चर्चा के लिए
प्रस्ताव
सुनील सहस्रबुद्धे (26 Apr 2024)
1995 से अब तक लोकविद्या विचार और दर्शन पर जितने भी चिंतन, प्रकाशन और संगठनात्मक व रचनात्मक कार्य हुए हैं वे एक नई विश्वदृष्टि का व्यापक फलक बनाते हैं. सृष्टि और समाज में न्याय, त्याग और भाईचारा पर गढ़ी हुई बुनियादी सत्ता का सत्य ‘लोकविद्या’ और ‘सामान्य जीवन’ के आपसी गतिशील संबंधों में बसा दिखाई देता है. इस सत्य के उजाले में समाज की परिवर्तनकारी शक्तियों की खोज, निर्माण, संवर्धन, नवीनीकरण आदि के प्रयास मनुष्य और मनुष्य समाज की गतिविधियों के उन विविध पक्षों से साक्षात्कार करा सकते हैं, जो एक नई और बेहतर दुनिया को बनाने के आधार होंगे.
इस ओर बढ़ने की दृष्टि से एक शोध का विचार पत्र प्रस्तुत है.
अधिकांश विचारों की व्याख्या और सन्दर्भ इस वेबसाईट पर और लोकविद्या जन आन्दोलन के ब्लॉग तथा दर्शन अखाडा के ब्लॉग पर मिलेंगे.
1. शोध के बारे में दो शब्द
संक्षेप में कहें तो यह शोध बहुजन-समाज की उज्जवल परम्पराओं की खोज है, जो हमें एक नये समकालीन राजनैतिक चिंतन की ओर ले जाये.
कुछ प्रमुख बिंदु हैं –
- सामान्य जीवन की परंपरा बहुजन-समाज की जीवन परंपरा है.
- लोकविद्या की परम्परा बहुजन-समाज की ज्ञान परम्परा है.
- स्वराज की परंपरा बहुजन-समाज की राज परंपरा है.
- संत परम्परा बहुजन-समाज की परंपरा है.
- स्वदेशी दर्शन बहुजन-समाज का दर्शन है.
- पंचायत की परंपरा बहुजन समाज द्वारा समाज के संगठन, संयोजन एवं नियमन (कानून एवं व्यवस्था) की परंपरा है. इसे इस देश के विधि-विधान की मौलिक परंपरा के रूप में देखा जा सकता है.
- समाज के वित्तीय संगठन, उत्पादन और लेन-देन की परम्पराएँ बहुजन-समाज में प्रचलित वितरित व्यवस्थाओं के विचारों के अनुकूल रही हैं.
- इन सभी बिंदुओं को आपस में गूंथना ही यह शोध है. कहा जा सकता है कि इस गूंथने का सक्रिय गतिशील रूप एक बहुजन ज्ञान संवाद है.
ये इस शोध की पूर्व मान्यताएं (हाइपोथिसिस ) हैं. शोध की बनावट और उसका विस्तार इस दृष्टि से किया जाएगा कि इन मान्यताओं अथवा इस समझ के विभिन्न बिन्दुओं पर प्रकाश पड़े. वे कितने सही हैं और कितने गलत, तथा उनका सार व स्वरुप क्या है, यह कई कोणों से सामने आए.
‘सामान्य जीवन’ और ‘लोकविद्या’ के गतिशील संबंधों पर एक व्यापक दृष्टि बनाने के रास्ते में कई चुनौतियाँ सामने खड़ी मिलती हैं. इन चुनौतियों को पहचानने और उनसे मुकाबला करने की दिशा और तरीकों पर एक सरसरी निगाह निम्नलिखित बिन्दुओं के मार्फ़त रखी गई है.
2. ‘राजनीतिक विचार और राजनीति’ के बंधन
- ‘सामान्य जीवन’ के उल्लंघन के विरुद्ध संघर्ष को बुनियादी अर्थों में राजनीतिक कहा जा सकता है।
- समकालीन विश्व में राज्य, साइंस और पूंजी सामान्य जीवन के उल्लंघन के प्रमुख स्रोत हैं। इसलिए, साइंस के विरुद्ध, पूंजी के विरुद्ध और राज्य के विरुद्ध संघर्ष बुनियादी तौर पर राजनीति को परिभाषित करते हैं. आम बोलचाल की भाषा में इन्हें परिवर्तनकारी राजनीतिक गतिविधि कहा जा सकता है।
- लेकिन इससे एक अजीब स्थिति पैदा हो जाती है. इस प्रकार वह गतिविधि राजनीतिक गतिविधि कहलाती है जिसका उद्देश्य ‘राजनीतिक समाज’ को उखाड़ फेंकना है। राजनीतिक समाज वह है, जो साइंस, पूंजी और राज्य के उद्भव के साथ बना है। अब तक लगभग सभी भाषाएँ, कम से कम सार्वजनिक क्षेत्र की भाषा, मुख्यतः इस राजनीतिक समाज की भाषा हैं। इसलिए सही ढंग से कहें तो मुक्ति के बुनियादी संघर्ष ‘राजनीतिक संघर्ष’ नहीं हैं और फिर भी आम बोलचाल में उन्हें ‘राजनीतिक संघर्ष’ कहा जाता है.
- एक बुनियादी ज्ञान आंदोलन के संदर्भ में यह शब्दावली या भाषाई समस्या हल करने के उपाय मिलते हैं. इसलिए, यदि कोई बुनियादी, परिवर्तनकारी अर्थ में राजनीति करना या उसके बारे में बोलना चाहता है तो उसे अपनी गतिविधि और संवाद को ‘ज्ञान आंदोलन’ में अवस्थित करना होगा. इनमें से कुछ बातें बहुत स्पष्ट हो जाती हैं जब हम गांधी के समय में इन बातों को घटित होते देखते हैं. हम गांधी को एक नए ज्ञान आंदोलन और एक नए राजनीतिक आंदोलन दोनों के निर्माता के रूप में देख सकते हैं और दोनों को उचित रूप से बुनियादी परिवर्तनकारी आंदोलन कहा जा सकता है.
- तब हम देखेंगे कि एक बुनियादी राजनीतिक आंदोलन लोगों के ज्ञान आंदोलन से अलग नहीं हो सकता।
- अगर हम इस देश को ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के रूप में विभाजित देखें तो आजादी के बाद की सारी राजनीति इण्डिया की राजनीति दिखाई देगी. यदि साइंस, राज्य और पूंजी को एक-दूसरे के साथ गुंथे हुए देखेंगे तो आप इण्डिया को देखेंगे. ‘सामान्य जीवन’ को उसकी पूरी प्रतिष्ठा बहाल करने की आवश्यकता का दावा जब लोगों के ज्ञान आंदोलन (लोकविद्या आंदोलन) के साथ आएगा तब भारत के लायक राजनीति बनेगी.
- यह देश ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के रूप में विभाजित है तथापि यह एक गतिशील परिस्थिति है और दोनों को एक दूसरे में भी देखा जा सकता है। कोई भी आसानी से भारत में जीवन और आकांक्षाओं के विभिन्न पहलुओं को इंगित कर सकता है, जो इण्डिया में जीवन और आकांक्षाओं के समान हैं. इसी तरह इण्डिया में जीवन के उन विभिन्न पहलुओं को देखा जा सकता है जो भारत में प्रचलित हैं. ‘सामान्य जीवन’ का विचार विभाजन को पाटना है, नया विभाजन पैदा करना नहीं. सामान्य जीवन केवल सामान्य पुरुषों और महिलाओं का जीवन नहीं है, यह सर्वव्यापी है। संत-परंपरा नित नवीन परिस्थितियों (उल्लंघन, हाशियेकरण, दमन आदि) में विचार और व्यवहार में सामान्य जीवन के नव-निर्माण और पुनर्सृजन की परंपरा है.
- दर्शन परम्पराएँ जिनमें सत्य, स्वायत्तता और सहजीवन (भाईचारा) के विचार प्रमुख भूमिका में होते हैं, वे ही ‘राजनीतिक-समाज’ के विकल्प में ‘वितरित सत्ता’ अथवा ‘स्वायत्त इकाइयों के सहजीवन’ पर आधारित समाजों के संगठन और सञ्चालन का विचार ला सकते हैं. यह स्वराज का विचार है.
3. सामाजिक विचार
- राजनीतिक दृष्टि से देश का सामान्य जन-समाज एक दो राहे पर खड़ा है. या तो वह समाज में बड़े संरचनागत परिवर्तन की ओर आगे बढ़ने का रास्ता चुने या फिर वर्तमान व्यवस्था में अपने लिए अधिक से अधिक जगह प्राप्त करने के रास्ते बनाये. ये दोनों बातें अलग तो हैं किन्तु एक दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं तथा समाज से सरोकार रखने वालों के बीच लम्बे समय से बहस का विषय रही हैं और रहेंगी.
- देश के सामान्य जन-समाज यानि बहुजन-समाज की सार्वजनिक उपस्थिति, राजनीतिक भूमिका और एक समाज के रूप में गोलबंदी आज एक नए मोड़ पर है. जन गणना में जाति की पहचान लिखी जाने के अभियान के रूप में यह दिखाई दे रहा है. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सभ्यता, संस्कृति और नस्ल के मुद्दे बहस में आ चुके हैं. इसलिए अब बराबर के सम्मान और आय के पक्ष में परिवर्तन की राजनीति की दिशा का पुनर्निर्माण आवश्यक है. जाति का विमर्श बहुजन-समाज का विमर्श ही है. अपने समाज पर फिर से एक नज़र डालने की ज़रुरत है.
- बहुजन-समाज सामान्य लोगों का समाज होता है (विशिष्ट जनों का नहीं). इसे अलग-अलग ढंग से जातियों के मार्फ़त, समाज के रूप में, बिरादरियों के मार्फ़त, मुख्यधारा से बहिष्कृत लोगों के रूप में, अंग्रेजी राज के पहले से अस्तित्व रखने वाली सामाजिक संरचनाओं के रूप में अथवा सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ों के रूप में पहचाना जाता है. कौन सी पहचान को प्राथमिकता दी जाए अथवा पहचान का वरीयता क्रम क्या हो यह इससे तय होता है कि आप के उद्देश्य क्या हैं, और यह कि समाज निर्माण, परिवर्तन और प्रगति के आप के विचार क्या हैं?
- यह देश और यहाँ का धर्म बहुजन-समाज का है. संत परम्परा बहुजन समाज के विचारों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है. इसने धर्म को लोक-भागीदारी के मार्फ़त लोकधर्म के रूप में खड़ा किया. अब हिंदुत्व के नाम से एक नया धर्म इन पर थोपा जा रहा है. इतिहास के अधिकांश काल में बहुजन समाजों के ही राजा रहे. ध्यान रहे कि उनके राज में सामान्य जीवन और स्वायत्तता का सम्मान रहा. यह ज़रूर हुआ कि अलग-अलग समयों पर ब्राह्मणों, मुगलों और अंग्रेजों ने इन पर राज करने की व्यवस्थाएं बनाईं. इसका अर्थ यही है कि बहुजन-समाज के पास जीवन संगठन, राज और समाज-सञ्चालन का दर्शन रहा है, जिसके बल पर सभ्यता और संस्कृति के कीर्तिमान गढ़े गये हैं.
- बहुजन-समाज अपना रास्ता अपने दृष्टिकोण, दर्शन और हितों के जरिये चुने इसके लिए यह आवश्यक प्रतीत होता हैं कि बड़े पैमाने पर इस विषय पर सार्वजनिक बहस हो. यह बहस आज के प्रभु वर्गों के विचारों से स्वतंत्र होना ज़रूरी है और इसलिए बहुजन-समाज के दर्शन, इतिहास, राजनीति, और संभावी भविष्य को लेकर विस्तृत शोध व अनुसंधान की ज़रूरत है. यह अनुसंधान विश्वविद्यालय के अनुसंधान से सर्वथा अलग होगा क्योंकि विश्वविद्यालय के अनुसंधान पर पश्चिम की आधुनिक दार्शनिक परम्पराओं और ब्राह्मणों के विचारों का आधिपत्य है और उसमें बहुजन-समाज के दर्शन और उनके दर्द के लिए कोई स्थान नहीं है.
- बहुजन-समाज यह अनेक स्वायत्त लघु समाजों से बना समाज रहा है. समाज संगठन के ये विविध प्रकार लोकविद्या और सामान्य जीवन में गतिशील संबंधों के चलते नितनवीन और विविध आकार लेते रहे हैं. इनके निर्माण, गति और स्थायित्व की प्रक्रिया वितरित सत्ता के जल से सींची जाती रही हैं. एक तरह से लोकविद्या, सामान्य जीवन, समाज और स्वराज ये परस्पर नवीन और पुनर्निर्मित होते रहते हैं.
- लोकविद्या परम्परा बहुजन समाज की ज्ञान परम्परा है. आज की दुनिया में इस ज्ञान परम्परा का सामाजिक हस्तक्षेप स्वदेशी दर्शन और स्वराज के बीच की कड़ी बनाता है.
4. ज्ञान, उत्पादन, तकनीकी, व्यवस्था और प्रबंधन
- मनुष्य के ज्ञान और उसकी रचनात्मक ऊर्जा का प्रेरणास्रोत कहाँ होता है, इस बारे में कई तरह के विचार होते हैं. एक दृष्टिकोण में इसे मनुष्य की आवश्यकताओं में देखा जाता है, किसी ने शासन की ज़रूरतों में, तो किसी ने विकास की आवश्यकताओं में देखा, कोई खुशहाली के व्यापक उद्देश्यों के मार्फ़त देखता है, तो कोई नैतिक मूल्यों में उसकी जड़ें मानता है.
- उत्पादन, वितरण, प्रबंधन, संचार-संपर्क और व्यवस्था का ज्ञान, समाज संगठन और सञ्चालन के मौलिक सिद्धांतों को आकार देता है. बहुजन समाज में यह ज्ञान कुछ क्षेत्रों में प्रखर रूप में देखा जा सकता है. विशेषकर महिलाओं और छोटी पूँजी पर जीवनयापन करने वाले समाजों में यह अधिक स्पष्ट है. इनमें, न्याय, स्वायत्तता, मर्यादा, प्रेम, भाईचारा, त्याग और सहजीवन के व्यवहारिक रूप सामने आते हैं.
- बहुजन-समाज द्वारा सिद्धांत, व्यवहार और आवश्यकता आदि को ‘सामान्य जीवन’ और ‘लोकविद्या’ की कसौटी पर आंकने का अर्थ क्या है? समाज में किसी भी नए कदम और रचना के निर्णय और निर्माण के लिए, उसके लिए लगने वाले संसाधन, ज्ञान, तकनीकी, प्रक्रिया, उपभोग, पैमाना, स्वास्थ्य पर प्रभाव, अन्य जीवों और पदार्थों पर आने वाले परिणाम, आवश्यक संस्थाओं का निर्माण और संचालन आदि प्रत्येक पक्ष को विस्तार और गहराई से देखा जाता है.
5. दर्शन, दार्शनिक संवाद और ज्ञान आन्दोलन
- ऐसा कहा जाता है कि आज तकनीकी और विशेषज्ञता का दौर है. ऐसा कहने वाले व्यापक मानव हित तथा दर्शन इत्यादि पर चर्चा को गैरज़रूरी समझते हैं. तथापि वास्तविकता यह है कि सभी कार्यों में कोई न कोई दर्शन निहित होता है और मानव जीवन पर होने वाले दूरगामी नतीजे भी निहित होते हैं. व्यापक बहस और दर्शन से किनारा कसना आत्मघाती है. प्रकृति का विनाश और मनुष्य और मनुष्य के बीच भयानक अंतर ये सब ऐसे ही नतीजे हैं. दूसरे महायुद्ध के बाद, यानि 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में, दुनिया की पुनर्रचना में दर्शन को उचित स्थान नहीं दिया गया, न पश्चिम के देशों में और न नवोदित राष्ट्रों में. यह एक बड़ा कारण है कि आज दुनिया गरीबी, गैर-बराबरी, भयानक युद्धों और जलवायु संकट से घिरी हुई है.
- 20 वीं सदी के पूर्वार्ध में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से संघर्ष के दौरान वैश्विक दक्षिण के अनेक देशों में दर्शन पर व्यापक चर्चाएं हुई हैं. इनमें से बहुत सी अपनी स्वदेशी परम्पराओं की समकालीन पुनर्रचना के रूप में सामने आईं. 1939 से 1945 के बीच यूरोप से शुरू हुए महायुद्ध के बाद तमाम उपनिवेश स्वतंत्र हुए तथा साम्राज्यवाद को पीछे हटना पड़ा और अनेक देशों में आज़ाद सरकारें बनीं. किन्तु इन देशों मेंपश्चिम के देशों जैसी राज्य प्रणाली, उन्हीं के जैसा औद्योगीकरण तथा विश्वविद्यालयों में पश्चिमी सोच के दबदबे के चलते स्वदेशी दार्शनिक परम्पराओं का स्थान समाज में गौण हो गया. इससे समाज की प्रमुख धारा और सामान्य लोगों के बीच का दार्शनिक संवाद टूटता चला गया. यह एक भीषण परिस्थिति है, जिसमें समाज के उत्थान और पुनर्रचना के लोकप्रिय मूल्यों का निर्माण रुक जाता है और समाज एक अवनत अवस्था में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है. ऐसा नहीं है कि इस दौर में हुई वार्ताओं का स्वदेशी के विचार के साथ कुछ लेना-देना नहीं है . जन आंदोलनों के अंतर्गत तथा लोकहित के मुद्दों पर संघर्षों के सन्दर्भ में बुनियादी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक चर्चाएं हुईं, किन्तु ये चर्चाएं स्वदेशी दार्शनिक परम्पराओं से न जुड़ सकीं.
- 20 वीं सदी के अंत में वैश्विक स्तर पर बड़े आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी (इन्टरनेट) परिवर्तनों के साथ एक नए युग की शुरुआत हुई है जिसे हम संवाद का युग कह सकते हैं. इस दौर में जहाँ एक तरफ पश्चिम में उपजी और दुनियाभर में फैली कई दर्शन धाराओं की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े होने लगे, वहीँ दर्शन की स्वदेशी धाराओं से प्रेरणा लेने के मौके पैदा हुए हैं, हालाँकि सामान्य लोगों के साथ दार्शनिक संवाद टूटने का संकट बहुत बड़ा है.इसके चलते विचारों के पुनर्निर्माण और दर्शन के पुनरोदय के स्रोत सूखे नज़र आते हैं. ऐसे समय में दर्शन पर खुल कर बहस की आवश्यकता होती है. यह आवश्यक होता है कि दर्शन पर संवाद एक शक्ति के रूप में उभरे.
