाले अधिकांश लोगों ने जीवन और समाज के संगठन के रूप में स्वराज के प्रति अपनी प्राथमिकता दर्शाई. लोकविद्या जन आन्दोलन के मैसूर से आये बी. कृष्णराजुलु ने बैठक की शुरुआत करते हुए यह कहा कि आज सभी देशों में लोकतंत्र एक दलीय तानाशाही में बदल रहा है. उन्होंने इस कथन के समर्थन में कई देशों के उदाहरण दिए, जहाँ अलग-अलग विचारधाराओं के दल राज कर रहे हैं. IISER मोहाली से आये वैभव ने बाज़ार की नकारात्मक भूमिका को रेखांकित किया और कहा कि इस बाज़ार की व्यवस्था समझे और बदले बगैर मानव हित में आगे बढ़ना संभव नहीं है. स्वराज विद्यापीठ, इलाहाबाद के मनोज त्यागी ने कहा कि स्वराज की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा कारपोरेशन हैं. उन्होंने स्वराज विद्यापीठ द्वारा ‘लोक राजनीति मंच’, ‘जन-संसद’ और ‘छोटे उद्यम’ के रूप में किये गए प्रयोगों के बारे में बताया. स्वराज अभियान के राम जनम ने कहा कि ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की वास्तविकता और वैचारिकी दोनों की ही सीमाएं हैं और स्वराज की ओर बढ़ने के लिए इनसे आगे बढ़ना होगा. भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद ने उदाहरणों के साथ यह बताया कि छोटी से छोटी समस्या हल करने में वर्तमान सरकारी तंत्र पूरी तरह अक्षम है और यह कि स्थानीय लोगों की पहल पर ही कुछ काम हो पाता है. इसे संगठन का रूप देने से स्वराज की ओर बढ़ने के कदम तैयार होते हैं. विद्या आश्रम की चित्रा सहस्रबुद्धे ने स्वराज परंपरा की बात की. उन्होंने कहा कि स्वराज का विचार बनाने में और उसके व्यवहार के सिद्धांत समझने के लिए गाँधी के अलावा बसवन्ना के कल्याण राज्य, रविदास के बेगमपुरा, कबीर की अमरपुरी, अंग्रेजों के आने से पहले के ‘भाईचारा गाँव’ और आज़ादी के पहले औंध, मिरज और कुछ और स्थानों पर स्वराज के जो प्रयोग हुए उन सब पर ध्यान देना चाहिए. अविनाश झा ने कहा कि लोकतंत्र और स्वराज के बीच का अंतर ‘स्वनियंत्रित’ और ‘स्वगठित’ इन दोनों के अंतर से समझा जा सकता है. स्वनियंत्रित व्यवस्था बाहर से दिए हुए सिद्धांत के तहत चलती है. मगर एक स्वगठित व्यवस्था अपने अंदर ही अपने संगठन के मूल्यों का निर्माण करती है. स्वराज एक स्वगठित व्यवस्था की ओर इशारा करता है.
वार्ता सभा का समापन करते हुए उन सब लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया गया जो भाग लेने आये थे और जिन्होंने इस वार्ता के लिए आवश्यक सारे इंतजाम किये.
इस दो दिन के संवाद के लिए कई लोगों ने रहने-खाने और बातचीत के स्थान की व्यवस्था की. वे हैं – गोरखनाथ, फ़िरोज़ खान, मु. अलीम, नीरजा, आरती कुमारी, अंजू देवी, कमलेश, पप्पू, मल्लू, चम्पादेवी, रोहित, कुलसुमबानो, विवेक और प्रिंस.