- दर्शन आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों एक साथ होता है. वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों एक साथ होता है. विचार दार्शनिक तभी होता है जब वह सीमाओं में नहीं बंधता. दर्शन को किसी शैक्षणिक योग्यता, विशेषज्ञता अथवा समाज में विशेष स्थान की आवश्यकता नही होती. यह निर्मल और सहज बुद्धि से दुनिया को देखने का प्रयास है. दर्शन की इस समझ के साथ इस उद्देश्य से देखने कि दुनिया को बेहतर बनाने के लिए आज मनुष्य और समाज की शक्ति के स्रोत क्या हैं और कहाँ हैं ?
- सहज बुद्धि और शक्ति के स्रोत दोनों उतने ही परिवर्तनशील होते हैं जितना परिवर्तनशील सामान्य समाज व जीवन होता है. इसलिए यहाँ दर्शन के वे रूप सामने आते हैं, जिन्हें किन्हीं पूर्व मान्यताओं के अंतर्गत समझना अथवा स्थापित करना एक असहज कार्य होगा.
- बहुजन समाज की दर्शन परम्परा संत परंपरा में अपनी सुन्दर अभिव्यक्ति पाती है. यह समाज के निर्माण और पुनर्निर्माण की वह परम्परा है जिसे सत्य के निर्माण और पुनर्निर्माण के रूप में भी देखा जा सकता है तथा इसमें वर्तमान अध्ययन के सन्दर्भ का एक महत्वपूर्ण पक्ष देखा जाना चाहिए.
- आधुनिक दुनिया में ‘ज्ञान’ और ‘अस्तित्व’ का अलगाव साइंस, पूंजी और राज्य के उद्भव के काल से होता है। इन्हें ‘सामान्य जीवन’ के उल्लंघन के मुख्य स्रोतों के रूप में देखने से उस ओर बढ़ने के रास्ते खुलते हैं जहां ज्ञान और अस्तित्व अलग नहीं होते। तब लोकविद्या और सामान्य जीवन अविभाज्य दिखाई देते हैं। एक के बिना दूसरे का संज्ञान संभव नहीं है। सामान्य जीवन वह स्थान है जहाँ लोकविद्या होती है और लोकविद्या वह है, जिसे सामान्य जीवन में ज्ञान कहा जाता है। यानी समाज में एक व्यापक आमूल बदलाव का आन्दोलन अर्थात एक बुनियादी राजनीतिक आंदोलन लोगों के ज्ञान आंदोलन से अलग नहीं हो सकता। यही ज्ञान आन्दोलन स्वदेशी दर्शन और स्वराज के बीच की कड़ी है.
6. अनुसंधान की पद्धति
- इस अनुसंधान का घर किसानों और कारीगरों के बीच होगा, रोज़ की कमाई करने वाले ठेले-गुमटी-पटरी वालों तथा मजदूरों के बीच होगा, बड़े पैमाने पर स्त्रियों के विचारों, कार्यों, अनुभवों में होगा, एक शब्द में कहें तो उनके जीवन में होगा. देश की मुख्यधारा से सबसे ज्यादा कटे हुए आदिवासी समाज के लोग हैं और इस अनुसन्धान में उनके जीवन और तौर-तरीकों का बड़ा स्थान होगा.
- संतों के अनुयायियों से बातचीत शोध का एक प्रमुख हिस्सा होगा. जैसे गोरखनाथ, गुरुनानक, कबीर साहब, संत रविदास, संत तुकाराम, बासवअन्ना और तमिल, मलयालम, तेलुगु, उरिया, बंगला, तथा विविध प्रदेशों के संत.
- यह अनुसंधान मोटे तौर पर बहुजन ज्ञान संवाद होगा, जिसकी एक मूल मान्यता यह होगी कि बहुजन समाज एक ज्ञानी समाज है तथा यह अनुसंधान उसके ज्ञान को नए समकालीन रूपों में प्रस्तुत करेगा.
- बहुजन-समाज के व्यावहारिक ज्ञान, वस्तुओं को बनाने के शिल्प और कला से तो सब परिचित हैं तथापि इन दक्षताओं की पृष्ठभूमि में इनका अपना दर्शन होता है. यह संवाद इस दर्शन को सार्वजनिक पटल पर प्रस्तुत करने के रास्ते बनाएगा.
- यह अध्ययन संवाद के रूप में किया जायेगा. तरह तरह के संवाद. एक-एक व्यक्ति से अलग-अलग बात करना, समूह में चर्चा करना, स्थानीय बाज़ारों और गांवों तथा बस्तियों को इस अध्ययन की दृष्टि से गहराई से देखना, रिसर्च करने वालों द्वारा एक दूसरे का स्थान लेते रहना व आपस में विस्तार से चर्चा करना आदि.
- सामान्य लोगों के साथ वार्ता का एक बड़ा हिस्सा इस बात का होगा कि प्रयास के साथ उन्हें लोकस्मृति, कुलस्मृति, ग्रामस्मृति आदि के संसार में ले जाया जाये और स्मृति के उन विश्वों में उत्खनन (excavation) के लिए प्रेरित किया जाये. यह एक महत्वपूर्ण प्रयोग होगा और यदि इसके जरिये सामान्य जीवन में संगठन, प्रबंधन, व्यवस्था और ज्ञान के प्रश्नों पर कुछ नया प्रकाश पड़ता दिखाई दे तो इसका विस्तार किया जायेगा. अध्ययन के दौरान इसकी जांच सतत चलती रहेगी. इस जांच का रूप भी प्रमुखतः लोगों से और आपस में वार्ता, गहराई से चिंतन और संत परंपरा से सन्दर्भों के मार्फ़त आकार लेगा.
- इन विषयों पर लिखित शब्द की खोज होगी. इसके प्रमुख रूप से निम्नलिखित स्रोत हैं.
- संत वचन और कार्य
- भाषाई साहित्य. उदाहरण के लिए हिंदी क्षेत्र में प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, हजारीप्रसाद, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, शुकदेव सिंह आदि.
- अंग्रेजों द्वारा किये गए लेखन, जो उनके लेखकों के हो सकते हैं अथवा शासन की (सर्वेक्षण) रिपोर्ट के रूप में हो सकते हैं.
- सामाजिक पंचायतों/संगठनों की कार्यवाही की रिपोर्टें.
- प्रमुख जन आन्दोलन और उनके विचार, प्रेरणा, मुद्दे और संगठन के प्रकार
- भाषा, कला और दर्शन की दुनिया के विवरण.
- सक्रिय कर्म: इस शोध का एक हिस्सा सक्रिय कर्म का होगा. विशेष रूप से लोकविद्या आंदोलन, बौद्धिक सत्याग्रह और ज्ञान पंचायत तथा इस शोध कार्य के बीच जीवंत लेन-देन का सम्बन्ध होगा.
7. वित्त
कितने पैसे की ज़रूरत पड़ेगी और कहाँ से आयेंगे इसका अनुमान अभी नहीं है. विद्या आश्रम अपने अनुदान से एक बहुत छोटी-सी शुरुआत कर सकता है. इसलिये इस रीसर्च प्रोग्राम के लिए आवश्यक वित्त और उसके स्रोतों के बारे में अपने उन मित्रों से बात करनी है जो वित्त प्रबंधन करते रहे हैं.
pdf: शोध-प्रस्ताव-2024-25
Girish Sahasrabudhe (12 Mar 2024)
The new redesigned VA website was launched in the last week of October 2023.
Our earlier website was based on a free WordPress theme and hosted on a WordPress server. It used one of the WordPress hosting plans which meant restrictions on usable WordPress capabilities. The new site also uses a third-party designed WordPress theme (Dynamism) that we have purchased. It is now hosted on a non-Wordpress server and uses the free WordPress software installed on the server. This allows free use of WordPress capabilities without any bar on the plugins, extentions, elements, etc that we can use. The theme we have is rich enough for all our forseeable needs.
We paid Rs 20000 for the new website design including (cost of the template) plus an annual recurring amount of Rs 5800 toward site hosting (server space), security (https) and domain name.
Almost all the content – apart from a few documents – on the old website is there on the new site. It is organized differently, but is probably more accessible because of multiple navigation routes. The Gallery page needs many additions in terms of past events / photos. Each Gallery entry was planned to have linked text document (pdf/html) – like, for example, the “Read More” link on https://www.vidyaashram.org/gallery/#KabirJayanti2023. This is still not done.
The daily maintenance of the website does not require any outside help. We can modify existing pages, use any of the page templates provided in the theme to add any number of new pages we want, design new pages as we like, use a large number of capabilities in terms of built-in elements and plug-ins, add free plug-ins at will, etc. As of now I am maintaining the website from home, spending much less than an hour a day on an average. Unfortunately, We do not have the statistics of page views, visitors etc, which we should keep track of. I have to see what to do about this.
In the coming weeks I suggest that we focus on:
- Design a new page for Lokavidya Research Program / Bahujan Knowledge Dialogue. This will contain the basic Statement on the Program, and statements, reports, publications, proposals, ideas, contributions made by all associated with Vidya Ashram / LJA etc as well as information of / links to / audios, videos of events organized. The idea is to maintain this as an active page to bring out the significance of the Program in the Knowledge Dialogue we wish to further. Suggestions are needed from all of us on this.
- Develop a strong multilingual aspect to the website by adding text / audio / video content in multiple languages. This naturally helps the above Research Program. It obviously also helps attract more people to the website. Most importantly it adds distributed content with hopefully creating Lokavidya and Knowledge Dialogue discourse and vocabulary in several languages. This is possible only with some active thinking on how to achieve this. Each of us should take charge of a language to organize this.
विद्या आश्रम (Mar 2024)
- लोकविद्या जन आन्दोलन
- वाराणसी से प्रमुख रचनात्मक कार्यक्रम वाराणसी ज्ञान पंचायत, वार्ड ज्ञान पंचायत, सुर साधना, लोकनीति संवाद, दर्शन अखाड़ा और प्रकाशन के इर्द-गिर्द होंगे। इनके बारे में कुछ विवरण विद्या आश्रम की वार्षिक रिपोर्ट 2023-24 में उपलब्ध है। लोकविद्या जन आन्दोलन (लोजआ) के कार्यों को मुख्य रूप से वाराणसी से चित्राजी, लक्ष्मण प्रसाद, फजलुर्रहमान, हरिश्चन्द्र, रामजनम मिलकर करेंगे.
- कोलकाता से बांग्ला में लोकविद्या ज्ञान संवाद विकसित करना। इसे अभिजित मित्रा आकार दें.
- लोजआ गतिविधियों को विविध स्थानों के सामाजिक आंदोलनों के साथ जोड़कर विकसित किया जाएगा. झाँसी (कृष्णा गांधी), नागपुर (गिरीश), इंदौर (संजीव), चिराला (मोहन राव), बेंगलुरु (सुरेश), कोलकाता (अभिजीत), संजान, वलसाड (सुनील छाबड़ा) आदि स्थानों से स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से इसका विस्तार किया जा सकता है.
- प्रकाशन
- प्रत्येक मंगलवार की ऑनलाइन बैठकों के रेकार्ड से लगभग 200 पृष्ठों की एक पुस्तक तैयार हो। जो लोग हिंदी पढ़ते हैं, वे हिंदी के लेखक कृष्ण कल्पित द्वारा रचित ‘हिंदनामा’ देख सकते हैं। हमारी पुस्तक का प्रारूप कुछ इसके समान हो सकता है, जिसका अर्थ है कि हममें से कई लोग किसान आंदोलन, स्वायत्तता, स्वराज, लोकविद्या, समाज और आय आदि जैसे विविध विषयों पर नोट्स लिख सकते हैं। इसे गांधी और गिरीश मिलकर संगठित कर सकते हैं.
- ‘21वीं सदी में स्वराज’ पर एक पुस्तक का संगठन और प्रकाशन वाराणसी से किया जाएगा। इसके जरिये स्वराज की दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन की एक एजेंसी के रूप में किसान-समाज को देखने पर बातचीत शुरू की जाएगी.
- लोकविद्या, स्वराज और महात्मा गांधी पर नरेश द्वारा एक सारगर्भित पेपर हो जिसे विद्या आश्रम की पुस्तिका का रूप दिया जायेगा.
- भारत के संतों और उनके द्वारा बनाई गई मजबूत दार्शनिक परंपरा पर एक पुस्तक का प्रकाशन हो. कृष्णराजुलु और लक्ष्मण प्रसाद इसकी ज़िम्मेदारी ले सकते हैं.
- अनुसन्धान कार्यक्रम :
- सुरेश और सिवरामकृष्णन द्वारा संचालित लोकविद्या-समाज अध्ययन पर बेंगलुरु से एक रिपोर्ट बनेगी. रामजनम और फ़ज़लुर्रहमान इनके साथ संवाद में रहेंगे ताकि नया सीखे और योगदान भी कर सकें.
- विद्या आश्रम, सारनाथ से सामान्य जीवन, बहुजन समाज और परिवर्तन की दिशा पर एक शोध कार्यक्रम विकसित किया जाएगा। इसे सुनील, अविनाश और आर्यमान मिलकर संगठित कर सकते हैं.
- सोशल मीडिया : सोशल मीडिया पर उपस्थिति सुनिश्चित एवं विस्तारित की जायेगी। गिरीश और हरिश्चंद्र मिलकर इस पर कार्य कर सकते हैं.
Excerpt from WSF 2024 Kathmandu Booklet (13 Feb 2024)
Struggles against the violation of ordinary life may be said to constitute the political in an emancipatory sense.
State, Science and Capital are the sources of violation of ordinary life in the contemporary world. So, struggles against Science, against Capital and against the State constitute emancipatory activities. In common parlance they will be radical political activity. But there arises a strange situation thereby. That activity is thus called political activity which aims at uprooting the political society. Political society is the one which has emerged with the appearance of Science, Capital and the State. By now almost all language, at least the language of the public domain, is largely the language of this political society. So properly speaking emancipatory struggles are not political struggles and yet they are ‘called political struggle’ in common parlance.
This terminological or linguistic problem is solvable maybe in the context of a radical knowledge movement. So if one wants to do or talk of politics in the emancipatory sense then one must locate his/her activity and discourse in a knowledge movement. Some of these things become very clear when we see these things happening during Gandhi’s time. We may see Gandhi as the builder of a new knowledge movement and a new political movement, both of which may be justifiably called emancipatory movements.
If we see this country as divided between India and Bharat then all politics after Independence represents India. If you see Science, State and Capital intertwined with one another you would be seeing India. Politics worth the salt would be produced perhaps by coming together of a knowledge movement of the people, a lokavidya movement and an assertion by the people that ordinary life needs to be restored to its pre-eminent status.
In the modern world separation of ‘knowledge’ and ‘being’ again dates back to the period of emergence of Science, Capital and the State. Seeing them as chief sources of violation of ordinary life, also gives us that conceptual space where knowledge and being are not separated. Lokavidya and ordinary life are then inseparable. Cognition of one without the other is not possible. Ordinary life is the only dwelling that lokavidya knows and lokavidya is what knowledge in ordinary life is called. Then we will see that an emancipatory political movement is not separable from a peoples’ knowledge movement.
Bharat and India may be seen as each being in the other. One can easily point out various aspects of life and aspirations in Bharat which are similar to the life and aspirations in India and conversely, see various aspects of life in Bharat spread out in India. The idea of ordinary life is to bridge the divide not to create a new one. Ordinary life is not just the life of ordinary men and women, it is ubiquitous. The sant-parampara (Saint Tradition) is the tradition of creation and re-creation of ordinary life in thought and in practice in ever new circumstances (of violation, marginalization, suppression etc.).
चित्रा सहस्रबुद्धे (20 Jan 2024)
लोकविद्या जन आन्दोलन, वाराणसी lokavidyajanaandolan.blogspot.com
ज्ञान पंचायत का विचार लोकविद्या आन्दोलन के द्वारा सामने आया है। इस लेख में इस विचार को खोलने विविध कार्यों के तहत इसके विकास के कुछ पक्षों को उजागर करने के प्रयास हैं.
समाज में ज्ञान के रूप और सम्बन्ध
लोकविद्या यानि समाज में बसा ज्ञान, लोकस्थ ज्ञान और इस ज्ञान की प्रतिष्ठा का आंदोलन लोकविद्या जन आंदोलन है। समाज के सामान्य लोग, स्त्री या पुरुष, जिस ज्ञान के बल पर अपनी और समाज की ज़िंदगी चलाते हैं, वह लोकविद्या है। ज़िंदगी को चलाने का अर्थ है, जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों से जुड़े अनेकानेक पक्षों के अस्तित्व, भूमिका, आपसी सम्बन्ध और उनके परीणामों के प्रति सजग दृष्टिकोण का सतत् विकास। सामान्य जीवन में तर्क, कार्य और परिणाम को जांचने की कसौटियां लोकविद्या के बल पर गढ़ी जाती हैं, जीवन के सर्वोच्च मूल्य और आदर्श की मान्यता और उसे पाने के मार्ग भी बनाये जाते हैं।
लोकविद्या जीवन और समाज दोनों को समृद्ध बनाने की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसे यूं समझें कि लोकविद्या समाज में बहती ज्ञान धाराओं का समुच्चय है, जो सतत् अपने दायरे को विस्तारित और संकुचित करता रहता है, नवीन ज्ञान धाराओं को समाहित करता है और मृत तथा विनाशकारी धाराओं को त्यागता या नियंत्रित करता है। ये धारायें अपनी स्वायत्त पहचान रखतीं हैं और लोकविद्या में समाहित रहती हैं; ठीक उसी तरह जिसतरह गंगाजी में अनेक जलधारायें मिलकर गंगा हो जाती हैं। लोकविद्या की प्रकृति बंधे या ठहरे पानी की नहीं है, यह सतत् गतिशील और नवीन है।
इन ज्ञान-धाराओं के बीच भाईचारे का रिश्ता समाज को ज्ञानमय, न्यायपूर्ण और सक्रिय बनाता है। समाज की समृद्धता, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों, का आधार इस भाईचारे के प्रगाढ़ होने से सीधा सम्बन्ध रखता है।
जबसे आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ है, बड़े-बड़े विश्वविद्यालय और स्कूल बने हैं, तब से ज्ञान पर बहस बंद हो गई है। इन सभी शिक्षा स्थानों पर आधुनिक ज्ञान यानि साइंस और साइंस आधारित दृष्टिकोण से पठन-पाठन होता है। साइंस आज के समय का सबसे अधिक संगठित ज्ञान है तथा ज्ञान के क्षेत्र पर उसका एकाधिकार है। समाज में बहतीं ज्ञान धाराओं यानि लोकविद्या को यह तुच्छ करार देता है। ज्ञान के क्षेत्र में ऐसी ऊंच-नीच समाज में ऊंच-नीच और अन्याय को बढ़ाती है।
ज्ञान पंचायत इस अन्यायपूर्ण स्थिति से निकलने के रास्तों की खोज का सामाजिक स्थान है। एक ऐसा स्थान है जहां विविध ज्ञान धाराओं के ज्ञानी आते हैं और ज्ञान वार्ता करते हैं। ज्ञान पंचायत इसतरह ज्ञान पर जन सुनवाई का स्थान कहा जा सकता है। यहां विविध ज्ञान धाराओं और ज्ञानियों में ऊंच-नीच नहीं की जाती और सभी को बराबरी का दर्जा तथा सम्मान है; ग़रीब-अमीर, स्त्री-पुरुष, किसान-प्रोफेसर, कारीगर-इंजीनीयर, दुकानदार-सरकारी कर्मचारी, सभी को अपनी बात और विचार रखने का बराबर का अधिकार है। इन परिस्थितियों में ज्ञान पंचायत विविध ज्ञान-धाराओं के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों को बनाने का स्थान है. यह संगठित और लोक ज्ञान के बीच बराबरी और भाईचारे के संबंधों को विकसित करने का स्थान है.