[इस संवाद में कई लोग बोले और कई के नाम इस छोटी सी रिपोर्ट में नहीं आये हैं. जो लोग बोले वे हैं—सुनील सहस्रबुद्धे, ज. क. सुरेश, जी. शिवरामकृष्णन, गिरीश सहस्रबुद्धे, वैभव वैश्य, राहुल राज, हरिश्चंद बिंद, मनोज त्यागी, मनाली चक्रवर्ती, मुनीज़ा खान, पारमिता, नीति भाई, संदीपा, अवधेश कुमार, लक्ष्मीचंद दुबे, फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, एहसान अली, ब्रिकेश यादव, मु. अहमद, अमित बसोले, निमिता कुलकर्णी, अरुण चौबे, प्रेमलता सिंह, आरती कुमारी, वीणा देवस्थली, राहुल वर्मन, राम जनम, अभिजित मित्रा, चित्रा सहस्रबुद्धे, अविनाश झा, बी. कृष्णराजुलु. कुछ ऐसे विचार ज़रूर होंगे जो व्यक्त किये गए लेकिन इस रिपोर्ट में नहीं हैं. इसका कारण केवल यह है कि हमारे पास विस्तार से लिखित ब्यौरा नहीं हैं. पूरी वार्ता का एक विडियो बनाया गया है लेकिन अभी हम नहीं जानते कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाय. सुझावों का स्वागत है.]
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गिरीश सहस्रबुद्धे (25 फरवरी 2020)
चर्चा: देश की परिस्थिति और भविष्य (28 फरवरी – 01 मार्च 2020)
लोकविद्या जन-आन्दोलन लोकविद्याधर समाज और लोकविद्या के व्यापक अस्तित्व की पहचान के आधार पर खडा आन्दोलन है| एक तरह से यह हमारे देश के लोगों की असली पहचान का ही आन्दोलन है| जगह-जगह ज्ञान पंचायतों का आयोजन लोजआ के कार्यक्रम का रूप रहा है| ज्ञान-जगत में विभिन्न ज्ञान परम्पराओं के बीच ऊँच-नीच की व्यवस्था और भावना को हमने नकारा है| लोकविद्या के लिए समाज में बराबरी की प्रतिष्ठा की स्थापना हो यह हमारा उद्देश्य रहा है| इसी तर्क के बल पर लोकविद्याधर समाज के लोगों के लिए सरकारी वेतनों के बराबरी के मुआवज़े की व्यवस्था की माँग हमने लगातार की है| हमारी दृढ़ मान्यता यह है कि यह माँग सारे समाज में हमें उस चेतना की दिशा में ले जाती है जो लोकविद्या समाज की आतंरिक ताकत को मुक्त करने की क्षमता रखती है| साथ ही यह भी कि इस माँग के निराकरण से वे आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक स्थितियां पैदा होंगी जो उस क्षमता के परिणाम सबके समक्ष लाने के लिए ज़रूरी होंगी| यह इसलिये कि इससे लोकविद्याधर समाज के लोगों के हाथ में उनके अपने ज्ञान की टूट को रोकने, और उन आर्थिक-सामाजिक साधनों को संगठित करने की ताकत बनेगी जिनसे ये लोग अपना जीवन व्यवस्थित करते हैं| लोकविद्या पर टिकी क्रियाओं को बराबरी के मुआवज़े से जिस प्रकार के वितरित वित्तीय साधनों का निर्माण होगा वे न सिर्फ सारे समाज में भाईचारे और आपसी सहकार की सोच और भावना को बढ़ावा देंगे, बल्कि सभी सामाजिक क्रियाओं में लोकविद्याधर समाज की पहल को जन्म देंगे| औपनिवेशिक भूतकाल और आज़ादी के पश्चात भी साइंस और पश्चिम से प्रेरित व्यवस्था में झुलस रहे हमारे देश के पुनर्निर्माण के परिप्रेक्ष्य में इस पहल का महत्व स्वयंसिद्ध है|
नागरिकत्व-संशोधन कानून के पारित होने के बाद देश में फैले आन्दोलन वर्तमान राजनीति के सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभरे हैं| इन आन्दोलनों नें जहाँ एक तरफ विरोधी दलों को दरकिनार किया है, वहीं शाहीन बाग़ जैसे प्रदर्शनों ने सत्ताधारियों के भडकाऊ बयानों और कारनामों का बड़ी धृष्टता से सामना किया है| यह भी महत्वपूर्ण है कि कई स्थानों पर शाहीन बाग़ ही आन्दोलनों के प्रकार का प्रेरणा स्रोत रहा है, बावजूद इसके कि वहां मुसलमान महिलायें आन्दोलन का प्रमुख मजबूत खम्भा बनी बैठी हैं| चूँकि ये आन्दोलन राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप को नकारता है, इन्हें नेतृत्वहीन भी कहा गया है| ज़ाहिर है कि ये आन्दोलन ऐसी चेतना को जन्म दे रहे हैं जो न तो प्रस्थापित राजनीतिक विचारों में समेटी जा सकती है, और न ही मात्र आर्थिक दिक्कतों में देखी जा सकती है| यही इन आन्दोलनों की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी|