ज्ञान पंचायत में ज्ञान से जुड़े तमाम पहलुओं पर बात होती है और इनके लिए सत्य, न्याय और भाईचारे की कसौटियां क्या हों इस पर विचार होता है। आवश्यकताएं, संसाधनों की उपलब्धता, हुनर एवं प्रबंधन के प्रकार, प्रक्रियाओं के परीणाम और इनके स्थानविशेष की जलवायु, जीवों और समाज पर प्रभाव इत्यादि सभी पक्षों पर वार्ता हो सकती हैं। लेकिन इन ज्ञान वार्ताओं का लक्ष्य विविध ज्ञान धाराओं की सहभागिता को बनाने और न्याय तथा भाईचारे की डोर को मज़बूत करने में है। इस तरह ज्ञान पंचायतें समकालीन सत्य के उद्घाटन और बौद्धिक सत्याग्रह के स्थान भी बनते हैं.
ज्ञान पंचायत समाज में एक ज्ञान आंदोलन का आग़ाज़ करता है। एक ऐसा ज्ञान आंदोलन जो समाज में बसी विविध ज्ञान धाराओं के बारे में, उनके आंतरिक तर्क, जीवन मूल्यों, क्षमता और सीमाओं पर वार्ता को महत्वपूर्ण मुद्दा बनाता है, आपसी लेन-देन से ज्ञान-धाराओं को समृद्ध होने के अवसर देता है और समाज में सभी की सहभागिता की बुनियाद बनाता है।
मनुष्य गतिविधि के हर क्षेत्र में कार्यों को सीखने, करने और उन्हें संगठित करने आदि में आज यह मान लिया गया है कि आधुनिक साइंस आधारित ज्ञान और तकनीकी सबसे उत्तम प्रकार है; हर छोटे बड़े उद्यम में इसीने पैर फैला लिया है। ऐसा करने में अन्य अनेक ज्ञान धारायें खत्म होती हों और समाज के ताने-बाने अगर ध्वस्त भी होते हों तो उसे नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। इसी प्रक्रिया में अनेक ज्ञान-धाराओं को ज्ञान मानने से ही इनकार किया जाता है. पर्यावरण प्रदूषण, गांवों और शहरों से सामान्य लोगों का विस्थापन, गरीबी और बेरोज़गारी, आदि संकट इसी प्रक्रिया की देन हैं. ज्ञान पंचायत ज्ञान-धाराओं की स्वायत्तता का पक्षधर हैं. विविध ज्ञान धाराओं के ज्ञान के इस्तेमाल की भूमिका और पैमाने भी ज्ञान पंचायत वार्ता का विषय बनाती है. इसके लिए आवश्यक कसौटियों की खोज करने और उन्हें गढ़ने का दिशाबोध कराने का स्थान भी ज्ञान पंचायत है. तुरंत और दूरगामी हितों को संज्ञान में लेकर सामाजिक भाईचारा के ताने-बाने को मज़बूत करने में मददगार हो, ऐसे न्यायपूर्ण मार्गों को चिन्हित करने में ज्ञान पंचायतों की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है. विविध स्थानों की ज्ञान पंचायतों का दायरा, रूप, विषय और कार्य अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन मौलिक रूप में ये ज्ञान पंचायतें समाज की ज्ञान-धाराओं का संगम स्थल हैं और यहाँ से हर ज्ञान-धारा को और उससे जुड़े समाजों को ज्ञान का दावा करने का हक है.
लोकविद्या जन आन्दोलन की पहल
लोकविद्या जन आंदोलन ने पिछले दस बारह वर्षों में कई स्थानों पर और कई मुद्दों पर ज्ञान पंचायतें आयोजित की जिनमें वाराणसी, दरभंगा, सिंगरौली, इन्दौर, नागपुर, औरंगाबाद, बंगलुरु, मुंबई, आदि मुख्य हैं. ये ज्ञान पंचायतें विविध नामों से हुई, जैसे किसान ज्ञान पंचायत, कारीगर ज्ञान पंचायत, किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत, महिला ज्ञान पंचायत, “विश्वविद्यालय की दीवारें गिरनी चाहिए” नाम से हुई ज्ञान पंचायत, बिजली ज्ञान पंचायत, स्वराज ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत, वाराणसी ज्ञान पंचायत, वार्ड ज्ञान पंचायत आदि. सबसे अधिक किसान ज्ञान पंचायतें और कारीगर ज्ञान पंचायतें हुईं. वाराणसी और इसके आस-पास के जिलों में ऐसी ज्ञान पंचायतों का क्रम जारी रहा जिनमें तत्कालीन समस्याओं जैसे नोटबंदी का सामान्य लोगों पर आया संकट, फसल बिक्री केन्द्रों की व्यवस्था, महंगे और नपुंसक बीज का बाज़ार आदि विषयों को लिया गया. कुछ बड़ी-बड़ी ज्ञान पंचायतें हईं, जिनमें किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत और स्वराज ज्ञान पंचायत मुख्य हैं. वाराणसी में वर्ष 2014 से लगभग हर वर्ष अश्विन पूर्णिमा के दिन किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत हुईं जिनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी के आस-पास जिलों के अलावा आन्ध्र प्रदेश के चिराला जिले से और मध्य प्रदेश के इंदौर और सिंगरौली जिले के किसान और कारीगर समाजों की भागीदारी हुई.
सबसे पहली ज्ञान पंचायत किसान समाजों के बीच ”बिजली ज्ञान पंचायत” के नाम से हुई. वाराणासी और आस-पास के जिलों से किसान संगठन, किसान और कारीगर समाजों ने शिरकत की. किसानों ने बिजली आपूर्ति में गांवों और शहरों के बीच भेदभाव का व्यवहार किस तरह से किया जाता है, इसे पंचायत में रखा और इसे हल करने के रास्तों को भी सामने लाया. वार्ता के बाद दो बातें सामने आईं. पहली यह कि बिजली यह शिक्षा, चिकित्सा, पानी, और वित्त की तरह ही एक राष्ट्रीय संसाधन है और इस पर ग्रामीण समाजों का बराबर का हक है तथा बिजली आपूर्ति की एक न्यायपूर्ण नीति बनाई जानी चाहिए. दूसरा, बिजली आपूर्ति की न्यायपूर्ण नीति जब तक नहीं बने तब तक बिजली उत्पादन के नए प्लांटों के निर्माण पर रोक लगनी चाहिए.
वर्ष 2009 में शिक्षा के आधुनिक किलों की व्यवस्था पर “विश्वविद्यालयों की दीवारें गिरनी चाहिए” नाम से ज्ञान पंचायत हुई. इस ज्ञान पंचायत में किसान, कारीगर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. विश्वविद्यालय की दीवार को विविध ढंग से लोगों ने परिभाषित किया. ईंट सीमेंट से बनी यह दीवार समाज में बहुत बड़ी गैर-बराबरी पैदा करती है. यह दीवार केवल भौतिक रूप में ही नहीं है बल्कि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषा और ज्ञान, जीवन शैली और जीवनमूल्यों, लिंगभेद आदि की; अनेक दीवारों के सिलसिले का प्रतिनिधित्व करती है. इतनी सारी दीवारों को लांघ पाना सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं है. इस ज्ञान पंचायत में “विश्वविद्यालय की दीवार गिरनी चाहिए” का अर्थ यह उभर कर आया कि संगठित विद्या और समाज में बसी विद्या के बीच लेनदेन में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए और बराबरी तथा भाईचारे का सम्बन्ध होना चाहिए.
लोकविद्या जन आन्दोलन के कार्यकर्ताओं के बीच हुई अनेक वार्ताओं में यह बात उभर कर आई कि लोकविद्या और कलाओं में जो ज्ञान है उसमें तर्क, मूल्य और रूप के आधार बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं. इस विचार ने कला ज्ञान पंचायतों को आयोजित करने का मार्ग खोला. वाराणसी के अलावा मध्य प्रदेश में इंदौर और महाराष्ट्र में औरंगाबाद तथा मुम्बई में ये ज्ञान पंचायतें आयोजित की गईं. कला ज्ञान पंचायतों के आयोजनों से कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर आईं. एक तो यह कि कलाकर्म ज्ञान का वह सर्वसुलभ मार्ग है, जिसमें सामान्य व्यक्ति दुनिया के बारे में अपनी समझ साझा करता है और इसके लिए उसे विशेष शिक्षा की दरकार नहीं होती. दूसरा, संवेदना यह ज्ञान का अन्तर्निहित गुण है. कला ज्ञान पंचायतों से जो महत्वपूर्ण सन्देश निकल कर आया वह यह कि संगठित ज्ञान और लोकविद्या में भाईचारे के संबंधों का सृजन करने में संत दर्शन की परम्पराएँ एक पुख्ता मार्ग प्रदान करती हैं. वास्तव में संत दर्शन की परम्पराएँ इस देश में ज्ञान-पंचायतों की परम्पराओं को ही उद्घाटित करती हैं. आधुनिक ज्ञान की व्यवस्थाओं ने सामान्य लोगों से ज्ञान संवाद की अनिवार्यता को ख़त्म कर दिया. संत परंपरायें सामान्य जीवन को ज्ञान और कर्म का प्रमुख स्थान बनाती रही हैं. यही दार्शनिक संवाद का स्थान भी रहा. वर्ष 2021-23 के ऐतिहासिक किसान आन्दोलन ने इस सोच को मज़बूती दी.
किसान कारीगर पंचायतों का सिलसिला पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में और सिंगरौली तथा इंदौर के आस-पास चला. औद्योगीकरण, शहरों का विस्तार, लोकविद्या समाजों के विस्थापन का दौर पिछले दशक फिर से तेज़ हुआ. ऐसे में ज्ञान पंचायतों ने जल-जंगल-ज़मीन के आन्दोलनों को ज्ञान-धाराओं और उन धाराओं के बल पर जिंदा रहने वाले ज्ञानी समाजों को ख़त्म करने के विरोध का आन्दोलन करार दिया. किसान और कारीगर समाजों की अलग-अलग और संयुक्त पंचायतें भी हुईं. इन ज्ञान पंचायतों में इन समाजों ने लोकविद्या का दावा पेश किया. अधिकांश ज्ञान पंचायतों से मुख्य दो बातें उभर कर आईं. पहली यह कि समाज को गरीबी, बेरोज़गारी और अज्ञानता से मुक्ति का रास्ता लोकविद्या को बराबर के ज्ञान का दर्जा मिलने में है और दूसरा, किसान और कारीगर समाजों के हर परिवार में सरकारी कर्मचारी के जैसी पक्की, नियमित और बराबर की आय होनी चाहिए और इसे सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सरकारों को उठानी चाहिए.
लोकविद्या को ज्ञान का दर्जा मिलें इस दावे ने स्वराज ज्ञान पंचायतों को आयोजित करने के मार्ग खोले. लोकविद्या के दावे मूर्त रूप लें इसके लिए समाज-संगठन के ऐसे प्रकारों पर विचार क्रियाओं को बल मिला जो लोकविद्या-समाजों के जीवनमूल्य और तर्क के प्रकारों को समाहित करें. संत दर्शन में ऐसे समाज संगठनों के संकेत मिलते हैं. जैसे कबीर का अमरपुरी, रविदास का बेगमपुरा, बासवान्ना का कल्यानपुरी, तुलसीदास का रामराज्य और गांधी का स्वराज. इन सभी में निश्चित ही कुछ भिन्नता होगी लेकिन इन सभी का ज्ञानगत आधार लोकविद्या के समकालीन रूपों में बसा है. इस सोच ने मुख्यत: वाराणसी में स्वराज ज्ञान पंचायतों का सिलसिला शुरू किया. इन ज्ञान पंचायतों के तहत भारत के लोकविद्या-समाज (बहुजन समाज) की राज परम्पराओं, लोकपराम्पराओं और दर्शन परम्पराओं को वार्ता का विषय बनाया और आधुनिक समाज-संगठन के बुनियादी अंतर्विरोधों के निराकरण के लिए दिशाबोध को हासिल करने के प्रयास हुए.
इस दिशा में ‘वाराणसी ज्ञान पंचायत’ और ‘वार्ड ज्ञान पंचायत’ गढ़ने के प्रयासों का उल्लेख किया जा सकता है.
वाराणसी ज्ञान पंचायत को वाराणसी के निवासियों की ज्ञान पंचायत के रूप में विकसित करने के प्रयास हुए है. यह वाराणसी के लोगों, स्त्री-पुरुषों का ज्ञान मंच है. इस मंच की मान्यता है कि हर मनुष्य, स्त्री और पुरुष, ज्ञानी है. यह ज्ञान पंचायत ज्ञान पर जन-सुनवाई का रूप भी है. वाराणसी ज्ञान पंचायत, वाराणसी की व्यवस्थाओं को गढ़ने में सभी समाजों के ज्ञान की भागीदारी और सभी के ज्ञान को बराबर की प्रतिष्ठा का आग्रह करती है. इसकी एक आयोजन समिति है, जो नगर में अलग-अलग स्थानों पर ज्वलंत मुद्दों पर विमर्श को आकार देती है और एक छोटी पत्रिका ‘सुर साधना’ के नाम से प्रकाशित भी की जाती है. अभी तक इसा पत्रिका के चार अंक प्रकाशित किये जा चुके हैं. वाराणसी ज्ञान पंचायत में रूचि लेने वाले समर्थक लोगों का एक व्हाट्सएप समूह भी बना है.
हाल ही में नगर निगम के चुनाव के अवसर पर वाराणसी ज्ञान पंचायत ने लगभग डेढ़ माह तक घाटों पर ‘लोकनीति संवाद’ के नाम से विमर्श चलाया. इस विमर्श में अनेक प्रश्नों पर विचार हुआ. लोकनीति बनाम राजनीति, स्थानीय निकायों की नगर और नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी, लोकविद्या और लोकनीति के बीच अन्योन्याश्रित रिश्ता, नगर विकास और व्यवस्थाओं में विविध ज्ञान-धाराओं के समावेश का आग्रह, नगर की नैतिक विरासत और दर्शन, गाँव-शहर के बीच सम्बन्ध, नगर का धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना, जैसे विषयों की वैचारिकी के प्रकाश में नगर का पर्यावरण, गंगाजी और घाटों की स्वछता और रखरखाव, मल्लाहों और नाविकों के विस्थापन का सवाल, नगर में ऑटो चालकों की परेशानियाँ, सीवर और कूड़े का निस्तारण आदि जैसे दैनिक जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति पार्षदों के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को संवाद में स्थान मिला. विविध विचारधाराओं, कार्यक्षेत्रों और संस्थाओं से जुड़े शहर के व्यक्तियों ने इस विमर्श में हिस्सा लिया. ये विमर्श गंगाजी के घाट पर खुले में ही आयोजित की गईं और लोक, सार्वजनिकता और लोकनीति के अर्थों के समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या के प्रयास हुए. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह रही कि इन संवादों से ‘वार्ड ज्ञान पंचायतों’ को गढ़ने का विचार चर्चा में आया. वार्ड ज्ञान पंचायत एक वार्ड के विविध समाजों की ज्ञान पंचायत होगी जो अपने वार्ड की व्यवस्थाओं को समाजों के ज्ञान की भागीदारी के साथ प्रबंधन का ज्ञान आधार बनाने की ओर बढ़ेगी. कम से कम दो वार्डों में ज्ञान पंचायत गढ़ने के कार्यक्रम हाथ में लिए गए.
J K Suresh (15 Jan 2024)
Points raised by Chitraji:
Point 1: The title of the thinking about Survey proposal is ‘Study of Lokavidya Samaj – The Rationale’. It seems to me that greater clarity is needed regarding the recognition / identification of the Lokavidya Samaj. Lokavidya Samaj is not the traditional / tradition-bound samaj. Nor is it merely the rural, or a caste-delineated Samaj.
We have raised this question before on the nature and composition of the Lokavidya Samaj. Are the millions who live in cities, e.g., the auto drivers, housemaids, the Swiggy/ Zomato delivery boys, etc. not a part of the Lokavidya Samaj? What can we say about absentee landlords, coffee plantation owners, people with large tracts of lands who buy expensive cars, send their children abroad for studies, etc.?
It appears therefore that it is not easy to create an effective geographical, income based, or occupation/work-based delineation of the Lokavidya Samaj. Any attempt to do so will have to deal with a fair amount of imprecision and unclear boundaries. However, this does not mean that no outlining will work. We need to make appropriate assumptions whenever we make such distinctions and in this case, we have chosen to look at village/ small town society and aim to discover what their state is.
By the way, in our proposal, no assumptions are made here that these sections constitute the Lokavidya Samaj just because they are considered to be traditional, rural or caste based. We survey them only because we believe that they broadly make up the Lokavidya Samaj.
Point 4: The purpose of a survey like the proposed one needs to be to gather together the knowledge and strengths of samaj’s making up the Lokavidya Samaj as well as to expose the paradigms constructed to exploit this knowledge and these strengths to the detriment of the Lokavidya Samaj
How one may be able to discover and describe the knowledge and strengths of the Lokavidya Samaj is a challenge that we will have to break down to arrive at the structure of the Part 2 of the survey.
However, exposing the paradigms constructed to further enslave the Samaj will not be a part of the survey.
Points 2, 3 and 5 are not directly related to the survey although an awareness of the points will help us survey better.
Point 6, viz., “The methods of survey should incorporate ‘collective dialogue’”, needs to be analyzed for situations where it works and where it does not. This will occupy our attention when the design of Part 2 of the survey is made.
Points raised by Budhey:
- What are the advantages of the method of questionnaire filled by college students whose parents are in Lokavidya Samaj? As far as I remember, the only advantage mentioned so far is convenience of the investigators. This, though, can hardly be called an advantage, Not just this but it can be extremely misleading or even harmful. The college students’ information base, knowledge, values and way of thinking will, in all probability, be very different from their parents. To get square with my years of mis-trust of the questionnaire method, I went to google-search (which is perhaps not the best thing to do) and found that ‘A questionnaire is a research tool used to conduct surveys. It includes specific questions with the goal to understand a topic from the respondents’ point of view’ (italics mine).
Background
It is to be noted that the background to the survey has already been shared with members of the group over the previous several meetings. Yet they are worthy of recall here, especially in view of the questions raised in the last couple of meetings.
There are two parts to the survey: The first uses a questionnaire for us to obtain a broad understanding of life today, and thereby help us estimate how ordinary life has changed over the previous, say, 60 years. The questionnaire will address their living conditions, material possessions, the structure of the family, and their habits in terms of what they eat, consume and experience. Further questions will hopefully reveal the strength of their caste, community, extra- and intra-Village occupations and relationships. The questionnaire will be largely objective and try to avoid false negatives and false positives in the answers.This phase will provide a broad picture of the social life of the Samaj based on inputs from a few thousand students.
The second part of the survey would be a narrower survey involving our speaking to a cross section of people in a few villages. In this part, we will raise questions related to what their notion of a good life is, how they think they can achieve it, their ideas about Nyaya, Bhaichara, Swaraj, governance and the gulf between the village and the City, etc.; also questions related to their strengths and locations of resistance as they perceive it, and so on; not by asking direct questions on many of these points but in a roundabout way. Not much thought has gone into this part yet. We will come back to you later on this.
Responses
- In passing, it may be pointed out that the comment, “the only advantage mentioned so far is convenience of the investigators” seems to have taken our claimed advantage entirely outside the context in which it was stated. The central intent of the survey is, and has been since the beginning, to understand the state of the society in parts of rural Karnataka. However, the ability to have it served out to a few thousands of people, rather than a few hundred, is an additional advantage that this process offers. Obviously, this is not the sole feature of the survey. Nor should the description of it as a novel attempt detract from the merits of its essence.
- We now come to his main point, “Not just this but it can be extremely misleading or even harmful. The college students’ information base, knowledge, values and way of thinking will, in all probability, be very different from their parents”.
We are not clear how questions related to living conditions, material possessions or occupations of family members can be
- Either be misleading or harmful, or,
- In relation to the questions in part 1 of the survey, how it matters if the young students’ way of thinking is different from that of previous generations.
On the other hand,
- It is extremely likely that a majority of these students will remain a part of the Lokavidya Samaj in the future, along with their information base, knowledge, values etc.
- Therefore, it is best that they are considered a part of the Samaj, albeit of tomorrow.
- When we speak about Lokavidya or the Lokavidya Samaj as being dynamic, it demands that we learn from these youngsters to assess the changes they are undergoing.
- As regards the observation, ‘A questionnaire is a research tool used to conduct surveys. It includes specific questions with the goal to understand a topic from the respondents’ point of view’, we don’t have any disagreements. It is in fact a part of the plan.
- Someone said during the meeting that Lokavidya has been mainly understood as knowledge outside the university. This may have been said often to underline the location of lokavidya because the university is commonly seen as the chief location of knowledge and knowledge activity. However it must be said that our discourse on lokavidya describes and identifies various positive qualities and aspects of lokavidya. This discussion on lokavidya was started again, perhaps late in 2022 or early in 2023, questioning the basic validity of the idea of lokavidya anymore for understanding (the changes in) the world of knowledge and reality, and thereby providing a new way of thinking about and dialoguing on a new political imagination. In this context I had written a note titled ‘Revisiting Lokavidya’. This note was sent to this group by Girish on 18th Feb. 2023. There are five parts of that note.These are — The Point of Departure, II. Lokavidya and Ordinary Life, III. A Summary Statement on Lokavidya, IV. Milestones and V. Lokavidya Jan Andolan. Please take a look.
Responses
We believe that this point needs an elaborate response that touches upon the note in its entirety. For your convenience, we have attached the document sent on 28 Feb 2023 by Budhey, “Revisiting Lokavidya”.
Part II (Lokavidya and Ordinary Life) of the note describes ordinary life, the unconditional nature of Lokavidya in ordinary life, its epistemic strength, the opportunity it has to transform the world in the information age due to the newly erected centrality of Knowledge by and for the new ruling classes, its breadth of viewpoint, etc.
Yes, indeed. These are reasonable ideas. However, is Lokavidya the same as what it might have been in early 1900’s? How has it changed over the last few decades when momentous changes have impacted the very nature of power across the world? What is the nature and extent of Lokavidya Samaj’s transformation – in its ideas and practices – as a result of the structures that have arisen in recent decades to project a new idiom and practice of power, governance, production relations, exchange relationships, etc. in society? It is precisely in this context that the present study, we believe, would provide a “dip-stick” type of results that provide some knowledge about the changes in the Lokavidya Samaj.
Point (5) in this section says that, “Lokavidya standpoint is the people’s standpoint in the Age of Information”. It seems reasonable to expect that this standpoint changes with society in the course of changes to ordinary life over time. One of the aims of the survey is to attempt to assess precisely this aspect of the Samaj
Part III of the note, “A summary statement on Lokavidya”, explains that Lokavidya is ubiquitous in space and time, and that people who have not been to colleges/ universities are not ignorant. This seems to be a manner of identifying farmers, artisans, women, etc., who are not schooled, as part of what constitutes Lokavidya Samaj and with knowledge gained through lived experience.
Point (5) in this section is notable because it goes beyond knowledge to indicate how their thinking, abstraction, argumentation, values, ideas of organization, relationships with others and Nature, etc. constitute, along with their knowledge, their world of Lokavidya.
Again, our question is, what are these values which, along with their knowledge, help them imagine a world that is said to be amenable to Nyaya, Thyaga and Bhaichara? How does it vary with time in the context of new presentations of reality that confront them each day or year or decade? How do we understand this? Etc.
While it is unlikely that a survey will ever be able reveal all of these aspects, a few may be probed in the second part of our survey.
We now turn our attention towards section1 (I. The Point of Departure).
Point (2) in this section says, “Science has lost its place of absolute command and lokavidya (people’s knowledge) is getting new recognition.” Point (5) in the section says, “Challenges to Western hegemony have spread to the knowledge domain. Taken to its logical conclusion, there will be lokavidya contestations in every department of the university. A people’s knowledge movement that resides in the mass movements of people on the other side of the digital divide, alone can lead to a new philosophy of knowledge required for a radical pro-people transformation of society.”
Simply put, we would like to know, through a survey, how the above points are actually to be understood in the context of the life, beliefs, understanding and cognition of the Lokavidya Samaj.
Sunil Sahasrabudhey (14 Jan 2024)
As suggested by Suresh, I am giving my observations on the discussion taking place on the proposal for Lokavidya Samaj Study from Bengaluru. Two main points – one about the method and the other about lokavidya.
- What are the advantages of the method of questionnaire filled by college students whose parents are in Lokavidya Samaj? As far as I remember, the only advantage mentioned so far is convenience of the investigators. This, though, can hardly be called an advantage, Not just this but it can be extremely misleading or even harmful. The college students’ information base, knowledge, values and way of thinking will, in all probability, be very different from their parents. To get square with my years of mis-trust of the questionnaire method, I went to google-search (which is perhaps not the best thing to do) and found that ‘A questionnaire is a research tool used to conduct surveys. It includes specific questions with the goal to understand a topic from the respondents’ point of view‘ (italics mine).
- Some one said during the meeting that Lokavidya has been mainly understood as knowledge outside the university. This may have been said often to underline the location of lokavidya because the university is commonly seen as the chief location of knowledge and knowledge activity. However it must be said that our discourse on lokavidya describes and identifies various positive qualities and aspects of lokavidya. This discussion on lokavidya was started again, perhaps late in 2022 or early in 2023, questioning the basic validity of the idea of lokavidya anymore for understanding (the changes in) the world of knowledge and reality, and thereby providing a new way of thinking about and dialoguing on a new political imagination. In this context I had written a note titled Revisiting Lokavidya. This note was sent to this group by Girish on 18th Feb. 2023. There are five parts of that note.These are — I. The Point of Departure, II. Lokavidya and Ordinary Life, III. A Summary Statement on Lokavidya, IV. Milestones and V. Lokavidya Jan Andolan. Please take a look.
चित्रा सहस्रबुद्धे (13 Jan 2024)
- सर्वेक्षण प्रस्ताव का नाम ‘Study of Lokavidya Samaj – The Rationale रखा गया है. इसमें लोकविद्या-समाज की पहचान को लेकर अधिक स्पष्टता की आवश्यकता महसूस होती है. लोकविद्या-समाज परंपरागत समाज नहीं है, यह मात्र ग्रामीण समाज भी नहीं है और न यह जातियों में सीमित समाज है.
- लोकविद्या-समाज एक ऐसे जीवंत समाज की अवधारणा है, जो लोकविद्या के बल पर जीने वालों के जीवन को बदहाली और तिरस्कृत स्थिति से निकालकर एक खुशहाल और सम्मानपूर्ण जीवन में बदलने की शक्ति का संचय स्थान बनने की संभावना रखता है और इसके लिए आवश्यक ताना-बाना बुनने की क्षमता भी रखता है.
- हम लोगों ने समाजों की शक्ति का एक आधार लोकविद्या में देखा है और पिछले 20-25 वर्षों से इस ताने-बाने को बुनने के लिए और इन समाजों की एकता को साधने के लिए लोकविद्या दर्शन और लोकविद्या जन आंदोलन के कार्यक्रम गढ़े हैं.
- ऐसे में सर्वेक्षण का उद्देश्य इन समाजों के ज्ञान और क्षमताओं के संकलन के साथ ही इनके ज्ञान और क्षमताओं की लूट करने वाली नीतियों को उजागर करना भी होना चाहिए.
- इन समाजों पर परकीय ज्ञान को ज़बरदस्ती थोपने व इसके चलते इनकी बदहाली होने के असंख्य उदाहरण मिलते हैं. औद्योगिक युग में शोषण का एक महत्वपूर्ण आधार ‘ज़बरदस्ती थोपे गये श्रम’ में रहा. क्या इसी तरह आज लोकविद्या के बल पर जीने वालों के शोषण को व्यवस्थित ढंग से समझने का एक आधार ‘ज़बरदस्ती थोपे गए ज्ञान’ के रूप में देखना चाहिए?
- सर्वेक्षण पद्धति में समूह वार्ताओं को शामिल किया जाना चाहिए.
English Version:
My Thoughts on the Bengaluru Proposed Survey
Chitra Sahasrabudhe (13 Jan 2024)
- The title of the thinking about Survey proposal is ‘Study of Lokavidya Samaj – The Rationale’. It seems to me that greater clarity is needed regarding the recognition / identification of the Lokavidya Samaj. Lokavidya Samaj is not the traditional / tradition-bound samaj. Nor is it merely the rural, or a caste-delineated samaj.
- The conception of the Lokavidya Samaj is one, which can become repository of a transformative potential to liberate those who live by lokavidya from a pecuniary and dishonorable existence and to reconstruct their lives of as plentiful and honorable lives by building the network and organization needed to do that.
- We have always seen this potential as residing in lokavidya. For the last 20-25 years we have exerted to build this network and the unity of Lokavidya Samaj by constructing lokavidya thought and Lokavidya Jan Andolan programs.
- The purpose of a survey like the proposed one needs to be to gather together the knowledge and strengths of samajs making up the Lokavidya Samaj as well as to expose the paradigms constructed to exploit this knowledge and these strengths to the detriment of the Lokavidya Samaj
- One can find innumerable examples of efforts to impose alien knowledge and systems of thought causing the deprivation of Lokavidya Samaj. In the industrial era a significant instance of this is the system of ‘deliberately imposed labour’. In the same vein, should we not today view ‘deliberately imposed (alien) knowledge’ as a significant instrument of exploitation of those living by lokavidya?
- The methods of survey should incorporate ‘collective dialogue’.
G. Sivaramakrishnan (04 Jan 2024)
As human beings we are largely products of our learning and the ability to transmit our learning to the next generation. Hence, it is a truism to say that all human beings are knowledge beings. This capacity to learn and transmit our learning to the next generation is perhaps what distinguishes us from all other animals. It is this which is responsible for the building up of human civilizations over millennia.
This trivial truth is in itself not very useful in understanding or explicating the nature and evolution of societies across centuries. Though as knowledge beings we all are equal, it must also be clear that there have been hierarchies in human societies and hence also of knowledge. No knowledge is innocent. Our knowledge has not only given us the power to dominate nature and control it to serve our needs but also to dominate other human beings. That knowledge is power is not only a Baconian or Western concept but was perhaps a larger understanding of human societies everywhere.
It is in this context that we have developed our present understanding of Indian society as having a huge knowledge divide between a small University- based/developed knowledge stream and a vast ocean of Lokavidya. It is our understanding that the knowledge of ordinary people which helps them navigate this world is in no way inferior to those who have formal University education and training. It is also a fact that those who have formal, institutionalized or University based knowledge have been the powerful, dominant ruling classes everywhere.
The pre-colonial India too had a divide between formal institutionalized knowledge practiced / propagated through its Sastras and Lokavidya.
It may also be true that our Sastric knowledge and Lokavidya are more compatible with our culture, ethos, etc. Perhaps it is equally true that there is an organic relationship between the two, one reinforcing the other. The colonial rule and the introduction of modern Western University knowledge nearly eclipsed our Sastric knowledge as there was no state patronage. It created a peculiar situation in which Sastric knowledge was almost frozen at the pre-colonial stage of its development while Lokavidya ‘survived’ largely on account of their continued relevance to the vast masses in securing their material needs. The British too had no interest in replacing Lokavidya with their formal systems as they saw no threat or challenge to their economic interests from Lokavidya. Thus, Lokavidya Samaj continued without any serious threat to its knowledge base. But the impoverishment of the country as a whole under colonial rule meant the weakening of the Lokavidya Samaj. The coming of independence had very little impact on Lokavidya or its Samaj. The policy of industrialization pursued based on modern Western science and technology was without much challenge, except for some muted criticism by Gandhians. Of course, the Indian state/ government did create bodies to promote Khadi and Village industries and appoint some Gandhians to guide them. Similarly, there was great interest in promoting Sastric knowledge by including them in university curriculum. Artisanal crafts/skills do receive assistance from central and state governments.
The divide between organised/formal knowledges based on modern/Western science and Lokavidya based on centuries of experiential learning continues without much hostility. Just as the formal knowledge could exist without much contribution from Lokavidya except perhaps for the supply of labour to run industries, the Lokavidya Samaj has been ‘autonomous’ to the extent that it has its own innate skills / techniques to adapt itself to changes brought by the University based modern knowledges. The catch is, of course, the inferior status/position of Lokavidya in relation to modern University knowledge. This is clearly reflected in the pay a university degree provides and the wages that Lokavidya can command from the system. Suffice it to say then that Lokavidya survives as inferior to university knowledge in every respect. A question naturally arises how and why Lokavidya continues. The obvious answer seems to be that for vast masses of people there is no alternative to keep their body and soul together. Be that as it may.
The proposed study is relevant in this context as it seeks to answer further questions about Lokavidya Samaj. Firstly, we know that Lokavidya has been able to survive largely because of the existence of the Samaj.
How does the larger Lokavidya Samaj find itself today when many institutions / practices that have been supportive of this Samaj through centuries have either disappeared or are under severe strain? The vast kinship system and jatis that have been responsible for the preservation of skills, crafts, or knowledge practices of localities or regions are under great threat from changes in the economy as a whole. The Lokavidya Samaj has largely been unable and powerless to determine the course of the economy or industry and is continuously expected to adapt itself to many changes that are exogenous. That even under constant and continuous pressure from external forces it has been able to survive, indicates the ingenuity of our people and culture or their instincts.
The study aims to identify the various support systems that are still in existence in the Samaj and their own strengths and weaknesses under large changes taking place in society, polity and culture.
If we find through the study that a major part of the support for the pursuit of Lokavidya that were available in the early part of the 20th century have all disappeared and changes in the economy, society have today no structures or functions that help in the transmission of skills, crafts, or practices, it means Lokavidya is increasingly becoming irrelevant to the future of Indian society. It is our hunch that such irrelevance or redundancy has already taken place in our agriculture at least since the introduction of GR which has transformed our agriculture irrevocably to a capitalist system. Thus, while it may be true that our farmers are still part of the Lokavidya Samaj, their mainstay occupation has very little resemblance to what their own fathers’ generation practiced. It is also perhaps true that the knowledge of agriculture that may have come down to the present generation has no utility or relevance today. That is to say, even in terms of knowledge, the farmers of India are today more dependent on university produced knowledge and from the laboratories of modern science and technology. This can be seen not only in the production of food crops but in other crops as well as poultry and in the large dairy industry. We find through our cursory observations that most farmers who are in poultry industry want to have their sons graduate from veterinary colleges. In the town of Namakkal in TN there are more veterinary doctors than perhaps in most districts of India. Most of these veterinarians come from families that were traditional farmers in the previous generation. Namakkal today is the largest centre for broiler eggs in the country and decides the price of eggs every day. Similarly, the community of Thigalas who were known as gardeners in and around Arcot districts of TN were encouraged to migrate in sizeable numbers to Bangalore and its surroundings by Hyder Ali and Tippu Sultan. They were the builders of the famous Lalbagh gardens of Bengaluru. Today many of these traditional gardeners have become big suppliers of exotic flowers to various parts of the country and abroad. They now depend on input from agricultural universities and research centres for the latest techniques of floriculture. Their big nurseries in and around Bengaluru today were the homes of simple Thigala gardeners only about 50 years ago. Thus, one of the aims of our study is to understand the increasing dependence on university based knowledge in what were strongholds of Lokavidya only about fifty years ago. Lokavidya has been understood by us as not only providing for the material needs of our people but also their aesthetic and cultural needs. We wish to understand how in the fields of arts, entertainment, sports and games, etc., the Lokavidya Samaj has undergone changes over the century. The impact of technology is very prominent in these fields as it is in economic activities. Perhaps the Lokavidya Samaj has been increasingly under the influence of formal, external structures for fulfilling its aesthetic, entertainment needs and thus is abandoning its own forms. Actually, the creative participation of the Samaj in all of them has reduced considerably and our people have been reduced to being mere consumers. This change from active participants in these pursuits to being mere consumers means our Lokavidya Samaj is already a ‘mass society’ as outlined by C Wright Mills and others in respect of the US.
When we are on the subject of our Lokavidya Samaj being reduced to consumers, the decline of home remedies in treating very routine and ordinary ailments has to be taken note. Again, our gut feeling/ cursory observations suggests that dependence on neighbourhood clinics or poorly run government hospitals have increased among the members of Lokavidya Samaj than perhaps among middle / upper middle class educated Indians. It would be revealing to know how Lokavidya Samaj handles illnesses that are of routine occurrence. If it is found that that they have abandoned their indigenous / home remedies and increasingly rely on ‘ scientific’ medicine / doctors, it is yet another indication of the loss of autonomy of Lokavidya Samaj. Thus, an understanding of the present state of Samaj is necessary to imagine the shape of things in the coming decades of our society, polity and culture. Hence this study.