इसमें संदेह नहीं कि गत छह सालों से दलित और मुसलमान समाजों में फैलायी गयी दहशत, नागरिकता-संशोधन कानून (CAA), राष्ट्रीय नागरिक सूची (NRC) और राष्ट्रीय जनगणना सूची (NPR) के माहौल से पैदा हुआ अपने ही देश-जीवन से विस्थापन का डर और सरकारी कागजों का बढ़ता निर्णायक महत्व इन सबका मिला-जुला असर वर्त्तमान प्रदर्शनों-आन्दोलनों की प्रेरणा है| हमारी पहचान का हमारी स्मृति और हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से कोई सम्बन्ध न हो, हम कौन हैं यह किसी कागज़ में सिमट कर रह जाये, इन बातों से लोगों की कतई सहमति नहीं है| सरकार की ओर से यह स्थिति पैदा करने के प्रयासों को अन्यायपूर्ण माना जा रहा है| आर्थिक क्षेत्र में इसी प्रकार के प्रयास पहले हो चुके हैं| नोटबंदी के जरिये तथाकथित अनौपचारिक आर्थिक क्षेत्र को कागजों में बांधने का बहुत बड़ा प्रयास हम सबने देखा है| यह क्षेत्र लोकविद्या समाज के लोगों के लिए उपलब्ध रोजगार का महत्वपूर्ण स्रोत है| इस क्षेत्र में लगने वाली छोटी पूंजी स्थानीय स्तर पर उत्पादकों और व्यवसायों की सुविधानुसार आपसी विश्वास और तय शर्तों पर मुहैय्या कराने वाली व्यवस्थाएं लम्बे समय से काम कर रही हैं| बावजूद इसके कि नोटबंदी इस क्षेत्र पर जानलेवा हमला है, या शायद इसीलिए, यह घातक प्रयोग किया गया, ताकि इस क्षेत्र को औपचारिक कागज़ी व्यवस्थाओं में बांधा जा सके| उस अवसर पर नोटबंदी के पक्ष में ऐसे तर्क सामने किये गए जिनसे तत्काल में इस प्रयास की घातकता पर से आम लोगों का ध्यान हटा, और जो अंत में जाकर काल्पनिक या सरासर झूठे साबित हुए| लोकविद्या विचार की दृष्टिमें नोटबंदी लोकविद्या समाज के लिए उनकी वास्तविक पहचान को नकारते हुए एक नयी मात्र कानूनी, औपचारिक और परावलम्बी आर्थिक पहचान कायम करने का प्रयास है| लेकिन, चूँकि इसका सीधा सम्बन्ध पहलेसे ही मौजूद आर्थिक परिस्थितियों से था, इसका यह रूप खुलकर सामने नहीं आया| नागरिकता से जुड़े सवालों पर उठी हलचल ने लोगों की पहचान को बलपूर्वक तय करने के प्रयासों का पर्दाफाश किया है और वास्तविक पहचान के सवाल को खोल दिया है|
लोकविद्या जन आन्दोलन को इस सवाल से जूझना होगा| देशमें फैले आन्दोलनों से उभरी चेतना और आत्मविश्वास को प्रचलित राजनैतिक खेमों से मुक्त करने के प्रयास करने होंगे| दक्षिणपंथी बनाम वामपंथी, या राष्ट्रवाद बनाम नव-उदारमत से उपजी समझ इस चेतना को देख पाने में नाकाबिल है| उदाहरणतः ‘कागज़ नहीं दिखाएँगे’ का पैंतरा दोनों ही पक्षों के विचारकों लिए आधुनिक समाज के निर्माण में एक रोड़ा ही है – जिसको हटाने में कितनी कठोरता का इस्तेमाल हो मात्र इस बारे में भले ही दो पक्षों में मतभेद हों| लोकविद्या विचार समाज की एक ताकतवर पहचान कायम करता है – एक ऎसी पहचान जो रोजमर्रा के सामान्य जीवन से सीधे तौर से सम्बंधित है और किसी भी राजनैतिक विचार से परे है| फैज़ का ऐलान ‘हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जायेंगे’ हमारे विचार में लोकविद्या की सामाजिक प्रतिष्ठा से सिद्ध होगा|
भारतीय समाज की सशक्त पहचान के विचार के अभाव में वर्त्तमान बहस व्यक्ति-केन्द्रित संविधान की स्थिर चौकट में बंधी हुई है| क्या हम गाँवों की प्राथमिकता को लेकर संविधान-सभा में हुई बहस को वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से छेड़ सकते है? क्या इस माध्यम से लोकविद्या समाज की स्वायत्तता और पहल की बात की जा सकती है?
B Krishnarajulu (01 Feb 2020)
The World situation
The major developed countries of the World, such as China and Russia and some smaller ones such as Singapore, are one-Party dictatorships and many of the other so-called democracies of the First World, such as the USA and UK, there are serious attempts to transform them into One-party dictatorships. The developing economies such as Brazil and India are also in the process of becoming One-party dictatorships.