विद्या आश्रम (1 August 2024)
विद्या आश्रम स्थापना दिवस विचार गोष्ठी
1 अगस्त 2024
विद्या आश्रम, सारनाथ
विद्या आश्रम को स्थापित हुए 20 वर्ष हो रहे हैं. इस वर्ष के स्थापना दिवस के आयोजन पर यह विचार गोष्ठी एक तरह से खुली समीक्षात्मक चर्चा का रूप लें तो अच्छा होगा ऐसा विचार बना और इसी दृष्टि से निमंत्रण पत्र का प्रारूप भी बना. लगभग सवा-सौ लोगों की भागीदारी से आयोजित इस विचारगोष्ठी में किसान, कारीगर, छोटी दुकानदारी करने वाले, महिलायें और सामाजिक विचारक व कार्यकर्त्ता शामिल हुए.गोष्ठी की शुरुआत सामू भगत, सर्विंद पटेल, छोटेलाल की सदारत में लोकविद्या के बोलों से शुरू हुई और लोकविद्या सत्संग के कुछ पद गाये गये. विद्या आश्रम की वरिष्ठ प्रेमलताजी ने गोष्ठी का सञ्चालन किया और अध्यक्षता दर्शन अखाड़े के संचालक गोरखप्रसाद, भारतीय किसान यूनियन के नेता राम अवतार सिंह, बुनकर समाज के गुलज़ार भाई और सामाजिक कार्यकर्ता पारमिता ने संयुक्त रूप से की.
प्रेमलताजी ने बड़ी खूबसूरती से विद्या आश्रम के बनने की प्रक्रिया को अपनी एक स्वरचित कविता में बाँधा.
एक दिन में नहीं पड़ी, विद्या आश्रम की बुनियाद।
वर्षों तक सतत् खोज, शोध, संवाद, परिसंवाद,
अनगिनत दिन रैन बीत गए, सत्य की खोज करते-करते,
विचार मंथन किया अकथ, तब दिखा ऐसा परिणाम।
जिस सत्य का मिला ज्ञान, लोग थे उससे अनजान!
चलता जिससे जग का काम, लोकविद्या है उसका नाम,
विद्या आश्रम का सूत्रधाम, जीवन जिये सभी सामान्य।
विषय प्रवेश करते हुए लक्ष्मण प्रसाद ने ज्ञान के सवाल को आज के समय का मनुष्य की मुक्ति का सबसे प्रभावी साधन बतलाया और कहा कि विद्या आश्रम की स्थापना ही ज्ञान के क्षेत्र में ऊँच-नीच को ख़त्म करने के विचार से हुई है. किसान, कारीगर, आदिवासी, महिलाएं, कलाकार और पटरी-ठेले-गुमटी के सब छोटे-छोटे दुकानदार ये सब बहुजन-समाज के लोग हैं. ये सब अपने ज्ञान और श्रम के साथ अपनी और बृहत् समाज की ज़रूरतों को पूरा करते हैं. इनका ज्ञान लोकविद्या कहलाता है और लोकविद्या किसी भी अर्थ में विश्वविद्यालय के ज्ञान से कमतर नहीं है. लोकविद्या को विश्वविद्यालय के ज्ञान के बराबर प्रतिष्ठा मिलेगी तभी बहुजन-समाज को न्याय, खुशहाली और सम्मान का जीवन मिल पायेगा. लोकविद्या की प्रतिष्ठा का कार्य ही विद्या आश्रम का कार्य है. प्रतिष्ठा का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने उन सभी बिन्दुओं को गोष्ठी में रखा जो निमंत्रण पत्र में उद्दृत की गई थीं.
बुनकर साझा मंच के फ़ज़लुर्रहमान अंसारी ने लोकविद्या दर्शन पर आधारित वाराणसी ज्ञान पंचायत के तहत चलाये जा रहे वार्ड ज्ञान पंचायत के कार्यक्रम को लोकविद्या आन्दोलन की बुनियादी ईंट के रूप में देखते हुए कहा कि जब स्थानीय पंचायतों में लोकविद्या और बहुजन-समाज की भागीदारी होगी तभी बदलाव और खुशहाली आएगी. जब बहुजन-समाज अपने ज्ञान के बल पर अपनी व्यवस्थाओं को संचालित करेंगे तभी खुशहाली आएगी, जिसे स्वराज कहा जा सकता है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए वाराणसी नगर निगम के दो वार्डों में जन भागीदारी पर आधारित ज्ञान पंचायत गठित करने का कार्य किया जा रहा है. ये दो वार्ड हैं -सलारपुर और जलालीपुरा. इसे वार्ड ज्ञान पंचायत नाम दिया जा रहा है, इसमें वार्ड में रहने वाले, तरह-तरह के काम करने वाले अर्थात तरह-तरह के ज्ञानियों की भागीदारी होगी जो अपने वार्ड में हो रहे कार्यों व नीतियों पर आपस में और वार्ड के नागरिकों के बीच विचार के लिए रखेंगे I वार्ड की समस्याओं, प्राथमिकता के आधार पर सड़क, गली ,चौका- खरंजा ,पानी ,लाइट- बिजली, अस्पताल, पाठशाला इत्यादि का इंतजाम और रखरखाव के बारे में अपनी राय देंगे. वार्ड में हो रहे तरह-तरह के निर्माण कार्य में यथासंभव वार्ड के ही संबंधित ज्ञानी हूनरमंद, मिस्त्री ,कारीगर इत्यादि की भागीदारी होने का आग्रह रखेंगे. कार्य सुंदर हो, गुणवत्तायुक्त हो, कम खर्चीला हो इन सब का भी ध्यान रखते हुए वित्त की व्यवस्थाओं पर विमर्श की पहल लेंगेI यह एक मॉडल वार्ड का स्वरूप होगा.
‘बहुजन-समाज के ज्ञान की प्रतिष्ठा में स्वराज का आधार है’ इस विषय पर बोलते हुए स्वराज अभियान के राम जनम ने कहा कि विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर सभी किसान, कारीगर लोगों का अभिनंदन है. विद्या आश्रम एक परिवर्तन के विचार का केंद्र है. लोकविद्या-समाज कहें या बहुजन-समाज कहें, इसका सबसे इसमें महत्वपूर्ण स्थान हैI आज ऐसी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था बन गई है, जो बहुजन-समाज की लूट पर आधारित है I इस आर्थिक जाल को काटे बिना लोकविद्या-समाज की खुशहाली नहीं आ सकती. अब हम सबको यह तय करना होगा कि वह व्यवस्था क्या हो ? इस देश में स्वराज बहुजन-समाज की परंपरा रही है. आजादी के आंदोलन के समय गांधी जी ने स्वराज को फिर से देश और समाज के सामने रखा. स्वराज की व्यवस्था में बहुजन-समाज की प्रतिष्ठा है,उसके ज्ञान की प्रतिष्ठा है. किसान आंदोलन की गतिविधियों को अगर हम देखें तो वे किसान पंचायत करते हैं ,आपस में चर्चा करते हैं. यह क्या है? कहीं ना कहीं से यह स्वराज का ही एक स्वरूप है. चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत भी जब पंचायत लगाते थे, उसमें अदना सा अदना व्यक्ति भी यह कह सकता था कि चौधरी साहब यह गलत है, यह नहीं होना चाहिए. स्वराज की व्यवस्था न्याय, समता और जन भागीदारी पर आधारित है. विद्या आश्रम द्वारा भी यह पहल शुरू की गई है. वार्ड ज्ञान पंचायत बनाने की कोशिश की जा रही है. वार्ड ज्ञान पंचायत में स्थानीय लोग शामिल होंगे. वही उनके ज्ञान और विचार के आधार पर वार्ड का नया ढांचा खड़ा होगा, बड़ी से बड़ी व्यवस्था का आधार नीचे की इकाई होती है. इसको शक्ति, सम्मान व प्रतिष्ठा देने का मतलब देश व समाज को खुशहाली के रास्ता ले जाना है. आज बुद्ध और कबीर नहीं हैं , रविदास और गांधी नहीं हैं, लेकिन मेरा मानना है कि इस देश का बहुजन-समाज इन महान संतों के विचारों को संजोता है, समझता है, आचरण में लाता है. इसी समाज के पास नैतिक बल है. यह देश बहुजन-समाज का देश रहा है. राज करने का ज्ञान भी बहुजन-समाज के पास ही रहा है. कुछ क्षत्रिय राजा रहे होंगे लेकिन सिर्फ क्षत्रिय राजा ही नहीं हुए हैं, इतिहास में गिने जाने वाले अधिकांश राजा तो बहुजन-समाज के ही रहे हैं. दलित पिछड़े और आदिवासियों में भी राजा हुए हैं. कहीं सुहेलदेव राजा हुआ करते थे. कहीं मऊ नट राजा हुआ करते थे. मऊ नट के भांजे को आतिताइयों ने मार दिया था. इसीलिए इन्हीं के नाम पर मऊ का नाम मऊनाथ भंजन पड़ा. बहुजन-समाज की शक्ति के सन्दर्भ में किसान आंदोलन का जिक्र करना चाहूंगा, जिसने देश में एक नैतिक हलचल पैदा की है, यह रुकने वाला आंदोलन नहीं है. विद्या आश्रम का आवाहन है कि परिवर्तन की शक्ति बहुजन-समाज अर्थात सामान्य जन के पास है, इस बात को पहचाना जाए.
गाँधी विद्या संस्थान की रजिस्ट्रार डॉ. मुनीजा खान ने अपनी बात को रखते हुए कहा कि लोकविद्या-समाज में किसान, बुनकर ,कारीगर ,आदिवासी महिलाएं हैं. महिलाओं को आधी आबादी भी कहा जाता है. जो भी काम हो रहा है ,चाहे किसानी हो, बुनकारी हो, छोटी दुकानदारी हो सभी में उनका भी योगदान होता है. घर-गृहस्थी को चलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है. महिलाओं की प्रतिष्ठा लोकविद्या की प्रतिष्ठा से जुड़ी है. यह दृष्टिकोण लोकविद्या विचार ने दिया है, ऐसे अनेक दृष्टिकोणों को विद्या आश्रम ने सामने लाया गया है.
डॉ. अनूप श्रमिक ने कहा कि यहां विद्या आश्रम से विश्व सामाजिक मंच काठमांडू नेपाल के सम्मेलन में लोकविद्या आन्दोलन के साथियों के साथ बैठक में हम लोगों ने भाग लिया था. वर्तमान समय में सरकार का उन संस्थानों पर हमला है जो दलित, पिछड़े, पसमांदा, अल्पसंख्यक के हक अधिकार की बात उठा रहे हैं, जो संविधान की बात कर रहे हैं. उन संस्थानों पर रोक लगा दिया गया है. आज दलित पिछड़े समाज का कुंभ मेले के नाम पर तथाकथित साधु संतों ,मठों को अरबों अरब रुपए बांटा जा रहा है. इसके विरुद्ध 80% जनता को मिलकर एक जन आंदोलन चलाना होगा. 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस है. इस दिन जिला मुख्यालय वाराणसी पहुंच कर राष्ट्रपति महोदय के नाम ज्ञापन देना है. सन 1980 के दशक में स्पेशल कंपोनेंट प्लान पास हुआ था I दलित आदिवासी के उत्थान के लिए यह बना था.
स्वतंत्र पत्रकार सुरेश प्रताप जी ने कहा कि विद्या आश्रम में लोकविद्या यानि समाज में ज्ञान, पर वार्ता की जाती है. जो लोग विश्वविद्यालय में डिग्री ले रहे हैं उनसे बेहतर ढंग से गांव के लोग खेती किसानी के ज्ञान को समझते हैं. विद्या आश्रम की ओर से लोकविद्या की प्रतिष्ठा का यह कार्य एक अच्छा प्रयास है. लोकविद्या अनछुए प्रश्न को सामने लाने का प्रयास कर रहा है. पढ़ने- लिखने वाले लोगों, पत्रकारों की भी एक जिम्मेदारी बनती है कि इस विषय पर कुछ लिखा जाए.
पीली कोठी से आए अब्दुल मतीन अंसारी ने कहा कि उत्पादन करने वाले समाज को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, न्याय मिलना चाहिए. यह कह दिया जाता है यदि तुम गरीब हो तो तुम्हारे भाग्य में लिखा गया है इसलिए. धर्म के नाम पर शोषण हो रहा है. शिक्षा पर ध्यान देना होगा, कोई जरूरी नहीं की स्कूली शिक्षा ही हो. चेतना जागरूकता कहीं से भी मिल सकती है.
दीनापुर से आए महेंद्र प्रताप मौर्य ने कहा कि लोकविद्या का काम जमीनी स्तर का काम है. जमीनी स्तर पर लोगों से मिलने-जुलने और उनसे बातचीत करने का काम है. किसानों, कारीगरों के दुख, तकलीफ, समस्याओं को जानने और उसके निवारण और संघर्ष का काम है. इसके लिए बधाई देता हूं.
आरती ने कहा कि माइक्रोफाइनेंस जो की महिलाओं के समूह को ऋण देती है ,भारी ब्याज वसूलती है.महिलाएं कर्ज में फंस कर परेशान हो रही हैं. आत्महत्याएं कर रही हैं. समूह से लिया गया कर्ज संकट का कारण बन रहा है. सबको मिलकर इस समस्या से निजात पाना है. मोहम्मद अहमद ने दुनियाभर में बहुजन-समाज पर थोंपी जा रही लड़ाइयों का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस पर किस तरह की बात होनी चाहिए इसे सोचना ज़रूरी है I विनोद ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि विकेंद्रीकरण में लोकविद्या के समस्त तत्व मिलेंगे. यह लोकपरक व्यवस्था है, जबकि केंद्रीकरण पहले से ही लूटपाट की व्यवस्था रही है और आज भी लूटपाट की ही व्यवस्था है. चिरईगांव से आए हुए शहनवाज ने कहा कि किसान आंदोलन के तर्ज पर जातिगत जनगणना के लिए लड़ना होगा. सोनभद्र जिले में जंगलों को कॉर्पोरेट के हवाले किया जा रहा है. बुनकर समाज के लिए सस्ते दर पर बिजली के फ्लैट रेट का सवाल हो, सभी को मिलकर लड़ना होगा.
सारनाथ से 5-6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कमोली गाँव से लगभग 10 किसान गोष्ठी में आये और उन्होंने अपनी बात रखी I किसान राहुल कुमार भारद्वाज ने कहा कि गाँव में लेखपाल कानूनगो भूमि माफिया के लोगों के साथ है I लेखपाल से मिलकर भूमाफिया गांव की 40 बीघा जमीन पर कब्जा कर लिए हैं. हम किसानों का भूमि संबंधी चक न कटे होने की बात कर हमारा कोई भी काम नहीं होने दे रहा है I यहां पर आए हुए भारतीय किसान यूनियन के लोगों से हम कमौली गांव की समस्याओं के समाधान में हमारा साथ देने की अपील करते हैं. विद्या आश्रम से कमलेश कुमार ने अपनी बात रखते हुए कहा कि स्थापना दिवस पर सबका स्वागत है. लोगों ने सारी बातें रख दी हैं, मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि कमौली के किसान भूमाफिया से परेशान हैं. उनका साथ दिया जाएगा.
अध्यक्षीय संबोधन में बुनकर समाज से गुलजार भाई ने कहा कि विद्या आश्रम में बुनकर, किसान, महिलाएं सभी लोग के ऊपर चिंतन होता है. यहां पर सबको एक साथ एकजुट होना चाहिए. इसी से सब का कल्याण होगा. विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर बधाई. दर्शन अखाड़ा से में गोरखनाथ जी ने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि 2004 में सुनील सहस्रबुद्धे और चित्रा सहस्रबुद्धे की पहल पर विद्या आश्रम की स्थापना हुई. यहां पर बहुत अच्छे-अच्छे कार्यक्रम लगातार हुए हैं. सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक सभी विषयों पर गहन चर्चा हुई है. लोग महंगाई से त्रस्त हैं. युवा, किसान, मजदूर सभी लोग परेशान हैं. सबको साथ में आने की जरूरत है. किसान समाज की ओर से अपने अध्यक्षीय संबोधन में रामअवतार सिंह ने कहा कि विद्या आश्रम में लगातार किसान समाज और अन्य अनेक समाजों पर शोध-रिसर्च-चर्चा-मीटिंग-गोष्ठी चलता रहता है. हम किसान की बात करते हैं. किसान के हाथ में लाठी होगा उसके पास बिल्ला होगा टोपी होगी तभी उसका कोई सुनने वाला होगा. सभी सदस्यों से अपील करते हुए उन्होंने कहा कि आप लोग टोपी बिल्ला साथ में रखिए.अन्याय मत सहिए. उठ खड़े होइए. जो अधिकारी हमारी बात नहीं सुन रहा है, डटकर उसका मुकाबले कीजिए. विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर कमोली गांव से आए किसानों की बातों पर उन्होंने कहा कि कमौली गांव में पंचायत बुलायें. हम सभी लोग आएंगे. कमौली गांव में जल्दी से जल्दी पंचायत बुलाई जाए. अपने अध्यक्ष के संबोधन में पारमिता ने कहा कि एक बच्चा 16 साल में विद्यालय से पढकर निकलता है. तब उसके पास ज्ञान होता है. एक कारपेंटर 10 -15 साल 20 साल में सीख करके अच्छा कारपेंटर बनता है इसी तरह से बुनकर, किसान सभी लोग 15 साल काम करने के बाद किसान,कारीगर बनते हैं. लेकिन स्कूल स्कूल कॉलेज में 15 -20 साल पढ़ लेने के बाद यदि नौकरी नहीं मिली तो स्कूल कॉलेज से पढ़ा नौजवान किसी काम का नहीं होता और किसान, कारीगर, बुनकर वगैरह अपने और अपने परिवार की रोजी-रोटी चलाने की काबिलियत रखते हैं. महिलाएं सिर्फ गृहणी नहीं होती. वे घर परिवार चलाने से लेकर बाल-बच्चों को पालन- पोषण कर बड़ा करने का काम करती है. बच्चों को मनुष्य बनाती है. अपने पति के काम में भी सहयोग करती है. खेती में काम करती है, बुनकारी में काम करती हैं, ठेला खोमचा पर हो रहे काम में भी वह अपना हाथ बटाते हुए हर तरह का काम करती हैं I महिलाएं सिर्फ गृहणी नहीं हैं. ये पूरे परिवार को संभालने, सजाने का काम करती हैं. आज के सिस्टम में गांव का ग्राम प्रधान जीतने के पहले गांव का होता है , और जीत जाने के बाद वह सेक्रेटरी ,बी डी ओ, सरकारी अधिकारियों का हो जाता है. लोगों से उसका कोई वास्ता नहीं रह जाता. हमें खुद से संगठित होकर स्वयं में समस्याओं का समाधान निकालना होगा. कमौली गांव से आए हुए किसानों की बातों का मैं समर्थन करती हूं. उनको पूरी ताकत से सहयोग दिया जाएगा.
संचालन कर रही प्रेमलता जी ने कहा कि आज विद्या आश्रम में सुनील जी और चित्रा जी नहीं है. चित्रा जी की इस समय तबीयत खराब होने की वजह से इलाज के लिए दोनों वाराणसी से बाहर गए हुए हैं. चित्रा जी ने विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर अपना संदेश भेजा है, जिसे गोष्ठी में पढ़कर सुनाया।
गोष्ठी के अंत में सहभोजन का आयोजन था। प्रभावती, अंजू देवी, चंपादेवी और मधु ने मिलकर भोजन की व्यवस्था की।
विद्या आश्रम स्थापना दिवस के अवसर पर सन्देश
1 अगस्त 2024
विद्या आश्रम स्थापना दिवस के 20 वर्ष पूरे हुए हैं. समाज में बदलाव के लिए विचार निर्माण या विचार यात्रा के एक पड़ाव के रूप में इस दौर को हम देखते हैं. यह दौर दुनिया में एक ऐतिहासिक उथल-पुथल का दौर था. देश-दुनिया में सूचना-युग के आगमन से हो रहे बदलावों के बीच तेज़ी से बढ़ते अन्याय की दाहक आग गाँव, क़स्बा, गली-मोहल्लों तक फैलते देखी गई और इसे असंख्य परिवारों को लीलते देखा. परंपरागत राजशाही, लोकतंत्र या समाजवाद पर आधारित राज्सत्तायें लगभग समानरूप से इस आग को जलाये रखने में सहयोगी बनते देखी गई. चारों तरफ उम्मीदें तेज़ी से नाउम्मीदों में तब्दील हो रही थीं. यही दौर था जब अन्याय से मुक्ति के नए विचारों की खोज में आकुल समाजों में तरह-तरह के विचार गति लेने लगे थे. ऐसे ही कुछ साथी जो यह सोचते थे कि सत्य, न्याय और भाईचारे पर आधारित समाज को बनाने के लिए हमें अपने समाज, अपने देश, अपने लोगों की शक्तियों को पहचानने, उजागर करने और उन्हें संगठित करने के कार्य में लगना चाहिए उनके साथ मिलकर वर्ष 2004 में विद्या आश्रम की स्थापना हुई.
विद्या आश्रम पर चली वैचारिकी में देश के अलग-अलग कोनों से अनेक लोग शामिल हुए, अनेक विचार और विचारधाराओं के बीच संवाद हुए, समाज के विविध घटकों की आकाँक्षाओं, संघर्ष और आन्दोलनों में भागीदारी, समर्थन और सहयोग के आधार बने, आधुनिक व्यवस्थाओं के पाखंडों से सामना हुआ, अनेक बातें हुईं. इन सभी प्रयासों ने जहाँ एक ओर साइंस आधारित औद्योगिक युग से प्रबंधन आधारित सूचना युग में संक्रमण के विविध पक्षों (दार्शनिक,आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि) का अधिकाधिक लोकविरोधी होते जाने के सबूत मिलते गए तो दूसरी तरफ अपने लोगों, समाज और देश के प्रकृति से ले-ताल-सुर मिलाते हुए लोक-आधारित मूल्य, तर्क, संगठन, प्रबंधन, उत्पादन, तकनीकी, आदि के जीवंत और मज़बूत धागे मिलने लगे. ये धागे अपने मूल स्वभाव से ही लोगों के पास, यानि समाज में ही जन्म लेते रहे हैं, जिंदा रहते हैं और नवीन होते रहते हैं, उन्हें कोई आर्थिक अथवा राज सत्तायें मिटा नहीं सकती. लोकविद्या ऐसा ही एक धागा है. इस धागे को जितना ही काता उतना ही उसके साथ के अन्य धागे भी खींचे चले आये और एक ऐसी दुनिया सामने खुलती गई, जिसकी बुनावट बहुजन-समाज द्वारा बुनी गई है. इस बुनावट में इस समाज और देश की सक्रिय पहल, खुशहाली और न्याय के दर्शन होने की स्पष्ट उम्मीद दिखाई देने लगी.
हमारे देश और समाज की शक्ति इस बुनावट में ही बसी हुई है. इसे जिंदा करने, जीवन और समाज के पुनर्संगठन का आधार बनाने अथवा इसे समकालीन रूप देने के कार्यक्रमों को गढ़ने का कार्य बहुजन-समाज ही कर सकता है; क्योंकि यही इसका ज्ञाता है. बहुजन-समाज को अपने ज्ञान, लोकविद्या, पर भरोसा कर नई बुनावट के लिए पहल लेना होगी. विद्या आश्रम आने वाले वर्षों में इस कार्य में अपनी सहयोगी भूमिका देखता है. हम आप सभी मिलकर इस भूमिका को कारगर बनाने में लगे यही आज कामना करते हैं.
चित्रा सहस्रबुद्धे
समन्वयक, विद्या आश्रम
सारनाथ, वाराणसी
लोकविद्या जन आन्दोलन (April 2024)
लोकविद्या जन आन्दोलन
लोकसभा चुनाव 2024 के सन्दर्भ में ज्ञान-वार्ता अभियान
लोकविद्या जन आन्दोलन एक ज्ञान आन्दोलन है और ज्ञान की विविध धाराओं के बीच बराबरी, भाईचारा और सहयोग का पैरोकार है. ज्ञान के क्षेत्र में ऊँच-नीच समाज में ऊँच-नीच, दुराव और नफ़रत के बीज बोती है. ‘सामाजिक न्याय’ पर पड़ा ताला ‘ज्ञान में बराबरी’ के विचार से खुलता है. मई-जून 2024 को होने जा रहे लोकसभा चुनावों में इस सवाल को सामाजिक बहस में लाने का प्रयास होना चाहिए. इस बहस को हम ‘सामाजिक न्याय का अगला चरण’ नाम दे सकते हैं.
विचार
धीरे-धीरे देश की राजनीति दो बड़े खेमों में बंट गई है. एक तरफ दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी हैं और दूसरी तरफ प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष हैं. दोनों ही की आर्थिक नीतियां एक-सी हैं. दोनों ही देश के सामान्य जन के श्रम और ज्ञान को लूटकर राज करने की नीति अपनाते रहे हैं और ऐसा करने के लिए दिल्ली की सत्ता को मज़बूत करने और बरकरार रखने का विचार दोनों ही रखते हैं. हमारे ही देश में नहीं बल्कि दुनिया के अनेक देशों में लोकतंत्र के नाम पर कमोबेश यही स्थिति है. पिछले सौ-दो सौ वर्षों से चल रही लोकतंत्र की व्यवस्थाओं में सामान्य जन की उपेक्षा और उत्पीडन का पैमाना बढ़ता ही गया है. न्याय, रचनात्मक पहल, भाईचारा और सहयोग के विचारों और मूल्यों को निष्क्रिय बना दिया गया है. लोकतंत्र और समाजवाद से अधिक बेहतर व्यवस्थाओं के बारे में सोचने की ज़रूरत है.
जब तक लोकतंत्र के नाम पर बड़ी आबादी वाले इस बहुज्ञानी देश पर दिल्ली से, यानि एक राजधानी के मार्फ़त राजसत्ता को केन्द्रित कर सरकारें चलेंगी तब तक बहुजन-समाज के लोग यानि किसान, कारीगर, आदिवासी, महिलाएं और छोटी-छोटी पूँजी के बल पर सेवा देकर जीवनयापन करने वालों(जैसे, ठेला-पटरी-गुमटी के दुकानदार, मरम्मत और रखरखाव के कार्य में लगे कारीगर, स्वास्थ्य-कर्मी, रिक्शा-ऑटोचालक आदि ) का भविष्य अन्धकार में रहेगा.
सामाजिक न्याय का अर्थ है खुशहाली, सम्मान, पहल और रचना के साधनों पर सबका बराबर का अधिकार, जिसे निरंतर छीना गया है. अधिकार की बात के साथ साधनों के नवीनीकरण, संशोधन और निर्माण के ज्ञान और संसाधनों की व्यवस्थाओं और सञ्चालन की ज़िम्मेदारी का दावा भी ज़रूरी है, यानि बहुजन-समाज को अपने ज्ञानी होने का दावा भी पेश करना होगा. जब तक अधिकार, ज़िम्मेदारी और ज्ञान (लोकविद्या) का दावा एक साथ नहीं उठेगा तब तक दिल्ली से हो रही लूट को रोका नहीं जा सकेगा. बहुजन-समाज के ज्ञान, अधिकार और ज़िम्मेदारी की आपसी गतिशील चेतना के निर्माण की ज़रूरत है.
हमारे देश की दर्शन परम्पराओं और सामान्य जीवन में भी ‘स्वायत्तता’ को मनुष्य की चेतना का एक बुनियादी विचार (शर्त) माना गया. विविध कालखंडों में दर्शन और ज्ञान की परम्पराओं के नवीनीकरण के अभियान और प्रवाह भी ‘सामाजिक न्याय’ के विचार से अनुप्राणित रहे. भारत के भू-भाग पर अधिकांश कालों में समाज संगठन और सञ्चालन की परम्पराएँ तो ‘स्वराज’ की ही रहीं. ‘सामाजिक न्याय’, ‘स्वायत्त समाज’ और ‘स्वराज’ के विचार और परम्पराएँ यहाँ के बहुजन-समाज की ही देन हैं. आज भी ये विचार मिलकर समाज के लिए न्यायपूर्ण धागे बुन सकते हैं.
इसी उद्देश्य से अप्रैल 2024 से लोकविद्या जन आन्दोलन निम्नलिखित बिन्दुओं पर ज्ञान-वार्ता को आकार देने की पहल ले रहा है. इन वार्ताओं में शामिल होकर सामाजिक न्याय और स्वराज के लिए अनुकूल मार्गों को बनाने में अपना योगदान करें.
ज्ञान-वार्ता के मुद्दे
- सामान्य-जन यानि बहुजन के पास जो ज्ञान (लोकविद्या) है, उसके बल पर उसे सम्मान के साथ जीवनयापन करने के अवसर निर्मित हों. हर किसान और कारीगर परिवार में सरकारी कर्मचारी के जैसी पक्की, नियमित और बराबर की आय हो. विविध कार्यों में लगे लोगों की आय का अनुपात 5:1 से अधिक न हो
- रोज़गार के सवाल को सिर्फ शिक्षित युवाओं तक सीमित न करके, लोकविद्या-समाज के समस्त युवाओं को शामिल करके हल करने के प्रयास हों. ऐसा न करने से रोज़गार के नाम पर अधिकांश युवाओं पर मजदूर बन जाने की बाध्यता लादने की संभावना बढती है.
- क्षेत्रीय राज और केन्द्रीय राज के बीच स्वायत्तता और बराबरी के सम्बन्ध बनाना सामाजिक न्याय के लिए एक सकारात्मक कदम है. आज की दुनिया में इन संबंधों को बनाने के विचार और व्यवस्थाओं पर चिंतन की दिशा तय हो.
- हर क्षेत्र में ‘वितरित व्यवस्थाओं का निर्माण’ सामाजिक न्याय को गतिशील और स्थाई बनाता है. उत्पादन, वितरण, उपभोग, समाज संगठन, सञ्चालन आदि के प्रकार, विचार, व्यवस्था, सम्बन्ध आदि पर सार्वजनिक चर्चा ‘सामाजिक न्याय’ के अगले चरण को प्रकाशित करेगी.
संपर्क
लक्ष्मण प्रसाद (7905245553), रामजनम (8765619982),
फ़ज़लुर्रहमान (7905245553), हरिश्चंद्र केवट (9555744251)
लोकविद्या जन आंदोलन
प्रमुख कार्यालय
विद्या आश्रम, सा 10/82,अशोक मार्ग
सारनाथ, वाराणसी-221007
मो.: 9838944822
Vidya Ashram, Sarnath, Varanasi
Vidya Ashram
Sa 10/82 Ashok Marg, Sarnath 221007
Minutes of Annual Meeting (Online Mode) of the Ashram Samiti
3.00-6.00 pm Sun 17 Mar and 4.00-6.00 pm, Tuesday, 19 March 2024
Members Present : | Sunil Saharabudhey, Chitra Saharabudhey, Laxman Prasad, Mohammad Aleem, Ehsan Ali, Premlata Singh, Vinod Kumar Choube, B Krishnarajulu, J K Suresh, G Sivaramkrishnan, Abhijit Mitra, Naresh Sharma, Avinash Jha, Girish Saharabudhe, Vijay Jawandhia, Krishna Gandhi. |
Members Absent : | Amit Basole, Macharla Mohan Rao, Awdhesh Dwivedi, T. Narayan Rao, L K Kaul, Praval Singh. |
The Invitation, the Agenda and other accompanying documents were sent by email to all except Mohammad Aleem and Ehsan Ali to whom these were hand-delivered. The Meeting adjourned at 6.00 pm on 17th March for want of completion of the Agenda was reconvened and continued on 19th March at 4.00 pm.
- Calling the meeting to order: The Meeting was called to order and Sunil Sahasrabudhey was requested to take the Chair. The Meeting was then conducted by Girish as per the Agenda circulated earlier.
- Confirmation of new members of Vidya Ashram Samiti: The Meeting confirmed and welcomed two new Members, Dr K R. Krishna Gandhi, and Shri Vijay Jawandhia, to the Trust. Gandhi briefly spoke on their behalf assuring full participation in the VA processes.
- A Brief Yearly Report of 2023-24 by Coordinator: Chitra Sahasrabudhey presented the report, circulated earlier, of VA and LJA activities. Varanasi Gyan Panchayat and Lokaneeti Samvad programs have opened a dialogue with different sections of the Samaj. Last year VA activists interacted with and interviewed many members of the lokavidya samaj on their thoughts on social arrangements for production activities and governance. Chintan vartas at Darshan Akhada have addressed questions of social reconstruction through ideas like Begumpura, Kalyanpuri and Swaraj. Sur Sadhana has served to take these discussions and debates to larger audience. She mentioned the survey proposal by Suresh and GSR Krishnan being shaped at Bengluru, the VA Research Program being developed from Varanasi, the participation by VA in WSF 2024 Kathmandu, Gyan Yatras conducted by Lokavidya Samanvay Samuh, Indore, the Tuesday online meetings, and the new VA website as other important initiatives.
Naresh said that the work done under fellowships program is important and it should find a mention in the Report. Sunil said that fellowship program was based on the idea of “Samajon ki kahani, samajon ki jubani” and aimed at finding an inside perspective of the Lokavidya Samaj to address a global audience, different from one of either the anthropological variety, or the social scientific variety. There are no established ways of doing this and the Research Program being proposed is aimed precisely at charting such ways and working them. - The Proposed research program from Vidya Ashram: Talking about the Program Sunil said that it is aimed at understanding the dialectic between lokavidya and ordinary life. All our discussions hitherto have had the same reference. The proposal is to explore if one can make a substantive progress in this investigation by excavation of lokasmritis through what may be called Bahujan Gyan Samvad. Complemented with written word, art and literature can such excavation be a serious tool to produce an understanding of the space where your past, politics, ways of life, philosophy, methods of governance etc. all converge?
Avinash suggested that the program may be discussed in Tuesday meetings. This was generally accepted. Sunil suggested that any finance mobilized for the Program may not be directly handled by VA, that many centre may be handling the proposed research activity, particularly if necessity of vernacular initiative is seriously understood. Krish suggested that the work of Dharampal and Sivaram Karanths work on Yakshagan should be good resource material for the research to be done. Laksman mentioned the debates in Varanasi around the idea of excavation of lokasmriti, as well as some of the work done a decade or so earlier around the concept of vidyaloka. He said that research done with this tool will definitely produce some outcome. Chitra ji recalled work done by Ravish Kumar of Delhi in the past to explore the inter-relation between loka and shastra. She suggested that we might add dynamic of relations (i) between the state, and (ii) between Nature and the bahujan samaj to lokavidya and ordinary life as objects of research. - Study of Lokavidya Samaj – The Rationale: GSR Krishan talked about the Bengaluru initiative and its importance in understanding the changes in the last 70-80 years that have happened in the lokavidya samaj and our activity based on that. The procedure for the Study has been finalized and close to a hundred teachers have been contacted to implement the questionnaire-based survey in institutes where the students belong mostly to the Bahujan Samaj. That work should begin after May. In the other part of the Study planned to be completed by end of October, GSRK and Suresh and possibly a few more friends will be visiting villages and interviewing people. A large number of studies on post-independence Indian villages exist (Srinivas, Dubey, Beteille, etc., PhD studies). These will be explored too.
Abhijit suggested the PARI (P. Sainath) website as a resource. GSRK agreed and mentioned studies on farmer suicides etc., as well as many literary works (Kusum Nair’s Blossoms in the Dust, etc.) as important source materials too. Krish suggested that the questionnaire may be translated into other regional languages so that similar work may be possible in other states / regions. - On line presence and VA Website: Girish talked briefly of the Note circulated earlier dwelling on the two suggestions in the Note: (i) a new substantial page devoted to the Research Program pointing to all the material produced etc., and (ii) developing the website as a seriously multilingual portal, not just to increase its audience but aimed at developing new language and vocabulary capturing the ideas, the political imagination, etc. that we have been talking about as well as the outcome of the research being planned.
Gandhi suggested that we should include on our website links to material of interest to us elsewhere, or even link to another website. He cited example of DKS journal. Others may be requested to provide link to our website too. Naresh suggested incorporating page translators into the website. Many suggested adding audio-visual content to the website. - Programs (and publications): Chitra ji talked about the four-fold program proposed for the next year under the heads: (i) LJA, (ii) Publications, (iii) Research Program, and
(iv) Social Media. Incomplete discussions centered on specific suggestions. The members were broadly agreed on the proposals.
Gandhi suggested more discussions on the book proposal, on compiling “Samajon ki kahani samajon ki jubani” stories and on Swaraj. Naresh said he is already working on a paper on lokavidya, Swaraj and Gandhi. Sunil suggested that we need to write on a broad variety of topics based on a broad set of positions and ideas as we have been doing earlier – but more extensively. hopefully to lead us to be self-critical to a degree that will help the research program too. GSRK talked of a need to think anew, give up some of our pet ideas, which is something we can do unlike political activists, and academics committed to some stream. He said we can generate some you tube content in the form of personal stories and discussion on our ideas. Vijay said we may explore the transition of the country from independent country of independent villages … etc. as (Vinoba described it) to today’s independent country of dependent villages, to produce data and strong argument. - Finances, Audit and Accounts and Donations: Sunil said that the annual expenditure last year was bout 14Lakh. This FY (ending 31st Mar 2024) it is around 10Lakh. Remuneration to activists is low by any standards and some increase in donations will be welcome. This may be discussed sometime in one of our Weekly Meetings. The Audited Statement of Accounts circulated earlier was adopted.
- The general political situation in the country and in the world, and lokavidya initiative.: Speaking on this Krish drew attention to how, globally over, apparently accepted processes like general elections seem to have brought dictatorial, authoritarian forces, individuals, and parties into political power. It is not that the processes are vitiated in some manner with no sanction. The issue is how to question these forces and their actions? Apparently this is happening as there are no alternative visions of the future. He said that sant-parampara is the only basis for imagining a future society without the ills and injustice of the present order.