The countries of Latin America and South-east Asia are also verging catastrophically into dictatorships while the oligarchies of the Arab world are wallowing in wealthy despotism.
All these political dispensations have actively and militarily perpetuated a ‘development’ paradigm based on brutal industrialisation, Globalisation and market-based economic imperialism. The political structure that has allowed and encouraged this to happen is One-Party dictatorship. The dramatic rise of China and the sustenence of Russia; both under the dictatorship of the Communist party, as global economic superpowers; underlines the ‘success’ of this strategy. It is therefore not surprising that the other established economic giants such as USA and UK and the aspiring developing countries, such as India and Brazil, are also heading in the same political direction.
Dictatorships allow the ruling dispensation to wrest and excercise control over all resources, production and marketing and use military might to subjugate any dissidence. Such a situation inevitably results in the loss of a number of fundamental human rights for the population, who are then surely driven into a new form of dehumanised slavery.
Every dictatorship needs an ‘ideological’ base for its sustenance. While the Communist ideology (and Party), bolstered by some ethnic nationalism, led the way in Russia and China; the nascent dictatorships of Western Europe and North America have long tried to establish a social base in White Supremacy (recall White Aryan supremacy in Nazi Germany) and the would-be dictatorships of Latin America seem to have embarked on a process of political ethnic cleansing. The oligarchies of the Arab world have increasingly used Sunni Islam as the ideological base of their dictatorships.
The Indian situation
The predominant thinking, in intellectual and Government circles in India, has been influenced by these development models and is now wholly committed to market-based economic imperialism. All political parties have essentially supported this development paradigm and, during the past 50 years or so, the attempt to establish their dictatorships has been underway. The Congress, through the Indira Gandhi regime attempted to usher in dictatorial control over the economy and polity in the 70s, but failed to complete the task. The RSS -BJP, who have been open advocates of rampant capitalism (their anti-socialism/ communism emanates from adherence to the capitalist development paradigm) and have long sought to establish a popular base (as support to their dictatorship) through Hindutva (Vedic Brahmin supremacy) ideology. They have now unabashedly begun to consolidate the dictatorship given the political mandate that has gone in their favour.
There has been growing opposition to alternate development paradigms, based on decentralised production, local market economy and backed by a democratic polity; long suggested by Mahatma Gandhi, Kumarappa, Rammanohar Lohia etc. In fact, the assassination of Mahatma Gandhi was the first ‘violent’ blow heralding this opposition. The RSS – BJP have continuously been attempting to consolidate Hindu opinion to back their efforts to establish a one-party dictatorship and set the country on the path to becoming an important player in global market capitalism.