- Any other matter and Concluding remarks by the Chair: No matter other than those already covered above.
- Concluding remarks by the Chair: No concluding remarks were deemed necessary by the Chair.
चित्रा सहस्रबुद्धे (29 Feb 2024)
इस रविवार 3 मार्च 2024 को वाराणसी में होने जा रहे ‘महिला अधिकार सम्मलेन’ के अवसर पर लोकविद्या जन आन्दोलन कुछ कहना चाहता है. सम्मलेन के लिए हमारी शुभ कामनाएं.
राजनीतिक, अकादमिक, स्वयंसेवी या सरकारी, सभी महिला संगठनों से हमारी अपील है कि वे सामान्य महिलाओं के ज्ञान, उनकी स्वयंस्फूर्त शक्ति और पहल को स्त्री-समाज की सक्रियता का आधार बनाने में आगे आयें.
चुनौती
मनुष्य-समाज में गैर-बराबरी और प्रकृति का बड़े पैमाने पर विध्वंस, दोनों मिलकर, आज की दुनिया के सामने निरंतर एक के बाद एक सबसे बड़े और दर्दनाक दृश्यों को खड़े करते जा रहे हैं. ऐसा करने में लगी नीतियों, साधनों, तकनीकों और व्यवस्थाओं को ’विकास’ का नाम देना संवेदनहीन होने के ही सबूत हैं. संवेदनशील होने की ज़रूरत है. लेकिन पूंजीवादी विचार और व्यवस्थायें संवेदनाओं को ज्ञान का अंग मानने से शुरू से ही इनकार करती रही हैं.
पिछली सदी के अंत में पश्चिमी देशों में उठे महिला विमर्श की एक सशक्त धारा ने इस बात को उठाया कि चूँकि पूंजीवादी व्यवस्थाओं (आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक आदि) का ज्ञान-आधार आधुनिक साइंस में रहा है इसलिए ये आक्रामक, अमानवीय, असामाजिक, ऊँच-नीच वाली और शोषणकारी व्यवस्थाओं को जन्म देती है क्योंकि साइंस में सिद्धान्ततः भाव-जगत की दखल अमान्य है. गरीब देशों की स्त्रियों की बदतर होती जा रही स्थिति का एक बड़ा कारण इसमें देखा गया है.
इस परिस्थिति में स्त्रियों की ज़िन्दगी की बेहतरी (न्याय, सम्मान, खुशहाली हासिल करने) के लिए आधुनिक साइंस को और पूँजी व राजनीति के साथ इसके मजबूत गठबंधन को चुनौती देने का रास्ता बनाना है. और इसके लिए सामान्य स्त्रियों की शक्ति की पहचान करना आवश्यक है. सामान्य स्त्रियाँ यानि किसानी, कारीगरी और छोटी पूँजी के सेवा और व्यवसाय के उद्यमों में कार्यरत लोगों और समाजों की स्त्रियाँ. इन सभी उद्यमों में लगी स्त्रियों की उत्पादनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रबंधनकर्ता के रूप में स्पष्ट पहचान है. ये सभी स्त्रियाँ आज केवल अपने हित में नहीं बल्कि अपने समाज के शोषण के खिलाफ खड़ी नज़र आती हैं.
सामान्य स्त्रियों में निहित दार्शनिक, उत्पादक, संगठनात्मक और नेतृत्वकारी शक्तियों का ज्ञानगत आधार आधुनिक साइंस, पूँजी व राजनीति के गठबंधन को चुनौती दे सकता है.
दावा
लोकविद्या जन आन्दोलन की ओर से हाल ही में काठमांडू, नेपाल में हुए हुए विश्व सामाजिक मंच (15-19 फरवरी 2024) से सामान्य महिलाओं के ऐसे ज्ञान-आन्दोलन को गढ़ने का दावा पेश किया गया, जिसका आधार विचार नीचे दिया जा रहा है.
हर समाज की सामान्य महिलाओं में मनुष्य की बुनियादी संवेदनाओं का विशाल भण्डार होता है. इनके बल पर वे पालन-पोषण के नित नवीन तरीके इजाद करती हैं, जो मनुष्य के नैतिक, भौतिक और कलात्मक ज्ञान-पक्षों को गढ़ते हैं. संवेदनायें किसी भी तरह के ज्ञान का अंतर्निहित अंग हैं इसका ठोस सबूत स्त्री-ज्ञान में है.
संवेदनाओं से पूर्ण ज्ञान सभी के लिए बेहतर, न्याय और सम्मानपूर्ण दुनिया बनाने की बुनियाद है. यही इन्सान होने की पहचान है. सामान्य स्त्रियों का ज्ञान किसानी, कारीगरी, सेवा और छोटे उद्यमों की हर प्रक्रिया तथा प्रकारों में इन मूल्यों का संवर्धन करता है. यही वजह है कि संतों के दर्शन संवेदनाओं को ज्ञान का अभिन्न अंग मानते रहे हैं.
आवाहन
- आज की दुनिया में सबसे अधिक संख्या में सामान्य स्त्रियों के पास वस्त्र निर्माण और खाद्य निर्माण का ज्ञान है. साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ सामान्य स्त्रियों के ज्ञान-आन्दोलन का पहला चरण यहीं से शुरू होता है. वस्त्र और खाद्य के क्षेत्र स्त्रियों की ज़िम्मेदारी में रहें. यह मांग उन्हें किसान और कारीगर समाजों के साथ बराबरी से खड़ा होने का ठोस आधार देती है.
- देश की कृषि नीति और उद्योग नीति बनाने में सामान्य स्त्रियाँ अपने ज्ञान का दावा पेश करें और देश के किसान-समाज और कारीगर-समाज के साथ खड़ीं हों.
- इन समाजों की प्रमुख मांग यह हों कि स्थानीय स्तर से वस्त्र और खाद्य निर्माण में लगे सभी स्त्री-पुरुषों की आय सरकारी कर्मचारी जैसी हो.
- प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र स्त्री-ज्ञान पर आधारित हों तभी समाज में नैतिक मूल्यों का बीजारोपण हो सकता है. ये सेवा क्षेत्र स्थानीय स्तर से स्त्रियों के पास हों.
- हम दुनिया के महिला संगठनों से अपील करते हैं कि वे अपने समाज और बृहत् समाज के लिए स्त्रियों की ज्ञान-आधारित प्रखर भूमिका को पहचानें और एक ऐसे स्त्री आन्दोलन को आकार दें जो एक दूसरी, नई, बेहतर और न्यायपूर्ण दुनिया बनाने की ओर बढ़े.
चित्रा सहस्रबुद्धे, समन्वयक, विद्या आश्रम (27 Feb 2024)
दिन : रविवार, 28 जनवरी 2024
समय : शाम 3.00 से 5.00
कार्यवाही
विद्या आश्रम कार्यकारिणी की वर्ष 2023-24 की दूसरी बैठक 28 जनवरी 2024 को दोपहर 3.00 बजे से शुरू हुई. वाराणसी में रहने वाले कार्यकारिणी के सदस्य विद्या आश्रम पर पहुँच गए और अन्य शहरों में रहने वाले ज़ूम के द्वारा बैठक में शामिल हुए. बैठक की अध्यक्षता चित्राजी ने की और सञ्चालन गिरीश सहस्रबुद्धे ने किया.
उपस्थित सदस्य : प्रेमलता सिंह, एहसान अली, लक्ष्मण प्रसाद, अविनाश झा, कृष्णराजुलु, जे.के सुरेश, गिरीश सहस्रबुद्धे, अभिजित मित्रा और चित्राजी .
बैठक की शुरुआत वर्ष 2023-24 के दौरान हुए कार्यक्रमों पर हुई, जिसकी एक रपट संक्षेप में लिखकर पहले से ही सदस्यों में वितरित कर दी गई थी. चित्राजी ने इस वर्ष की प्रमुख गतिविधियों का उल्लेख करते हुए कहा कि विद्या आश्रम की पहचान अब एक ऐसे विमर्श स्थान के रूप में हो चुकी है, जहाँ बहुजन समाज, जिसे हम लोकविद्या-समाज या स्वदेशी-समाज के नाम से जानते हैं, की शक्तियों को ऊर्जावान बनाने की दिशा में विचार और कार्य होता है. सामान्य लोगों की नैतिक और परिवर्तनकारी शक्तियों को उजागर करने का काम होता है. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के मिलने का एक स्थान विद्या आश्रम बन गया है.
इस वर्ष कबीर जन्मोत्सव कार्यक्रम के जरिये लोकविद्या जन आन्दोलन ने वाराणसी और वाराणसी से बाहर के सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर शहर के विविध इलाकों में सामान्य लोगों के बीच कबीर के दर्शन की प्रासंगिकता और परिवर्तनकारी शक्ति को उजागर किया. सत्य, न्याय, भाईचारा और प्रेम के मूल्यों की पुनर्स्थापना के साथ समाज संगठन और सञ्चालन के उन बिन्दुओं की पहचान करने की कोशिश की गई जो सामान्य लोगों के ज्ञान की पहल और गुणवत्ता को बराबर का सम्मान और दर्जा दे. वाराणसी ज्ञान पंचायत कार्यक्रम ने एक कदम आगे बढाया है. इस कार्यक्रम के तहत अब वार्ड ज्ञान पंचायतें बनाने की ओर बढे हैं. वाराणसी ज्ञान पंचायत की पत्रिका ‘सुर साधना’ के अब तक कुल 5 अंक निकल चुके हैं और अब अंक 6 की तैयारी है. वार्ड सलारपुर और वार्ड जलालीपुरा में वार्ड ज्ञान पंचायत बनाने की बैठके भी हो गई हैं. इन बैठकों में ज्ञान पंचायत की भूमिका पर विस्तार से चर्चा होती है. लोकनीति संवाद के कार्यक्रम का विस्तार किया गया और स्थानीय लोगों के साथ संवाद के वीडियों बनाये गए. इंदौर से कला के क्षेत्र में लोकविद्या आधारित प्रस्तुतियों का आयोजन हुआ. लोकविद्या यात्राओं और सत्संगों के मार्फ़त लोकविद्या वार्ताएं चलीं. लोकविद्या वार्ता के व्हाट्सएप्प समूह की प्रत्येक मंगलवार को वार्ताएं चलती रहीं हैं. इन वार्ताओं में किसान आन्दोलन, स्वराज और वितरित सत्ता के मुद्दे विशेष स्थान लेते रहे. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी वार्ताएं हुईं. इन वार्ताओं के कुछ आधारभूत पर्चें अब विद्या आश्रम की वेब साईट पर पढ़े जा सकते हैं. विद्या आश्रम की वेब साईट का नवीनीकरण हुआ है. वेब साईट अब सुन्दर, सहज और आकर्षक बनी है. इसे अब हिंदी, मराठी और अंग्रेजी भाषाओं में पढ़ा जा सकता है.
लक्ष्मण प्रसाद ने वाराणसी से किसान समाज के बीच वार्ता के निरंतर चलते रहते कार्यक्रमों के बारे में बात रखी. संयुक्त किसान मोर्चा और भारतीय किसान यूनियन की गतिविधियों को सामने रखा.
‘बहुजन रिसर्च प्रोग्राम’ को चलाने की बात पिछले एक दो महीने से लोकविद्या समूह में चर्चा का विषय बनी. वाराणसी और चंडीगढ़ में इस विषय पर बैठकें भी हुई और लोकविद्या व्हाट्सएप्प समूह पर लगातार कई सप्ताह बात चली. इसी क्रम में बैठक में जे.के.सुरेश ने बंगलुरु से ली जा रही पहल ‘लोकविद्या-समाज रिसर्च कार्यक्रम’ के बारे में विस्तार से अपनी बात रखी. यह रिसर्च लोकविद्या-समाज के अन्दर पिछले दो दशकों में हुए परिवर्तनों को रेखांकित करने की कोशिश हैं. कर्णाटक में तकनीकी, राजनीति, सामाजिक आदि पक्षों में हुए परिवर्तनऔर लोकविद्या-समाज के अपने ज्ञान को सामने लाने का प्रयास रहेगा. सभी ने इस पहल का स्वागत किया और इसे शुरू करने के पक्ष में सहमति दी. राय यह भी रही कि वाराणसी, इंदौर और अन्य शहरों से भी इस दिशा में प्रयास हों तो अच्छा होगा.
विद्या आश्रम न्यास समिति की बैठक के लिए सर्वसहमति से 17 मार्च 2024 की तारीख तय की गई और इस पर न्यास के सभी सदस्यों की राय आ जाने पर इसे पक्का कर दिया जायेगा. बैठक विद्या आश्रम पर हो या ज़ूम हो इस बारे में भी न्यास के सदस्यों की राय आने के बाद तय होगा.
प्रकाशन के क्षेत्र में ‘सुर साधना’ के अलावा अधिक कार्य नहीं हुआ है. स्वराज पुस्तक माला के लिए सामग्री के संकलन का कार्य जारी है. हाल ही में 15-19 फरवरी 2024 में काठमांडू, नेपाल में होने जा रहे विश्व सामाजिक मंच में लोकविद्या जन आन्दोलन की ओर से एक युवा समूह शामिल हो रहा है. इस अवसर पर ‘सबकी आय पक्की, नियमित …’ का अंग्रेजी संस्करण तैयार किया गया.
वित्त के बारे में यह कि दिसंबर के अंत तक लगभग 6.20 लाख खर्च हो चुके हैं और आगे 2.50 या 3.00 लाख तक का खर्च होगा. उम्मीद है कि यह जुट जायेगा.
आश्रम की व्यवस्थाओं में फिलहाल यह कि वाराणसी विकास योजनाओं के तहत विद्या आश्रम की भौतिक स्थिति कितने दिनों तक बनी रहेगी इसकी कोई नई सूचना अभी नहीं मिली है.
वर्ष 2024-25 के लिए वाराणसी ज्ञान पंचायत, प्रकाशन और बहुजन रिसर्च प्रोग्राम ये प्रमुख कार्यक्रम होंगे इस बात पर सहमति बनी.
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Articles, Discussion Notes, Papers
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चर्चा के लिए
प्रस्ताव
सुनील सहस्रबुद्धे (26 Apr 2024)
1995 से अब तक लोकविद्या विचार और दर्शन पर जितने भी चिंतन, प्रकाशन और संगठनात्मक व रचनात्मक कार्य हुए हैं वे एक नई विश्वदृष्टि का व्यापक फलक बनाते हैं. सृष्टि और समाज में न्याय, त्याग और भाईचारा पर गढ़ी हुई बुनियादी सत्ता का सत्य ‘लोकविद्या’ और ‘सामान्य जीवन’ के आपसी गतिशील संबंधों में बसा दिखाई देता है. इस सत्य के उजाले में समाज की परिवर्तनकारी शक्तियों की खोज, निर्माण, संवर्धन, नवीनीकरण आदि के प्रयास मनुष्य और मनुष्य समाज की गतिविधियों के उन विविध पक्षों से साक्षात्कार करा सकते हैं, जो एक नई और बेहतर दुनिया को बनाने के आधार होंगे.
इस ओर बढ़ने की दृष्टि से एक शोध का विचार पत्र प्रस्तुत है.
अधिकांश विचारों की व्याख्या और सन्दर्भ इस वेबसाईट पर और लोकविद्या जन आन्दोलन के ब्लॉग तथा दर्शन अखाडा के ब्लॉग पर मिलेंगे.
1. शोध के बारे में दो शब्द
संक्षेप में कहें तो यह शोध बहुजन-समाज की उज्जवल परम्पराओं की खोज है, जो हमें एक नये समकालीन राजनैतिक चिंतन की ओर ले जाये.
कुछ प्रमुख बिंदु हैं –
- सामान्य जीवन की परंपरा बहुजन-समाज की जीवन परंपरा है.
- लोकविद्या की परम्परा बहुजन-समाज की ज्ञान परम्परा है.
- स्वराज की परंपरा बहुजन-समाज की राज परंपरा है.
- संत परम्परा बहुजन-समाज की परंपरा है.
- स्वदेशी दर्शन बहुजन-समाज का दर्शन है.
- पंचायत की परंपरा बहुजन समाज द्वारा समाज के संगठन, संयोजन एवं नियमन (कानून एवं व्यवस्था) की परंपरा है. इसे इस देश के विधि-विधान की मौलिक परंपरा के रूप में देखा जा सकता है.
- समाज के वित्तीय संगठन, उत्पादन और लेन-देन की परम्पराएँ बहुजन-समाज में प्रचलित वितरित व्यवस्थाओं के विचारों के अनुकूल रही हैं.
- इन सभी बिंदुओं को आपस में गूंथना ही यह शोध है. कहा जा सकता है कि इस गूंथने का सक्रिय गतिशील रूप एक बहुजन ज्ञान संवाद है.
ये इस शोध की पूर्व मान्यताएं (हाइपोथिसिस ) हैं. शोध की बनावट और उसका विस्तार इस दृष्टि से किया जाएगा कि इन मान्यताओं अथवा इस समझ के विभिन्न बिन्दुओं पर प्रकाश पड़े. वे कितने सही हैं और कितने गलत, तथा उनका सार व स्वरुप क्या है, यह कई कोणों से सामने आए.
‘सामान्य जीवन’ और ‘लोकविद्या’ के गतिशील संबंधों पर एक व्यापक दृष्टि बनाने के रास्ते में कई चुनौतियाँ सामने खड़ी मिलती हैं. इन चुनौतियों को पहचानने और उनसे मुकाबला करने की दिशा और तरीकों पर एक सरसरी निगाह निम्नलिखित बिन्दुओं के मार्फ़त रखी गई है.
2. ‘राजनीतिक विचार और राजनीति’ के बंधन
- ‘सामान्य जीवन’ के उल्लंघन के विरुद्ध संघर्ष को बुनियादी अर्थों में राजनीतिक कहा जा सकता है।
- समकालीन विश्व में राज्य, साइंस और पूंजी सामान्य जीवन के उल्लंघन के प्रमुख स्रोत हैं। इसलिए, साइंस के विरुद्ध, पूंजी के विरुद्ध और राज्य के विरुद्ध संघर्ष बुनियादी तौर पर राजनीति को परिभाषित करते हैं. आम बोलचाल की भाषा में इन्हें परिवर्तनकारी राजनीतिक गतिविधि कहा जा सकता है।
- लेकिन इससे एक अजीब स्थिति पैदा हो जाती है. इस प्रकार वह गतिविधि राजनीतिक गतिविधि कहलाती है जिसका उद्देश्य ‘राजनीतिक समाज’ को उखाड़ फेंकना है। राजनीतिक समाज वह है, जो साइंस, पूंजी और राज्य के उद्भव के साथ बना है। अब तक लगभग सभी भाषाएँ, कम से कम सार्वजनिक क्षेत्र की भाषा, मुख्यतः इस राजनीतिक समाज की भाषा हैं। इसलिए सही ढंग से कहें तो मुक्ति के बुनियादी संघर्ष ‘राजनीतिक संघर्ष’ नहीं हैं और फिर भी आम बोलचाल में उन्हें ‘राजनीतिक संघर्ष’ कहा जाता है.