On the other hand, the very existence of Lokavidya Samaj is dependent on the success of a decentralised, local market economy based in Lokavidya livelihoods and backed by local self-government (democratic Gram Panchayats).
The current debate on CAA, NRC, NPR etc
It should be abundantly clear that the current support for and opposition to the CAA/NRC/NPR are based in support for or opposition to the attempt to set up a one-party dictatorship. In fact, the composition of both camps suggest that they would in fact root for the dominance of the global market economy; with however the support camp arrogating to itself the ‘selection’ of those sections of society who should be included among the beneficiaries of the system while the opposition camp roots for an all-inclusive beneficiary dispensation. Neither camp appears interested in establishing a truly egalitarian society that will help liberate Lokavidya Samaj from the growing clutches of the global market economy.
The Dalits and Tribals have long been struggling for equal inclusion while women have been struggling for gender equality and against gender discrimination in all spheres of human activity. Muslim women, especially the upward mobile younger generation, seem to be aware that, nowhere else in the world but ONLY in an Indian democratic setup, can they hope to achieve some urgent social and ‘religious’ reforms. For them, the freedom to voice such opinion exists only in India and, like the rest of the women in the country, they do not want to lose this hope to religion-based discrimination.
The Lokavidya Samaj perspective
It should be quite clear that the global attempts to establish dictatorships to further the capitalist market system seek to suppress and eliminate all ‘subaltern’ societies that comprise a vast majority of the global population. The nascent dictatorships of Latin America are rapidly moving to capture centre stage in the movement to marginalize and eliminate all ‘traditional’ societies and their cultural and social identities. In India too, the attempt at establishing a dictatorship is aimed at obliterating Lokavidya and the very identity of Lokavidya Samaj and convert the vast population of Lokavidyadhars into ‘controllable’ components/robots of the market economy. (The attempt to enact a law that ties up farm incomes with big-agribusiness industries is a case in point.)
It is therefore imperative that Lokavdiya Samaj intervene in the current agitation against the dictatorship and project it’s views on socio-economic reorganization clearly and strongly.
- Reports
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Vidya Ashram (10 Mar 2020)
वाराणसी में देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य पर 29 फरवरी 2020 को विद्या आश्रम, सारनाथ और 1 मार्च 2020 को दर्शन अखाड़ा, राजघाट में एक राजनैतिक और दार्शनिक वार्ता का आयोजन किया गया. देश भर में पिछले दो-तीन महीनों से CAA/NRC/NPR के विरोध में हो रही गतिविधियों की पृष्ठभूमि में और हम कौन हैं और किधर चले विषय पर शुरू हुई वार्ताओं के सन्दर्भ में समाज के कई तबकों से और देश भर से आये लोगों ने आगे के रास्ते और एक सार्थक परिवर्तन की संभावना पर अपने विचार रखे. लगभग 75 व्यक्तियों की भागीदारी में यह संवाद हुआ. वार्ता में 25 से 70 के आस पास के आयुवर्ग के लोग शामिल रहे.
यह महसूस किया गया कि सरकार के वर्तमान कदम और सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त विरोध दोनों ही पिछले समय से नाता तोड़ते नज़र आते हैं और एक राष्ट्रीय समाज के रूप में हम कौन हैं और किधर जाना चाहते हैं? यह सवाल उठ खड़ा हुआ है. वार्ता में शुरू से यह आग्रह रहा कि इसकी समझ बनाने के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों और समाज वैज्ञानिकों से मार्गदर्शन लेने की जगह यह ज्यादा महत्वपूर्ण होगा कि हम इसे सामान्य लोगों, उनका जीवन और उनके विचारों के राजनीतिक-दार्शनिक सन्दर्भ में अवस्थित करने का प्रयास करें.सुरेश और सिवरामकृष्णन ने बंगलुरु में चल रहे ‘पवित्र आर्थिकी सत्याग्रह’ की बात के साथ चर्चा शुरू की. यह सत्याग्रह हाथ के काम और उन्हें करने वालों के पक्ष में एक आर्थिक-सामाजिक आन्दोलन है. इस आन्दोलन ने सीएए/एनआरसी के विरोध का समर्थन किया है तथा उसमें एक महत्वपूर्ण पक्ष जोड़ने का प्रयास किया है. देश में चल रहे सीएए/एनआरसी के विरोध के आन्दोलन के सन्दर्भ में कई भागीदारों ने इस बात पर जोर दिया कि वर्तमान सरकार हिंदुत्व की वैचारिकी से प्रभावित होकर एक विनाशकारी रास्ता अपना रही है और इस देश में सभी पंथों और धर्मों के लोगों की आपसी सौहार्द के जीवन की जो परंपरा है उसे ख़त्म करने पर तुली हुई है. कई तबकों के लोग यह सोचते हैं कि सी.ए.ए., एन.आर.सी. और एन.पी.आर. का पैकज उनके अस्तित्व के लिए ही खतरा है. इसलिए इसका विरोध जिन लोगों ने और जितनी मजबूती से खड़ा किया है उसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. यह किसी प्रकार के “वाद” से बंधा हुआ नहीं है और इसने देशप्रेम की नयी परिभाषा दी है. यह मुख्यधारा के वर्तमान पक्षों को पीछे छोड़ आया है. ख़ास कर शाहीन बाग़ की महिलाओं ने यह दिखा दिया है कि जो लोग मुस्लिम समाज की स्त्रियों को सार्वजनिक मंच से कटा हुआ समझते हैं वे कितने ग़लत हैं. इन महिलाओं ने न सिर्फ राजनैतिक पक्षों को बल्कि अपने समाज के लीडरों को भी पीछे छोड़ दिया है. उनकी शक्ति के स्रोत क्या हैं यह समझने की ज़रुरत है. क्या यह एक नई प्रेरणा का स्रोत है?
वक्ताओं ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि यह आंदोलन केवल मुसलमानों का नहीं है. ये नए कानून और सरकार के प्रयास सिर्फ मुसलमान समाज के लिए ही नहीं, बल्कि देश के तमाम किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, स्त्रियों और छोटे धंधे वालों के लिए समस्या पैदा करते हैं. इन लोगों के पास अथाह ज्ञान, विद्या और हुनर तो है, लेकिन कागज़ नहीं हैं. इस लिए “कागज़ नहीं दिखाएंगे” का नारा इस लोकविद्याधारी समाज का नारा है. इस आंदोलन के मार्फ़त समाज सरकार से कह रहा है “हमारे ही देश से हमें बेदखल करने का विचार त्याग दें”. यह बात भी सामने आयी कि सीएए के मुद्दे तक सीमित न रह कर इस आंदोलन को सरकार की अन्य नीतियों जैसे नोटबंदी, जीएसटी आदि की पार्श्वभूमि में देखा जाए.
वार्ता में यह बात भी उभर कर आयी कि हिंदुत्ववादी सोच का मुक़ाबला करने और देश के विविध सम्प्रदायों के बीच भाईचारे के सम्बन्ध बनाने और अधिक मजबूत करने के लिए जिन मूल्यों और व्यवहार के तरीकों की ज़रुरत है, वह हमें सामान्य जीवन में और लोक परम्पराओं तथा लोकस्मृति में मिलते हैं. भारत में ऐसे भाईचारे की परम्परा है जिसे हिन्दुत्ववादी सोच नकारती है. लेकिन अगर हम महाभारत से कुछ सीखते हैं तो वह यह कि जब घर ही में युद्ध होता है तो किसी की जीत नहीं होती, सबकी हार होती है. वक्ताओं ने कहा की आर्थिक विषमताओं, बेरोज़गारी, और कॉर्पोरेट सेक्टर के फायदे के लिए बनी आर्थिक नीतियों को भी चुनौती देने की ज़रुरत है. ये ऐसे हालात पैदा करती हैं जिनमें युवा नफरत और हिंसा की ओर गुमराह किये जाते हैं. यह एक लम्बी लड़ाई है.
यह भी कहा गया कि केवल संवैधानिक मूल्यों को पकड़कर देश बहुत दूर तक नहीं जा सकता. जिस उदारतावाद और प्रगतिशीलता से हम परिचित हैं वह अब और आगे देश को किसी नए रास्ते पर ले जा सकेगा इसकी संभावना नहीं दिखाई देती. उदार और सकारात्मक मूल्यों के स्रोत के रूप में हमें सामान्य लोगों के बीच प्रचलित परम्पराओं की ओर देखने का मन बनाना चाहिए, खासकर संत-परंपरा की ओर. केवल इतना ही नहीं बल्कि वर्तमान आन्दोलन में कलाकारों की भूमिका यह कहती नज़र आती है कि देश और दुनिया को कला दर्शन की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. इस सन्दर्भ में श्रीमती मंजू सुन्दरम जी का एक विशेष व्याख्यान रखा गया था. श्रीमती मंजू सुन्दरम कला और भाषा के क्षेत्रों में विशेष दखल रखने वाली एक दार्शनिक विदुषी हैं. वे उपस्थित लोगों को एक ऐसी कला की दुनिया में ले गईं जहाँ से बातों को समझने और देखने के लिए प्रचलित राजनैतिक और आर्थिक श्रेणियों से अलग वैचारिक श्रेणियों के बीच खुद को ले जाना पड़ता है. ‘दर्शन’, ‘भाव’ और ‘मर्यादा’ की बातें करते हुए उस वैचारिक दुनिया का निर्माण किया जिसमें विश्लेषणात्मक तरीके का महत्त्व तो है लेकिन औरों की तरह ही, उनसे अधिक नहीं. पूरी सुबह राजनैतिक दृष्टिकोण से बात चल रही थी और कला की दुनिया का यह दखल ताज़ी हवा के एक झोंके की तरह था तथा वार्ता को एक बड़ी दुनिया में ले गया. इनके तुरत बाद आते हुए राहुल राज ने विश्लेषणात्मक वैचारिकी के द्वंद्वों के ऊपर उठने में दर्शन की भूमिका को रेखांकित किया. अंत में चित्रा सहस्रबुद्धे ने कहा कि रचनात्मक पहल के लिए जिस सार्वजनिक और सबको शामिल करने वाले संवाद की ज़रूरत है उसे बनाने के लिए एक ज्ञान आन्दोलन की ज़रूरत है, एक ऐसे ज्ञान आन्दोलन की जिसमें लोकविद्या और नैतिकता को अहम् स्थान मिलता हो. इसे हम बौद्धिक सत्याग्रह का नाम दे सकते हैं, जिसमें कला दर्शन और संत वाणी की बड़ी भूमिका है.कार्यक्रम के दूसरे दिन लोकतंत्र, समाजवाद, रामराज्य, और स्वराज पर गंगाजी के किनारे दर्शन अखाडा में वार्ता हुई. यहाँ उपस्थित लोगों ने इन अवधारणाओं और व्यवस्थाओं पर अपनी-अपनी समझ रखी. लगभग 50 लोगों की उपस्थिति में बोलने वाले अधिकांश लोगों ने जीवन और समाज के संगठन के रूप में स्वराज के प्रति अपनी प्राथमिकता दर्शाई. लोकविद्या जन आन्दोलन के मैसूर से आये बी. कृष्णराजुलु ने बैठक की शुरुआत करते हुए यह कहा कि आज सभी देशों में लोकतंत्र एक दलीय तानाशाही में बदल रहा है. उन्होंने इस कथन के समर्थन में कई देशों के उदाहरण दिए, जहाँ अलग-अलग विचारधाराओं के दल राज कर रहे हैं. IISER मोहाली से आये वैभव ने बाज़ार की नकारात्मक भूमिका को रेखांकित किया और कहा कि इस बाज़ार की व्यवस्था समझे और बदले बगैर मानव हित में आगे बढ़ना संभव नहीं है. स्वराज विद्यापीठ, इलाहाबाद के मनोज त्यागी ने कहा कि स्वराज की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा कारपोरेशन हैं. उन्होंने स्वराज विद्यापीठ द्वारा ‘लोक राजनीति मंच’, ‘जन-संसद’ और ‘छोटे उद्यम’ के रूप में किये गए प्रयोगों के बारे में बताया. स्वराज अभियान के राम जनम ने कहा कि ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की वास्तविकता और वैचारिकी दोनों की ही सीमाएं हैं और स्वराज की ओर बढ़ने के लिए इनसे आगे बढ़ना होगा. भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद ने उदाहरणों के साथ यह बताया कि छोटी से छोटी समस्या हल करने में वर्तमान सरकारी तंत्र पूरी तरह अक्षम है और यह कि स्थानीय लोगों की पहल पर ही कुछ काम हो पाता है. इसे संगठन का रूप देने से स्वराज की ओर बढ़ने के कदम तैयार होते हैं. विद्या आश्रम की चित्रा सहस्रबुद्धे ने स्वराज परंपरा की बात की. उन्होंने कहा कि स्वराज का विचार बनाने में और उसके व्यवहार के सिद्धांत समझने के लिए गाँधी के अलावा बसवन्ना के कल्याण राज्य, रविदास के बेगमपुरा, कबीर की अमरपुरी, अंग्रेजों के आने से पहले के ‘भाईचारा गाँव’ और आज़ादी के पहले औंध, मिरज और कुछ और स्थानों पर स्वराज के जो प्रयोग हुए उन सब पर ध्यान देना चाहिए. अविनाश झा ने कहा कि लोकतंत्र और स्वराज के बीच का अंतर ‘स्वनियंत्रित’ और ‘स्वगठित’ इन दोनों के अंतर से समझा जा सकता है. स्वनियंत्रित व्यवस्था बाहर से दिए हुए सिद्धांत के तहत चलती है. मगर एक स्वगठित व्यवस्था अपने अंदर ही अपने संगठन के मूल्यों का निर्माण करती है. स्वराज एक स्वगठित व्यवस्था की ओर इशारा करता है.
वार्ता सभा का समापन करते हुए उन सब लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया गया जो भाग लेने आये थे और जिन्होंने इस वार्ता के लिए आवश्यक सारे इंतजाम किये.
इस दो दिन के संवाद के लिए कई लोगों ने रहने-खाने और बातचीत के स्थान की व्यवस्था की. वे हैं – गोरखनाथ, फ़िरोज़ खान, मु. अलीम, नीरजा, आरती कुमारी, अंजू देवी, कमलेश, पप्पू, मल्लू, चम्पादेवी, रोहित, कुलसुमबानो, विवेक और प्रिंस.[इस संवाद में कई लोग बोले और कई के नाम इस छोटी सी रिपोर्ट में नहीं आये हैं. जो लोग बोले वे हैं—सुनील सहस्रबुद्धे, ज. क. सुरेश, जी. शिवरामकृष्णन, गिरीश सहस्रबुद्धे, वैभव वैश्य, राहुल राज, हरिश्चंद बिंद, मनोज त्यागी, मनाली चक्रवर्ती, मुनीज़ा खान, पारमिता, नीति भाई, संदीपा, अवधेश कुमार, लक्ष्मीचंद दुबे, फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, एहसान अली, ब्रिकेश यादव, मु. अहमद, अमित बसोले, निमिता कुलकर्णी, अरुण चौबे, प्रेमलता सिंह, आरती कुमारी, वीणा देवस्थली, राहुल वर्मन, राम जनम, अभिजित मित्रा, चित्रा सहस्रबुद्धे, अविनाश झा, बी. कृष्णराजुलु. कुछ ऐसे विचार ज़रूर होंगे जो व्यक्त किये गए लेकिन इस रिपोर्ट में नहीं हैं. इसका कारण केवल यह है कि हमारे पास विस्तार से लिखित ब्यौरा नहीं हैं. पूरी वार्ता का एक विडियो बनाया गया है लेकिन अभी हम नहीं जानते कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाय. सुझावों का स्वागत है.]