- एक बुनियादी ज्ञान आंदोलन के संदर्भ में यह शब्दावली या भाषाई समस्या हल करने के उपाय मिलते हैं. इसलिए, यदि कोई बुनियादी, परिवर्तनकारी अर्थ में राजनीति करना या उसके बारे में बोलना चाहता है तो उसे अपनी गतिविधि और संवाद को ‘ज्ञान आंदोलन’ में अवस्थित करना होगा. इनमें से कुछ बातें बहुत स्पष्ट हो जाती हैं जब हम गांधी के समय में इन बातों को घटित होते देखते हैं. हम गांधी को एक नए ज्ञान आंदोलन और एक नए राजनीतिक आंदोलन दोनों के निर्माता के रूप में देख सकते हैं और दोनों को उचित रूप से बुनियादी परिवर्तनकारी आंदोलन कहा जा सकता है.
- तब हम देखेंगे कि एक बुनियादी राजनीतिक आंदोलन लोगों के ज्ञान आंदोलन से अलग नहीं हो सकता।
- अगर हम इस देश को ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के रूप में विभाजित देखें तो आजादी के बाद की सारी राजनीति इण्डिया की राजनीति दिखाई देगी. यदि साइंस, राज्य और पूंजी को एक-दूसरे के साथ गुंथे हुए देखेंगे तो आप इण्डिया को देखेंगे. ‘सामान्य जीवन’ को उसकी पूरी प्रतिष्ठा बहाल करने की आवश्यकता का दावा जब लोगों के ज्ञान आंदोलन (लोकविद्या आंदोलन) के साथ आएगा तब भारत के लायक राजनीति बनेगी.
- यह देश ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के रूप में विभाजित है तथापि यह एक गतिशील परिस्थिति है और दोनों को एक दूसरे में भी देखा जा सकता है। कोई भी आसानी से भारत में जीवन और आकांक्षाओं के विभिन्न पहलुओं को इंगित कर सकता है, जो इण्डिया में जीवन और आकांक्षाओं के समान हैं. इसी तरह इण्डिया में जीवन के उन विभिन्न पहलुओं को देखा जा सकता है जो भारत में प्रचलित हैं. ‘सामान्य जीवन’ का विचार विभाजन को पाटना है, नया विभाजन पैदा करना नहीं. सामान्य जीवन केवल सामान्य पुरुषों और महिलाओं का जीवन नहीं है, यह सर्वव्यापी है। संत-परंपरा नित नवीन परिस्थितियों (उल्लंघन, हाशियेकरण, दमन आदि) में विचार और व्यवहार में सामान्य जीवन के नव-निर्माण और पुनर्सृजन की परंपरा है.
- दर्शन परम्पराएँ जिनमें सत्य, स्वायत्तता और सहजीवन (भाईचारा) के विचार प्रमुख भूमिका में होते हैं, वे ही ‘राजनीतिक-समाज’ के विकल्प में ‘वितरित सत्ता’ अथवा ‘स्वायत्त इकाइयों के सहजीवन’ पर आधारित समाजों के संगठन और सञ्चालन का विचार ला सकते हैं. यह स्वराज का विचार है.
3. सामाजिक विचार
- राजनीतिक दृष्टि से देश का सामान्य जन-समाज एक दो राहे पर खड़ा है. या तो वह समाज में बड़े संरचनागत परिवर्तन की ओर आगे बढ़ने का रास्ता चुने या फिर वर्तमान व्यवस्था में अपने लिए अधिक से अधिक जगह प्राप्त करने के रास्ते बनाये. ये दोनों बातें अलग तो हैं किन्तु एक दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं तथा समाज से सरोकार रखने वालों के बीच लम्बे समय से बहस का विषय रही हैं और रहेंगी.
- देश के सामान्य जन-समाज यानि बहुजन-समाज की सार्वजनिक उपस्थिति, राजनीतिक भूमिका और एक समाज के रूप में गोलबंदी आज एक नए मोड़ पर है. जन गणना में जाति की पहचान लिखी जाने के अभियान के रूप में यह दिखाई दे रहा है. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सभ्यता, संस्कृति और नस्ल के मुद्दे बहस में आ चुके हैं. इसलिए अब बराबर के सम्मान और आय के पक्ष में परिवर्तन की राजनीति की दिशा का पुनर्निर्माण आवश्यक है. जाति का विमर्श बहुजन-समाज का विमर्श ही है. अपने समाज पर फिर से एक नज़र डालने की ज़रुरत है.
- बहुजन-समाज सामान्य लोगों का समाज होता है (विशिष्ट जनों का नहीं). इसे अलग-अलग ढंग से जातियों के मार्फ़त, समाज के रूप में, बिरादरियों के मार्फ़त, मुख्यधारा से बहिष्कृत लोगों के रूप में, अंग्रेजी राज के पहले से अस्तित्व रखने वाली सामाजिक संरचनाओं के रूप में अथवा सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ों के रूप में पहचाना जाता है. कौन सी पहचान को प्राथमिकता दी जाए अथवा पहचान का वरीयता क्रम क्या हो यह इससे तय होता है कि आप के उद्देश्य क्या हैं, और यह कि समाज निर्माण, परिवर्तन और प्रगति के आप के विचार क्या हैं?
- यह देश और यहाँ का धर्म बहुजन-समाज का है. संत परम्परा बहुजन समाज के विचारों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है. इसने धर्म को लोक-भागीदारी के मार्फ़त लोकधर्म के रूप में खड़ा किया. अब हिंदुत्व के नाम से एक नया धर्म इन पर थोपा जा रहा है. इतिहास के अधिकांश काल में बहुजन समाजों के ही राजा रहे. ध्यान रहे कि उनके राज में सामान्य जीवन और स्वायत्तता का सम्मान रहा. यह ज़रूर हुआ कि अलग-अलग समयों पर ब्राह्मणों, मुगलों और अंग्रेजों ने इन पर राज करने की व्यवस्थाएं बनाईं. इसका अर्थ यही है कि बहुजन-समाज के पास जीवन संगठन, राज और समाज-सञ्चालन का दर्शन रहा है, जिसके बल पर सभ्यता और संस्कृति के कीर्तिमान गढ़े गये हैं.
- बहुजन-समाज अपना रास्ता अपने दृष्टिकोण, दर्शन और हितों के जरिये चुने इसके लिए यह आवश्यक प्रतीत होता हैं कि बड़े पैमाने पर इस विषय पर सार्वजनिक बहस हो. यह बहस आज के प्रभु वर्गों के विचारों से स्वतंत्र होना ज़रूरी है और इसलिए बहुजन-समाज के दर्शन, इतिहास, राजनीति, और संभावी भविष्य को लेकर विस्तृत शोध व अनुसंधान की ज़रूरत है. यह अनुसंधान विश्वविद्यालय के अनुसंधान से सर्वथा अलग होगा क्योंकि विश्वविद्यालय के अनुसंधान पर पश्चिम की आधुनिक दार्शनिक परम्पराओं और ब्राह्मणों के विचारों का आधिपत्य है और उसमें बहुजन-समाज के दर्शन और उनके दर्द के लिए कोई स्थान नहीं है.
- बहुजन-समाज यह अनेक स्वायत्त लघु समाजों से बना समाज रहा है. समाज संगठन के ये विविध प्रकार लोकविद्या और सामान्य जीवन में गतिशील संबंधों के चलते नितनवीन और विविध आकार लेते रहे हैं. इनके निर्माण, गति और स्थायित्व की प्रक्रिया वितरित सत्ता के जल से सींची जाती रही हैं. एक तरह से लोकविद्या, सामान्य जीवन, समाज और स्वराज ये परस्पर नवीन और पुनर्निर्मित होते रहते हैं.
- लोकविद्या परम्परा बहुजन समाज की ज्ञान परम्परा है. आज की दुनिया में इस ज्ञान परम्परा का सामाजिक हस्तक्षेप स्वदेशी दर्शन और स्वराज के बीच की कड़ी बनाता है.
4. ज्ञान, उत्पादन, तकनीकी, व्यवस्था और प्रबंधन
- मनुष्य के ज्ञान और उसकी रचनात्मक ऊर्जा का प्रेरणास्रोत कहाँ होता है, इस बारे में कई तरह के विचार होते हैं. एक दृष्टिकोण में इसे मनुष्य की आवश्यकताओं में देखा जाता है, किसी ने शासन की ज़रूरतों में, तो किसी ने विकास की आवश्यकताओं में देखा, कोई खुशहाली के व्यापक उद्देश्यों के मार्फ़त देखता है, तो कोई नैतिक मूल्यों में उसकी जड़ें मानता है.
- उत्पादन, वितरण, प्रबंधन, संचार-संपर्क और व्यवस्था का ज्ञान, समाज संगठन और सञ्चालन के मौलिक सिद्धांतों को आकार देता है. बहुजन समाज में यह ज्ञान कुछ क्षेत्रों में प्रखर रूप में देखा जा सकता है. विशेषकर महिलाओं और छोटी पूँजी पर जीवनयापन करने वाले समाजों में यह अधिक स्पष्ट है. इनमें, न्याय, स्वायत्तता, मर्यादा, प्रेम, भाईचारा, त्याग और सहजीवन के व्यवहारिक रूप सामने आते हैं.
- बहुजन-समाज द्वारा सिद्धांत, व्यवहार और आवश्यकता आदि को ‘सामान्य जीवन’ और ‘लोकविद्या’ की कसौटी पर आंकने का अर्थ क्या है? समाज में किसी भी नए कदम और रचना के निर्णय और निर्माण के लिए, उसके लिए लगने वाले संसाधन, ज्ञान, तकनीकी, प्रक्रिया, उपभोग, पैमाना, स्वास्थ्य पर प्रभाव, अन्य जीवों और पदार्थों पर आने वाले परिणाम, आवश्यक संस्थाओं का निर्माण और संचालन आदि प्रत्येक पक्ष को विस्तार और गहराई से देखा जाता है.
5. दर्शन, दार्शनिक संवाद और ज्ञान आन्दोलन
- ऐसा कहा जाता है कि आज तकनीकी और विशेषज्ञता का दौर है. ऐसा कहने वाले व्यापक मानव हित तथा दर्शन इत्यादि पर चर्चा को गैरज़रूरी समझते हैं. तथापि वास्तविकता यह है कि सभी कार्यों में कोई न कोई दर्शन निहित होता है और मानव जीवन पर होने वाले दूरगामी नतीजे भी निहित होते हैं. व्यापक बहस और दर्शन से किनारा कसना आत्मघाती है. प्रकृति का विनाश और मनुष्य और मनुष्य के बीच भयानक अंतर ये सब ऐसे ही नतीजे हैं. दूसरे महायुद्ध के बाद, यानि 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में, दुनिया की पुनर्रचना में दर्शन को उचित स्थान नहीं दिया गया, न पश्चिम के देशों में और न नवोदित राष्ट्रों में. यह एक बड़ा कारण है कि आज दुनिया गरीबी, गैर-बराबरी, भयानक युद्धों और जलवायु संकट से घिरी हुई है.
- 20 वीं सदी के पूर्वार्ध में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से संघर्ष के दौरान वैश्विक दक्षिण के अनेक देशों में दर्शन पर व्यापक चर्चाएं हुई हैं. इनमें से बहुत सी अपनी स्वदेशी परम्पराओं की समकालीन पुनर्रचना के रूप में सामने आईं. 1939 से 1945 के बीच यूरोप से शुरू हुए महायुद्ध के बाद तमाम उपनिवेश स्वतंत्र हुए तथा साम्राज्यवाद को पीछे हटना पड़ा और अनेक देशों में आज़ाद सरकारें बनीं. किन्तु इन देशों मेंपश्चिम के देशों जैसी राज्य प्रणाली, उन्हीं के जैसा औद्योगीकरण तथा विश्वविद्यालयों में पश्चिमी सोच के दबदबे के चलते स्वदेशी दार्शनिक परम्पराओं का स्थान समाज में गौण हो गया. इससे समाज की प्रमुख धारा और सामान्य लोगों के बीच का दार्शनिक संवाद टूटता चला गया. यह एक भीषण परिस्थिति है, जिसमें समाज के उत्थान और पुनर्रचना के लोकप्रिय मूल्यों का निर्माण रुक जाता है और समाज एक अवनत अवस्था में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है. ऐसा नहीं है कि इस दौर में हुई वार्ताओं का स्वदेशी के विचार के साथ कुछ लेना-देना नहीं है . जन आंदोलनों के अंतर्गत तथा लोकहित के मुद्दों पर संघर्षों के सन्दर्भ में बुनियादी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक चर्चाएं हुईं, किन्तु ये चर्चाएं स्वदेशी दार्शनिक परम्पराओं से न जुड़ सकीं.
- 20 वीं सदी के अंत में वैश्विक स्तर पर बड़े आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी (इन्टरनेट) परिवर्तनों के साथ एक नए युग की शुरुआत हुई है जिसे हम संवाद का युग कह सकते हैं. इस दौर में जहाँ एक तरफ पश्चिम में उपजी और दुनियाभर में फैली कई दर्शन धाराओं की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े होने लगे, वहीँ दर्शन की स्वदेशी धाराओं से प्रेरणा लेने के मौके पैदा हुए हैं, हालाँकि सामान्य लोगों के साथ दार्शनिक संवाद टूटने का संकट बहुत बड़ा है.इसके चलते विचारों के पुनर्निर्माण और दर्शन के पुनरोदय के स्रोत सूखे नज़र आते हैं. ऐसे समय में दर्शन पर खुल कर बहस की आवश्यकता होती है. यह आवश्यक होता है कि दर्शन पर संवाद एक शक्ति के रूप में उभरे.
- दर्शन आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों एक साथ होता है. वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों एक साथ होता है. विचार दार्शनिक तभी होता है जब वह सीमाओं में नहीं बंधता. दर्शन को किसी शैक्षणिक योग्यता, विशेषज्ञता अथवा समाज में विशेष स्थान की आवश्यकता नही होती. यह निर्मल और सहज बुद्धि से दुनिया को देखने का प्रयास है. दर्शन की इस समझ के साथ इस उद्देश्य से देखने कि दुनिया को बेहतर बनाने के लिए आज मनुष्य और समाज की शक्ति के स्रोत क्या हैं और कहाँ हैं ?
- सहज बुद्धि और शक्ति के स्रोत दोनों उतने ही परिवर्तनशील होते हैं जितना परिवर्तनशील सामान्य समाज व जीवन होता है. इसलिए यहाँ दर्शन के वे रूप सामने आते हैं, जिन्हें किन्हीं पूर्व मान्यताओं के अंतर्गत समझना अथवा स्थापित करना एक असहज कार्य होगा.
- बहुजन समाज की दर्शन परम्परा संत परंपरा में अपनी सुन्दर अभिव्यक्ति पाती है. यह समाज के निर्माण और पुनर्निर्माण की वह परम्परा है जिसे सत्य के निर्माण और पुनर्निर्माण के रूप में भी देखा जा सकता है तथा इसमें वर्तमान अध्ययन के सन्दर्भ का एक महत्वपूर्ण पक्ष देखा जाना चाहिए.
- आधुनिक दुनिया में ‘ज्ञान’ और ‘अस्तित्व’ का अलगाव साइंस, पूंजी और राज्य के उद्भव के काल से होता है। इन्हें ‘सामान्य जीवन’ के उल्लंघन के मुख्य स्रोतों के रूप में देखने से उस ओर बढ़ने के रास्ते खुलते हैं जहां ज्ञान और अस्तित्व अलग नहीं होते। तब लोकविद्या और सामान्य जीवन अविभाज्य दिखाई देते हैं। एक के बिना दूसरे का संज्ञान संभव नहीं है। सामान्य जीवन वह स्थान है जहाँ लोकविद्या होती है और लोकविद्या वह है, जिसे सामान्य जीवन में ज्ञान कहा जाता है। यानी समाज में एक व्यापक आमूल बदलाव का आन्दोलन अर्थात एक बुनियादी राजनीतिक आंदोलन लोगों के ज्ञान आंदोलन से अलग नहीं हो सकता। यही ज्ञान आन्दोलन स्वदेशी दर्शन और स्वराज के बीच की कड़ी है.
6. अनुसंधान की पद्धति
- इस अनुसंधान का घर किसानों और कारीगरों के बीच होगा, रोज़ की कमाई करने वाले ठेले-गुमटी-पटरी वालों तथा मजदूरों के बीच होगा, बड़े पैमाने पर स्त्रियों के विचारों, कार्यों, अनुभवों में होगा, एक शब्द में कहें तो उनके जीवन में होगा. देश की मुख्यधारा से सबसे ज्यादा कटे हुए आदिवासी समाज के लोग हैं और इस अनुसन्धान में उनके जीवन और तौर-तरीकों का बड़ा स्थान होगा.
- संतों के अनुयायियों से बातचीत शोध का एक प्रमुख हिस्सा होगा. जैसे गोरखनाथ, गुरुनानक, कबीर साहब, संत रविदास, संत तुकाराम, बासवअन्ना और तमिल, मलयालम, तेलुगु, उरिया, बंगला, तथा विविध प्रदेशों के संत.
- यह अनुसंधान मोटे तौर पर बहुजन ज्ञान संवाद होगा, जिसकी एक मूल मान्यता यह होगी कि बहुजन समाज एक ज्ञानी समाज है तथा यह अनुसंधान उसके ज्ञान को नए समकालीन रूपों में प्रस्तुत करेगा.
- बहुजन-समाज के व्यावहारिक ज्ञान, वस्तुओं को बनाने के शिल्प और कला से तो सब परिचित हैं तथापि इन दक्षताओं की पृष्ठभूमि में इनका अपना दर्शन होता है. यह संवाद इस दर्शन को सार्वजनिक पटल पर प्रस्तुत करने के रास्ते बनाएगा.
- यह अध्ययन संवाद के रूप में किया जायेगा. तरह तरह के संवाद. एक-एक व्यक्ति से अलग-अलग बात करना, समूह में चर्चा करना, स्थानीय बाज़ारों और गांवों तथा बस्तियों को इस अध्ययन की दृष्टि से गहराई से देखना, रिसर्च करने वालों द्वारा एक दूसरे का स्थान लेते रहना व आपस में विस्तार से चर्चा करना आदि.
- सामान्य लोगों के साथ वार्ता का एक बड़ा हिस्सा इस बात का होगा कि प्रयास के साथ उन्हें लोकस्मृति, कुलस्मृति, ग्रामस्मृति आदि के संसार में ले जाया जाये और स्मृति के उन विश्वों में उत्खनन (excavation) के लिए प्रेरित किया जाये. यह एक महत्वपूर्ण प्रयोग होगा और यदि इसके जरिये सामान्य जीवन में संगठन, प्रबंधन, व्यवस्था और ज्ञान के प्रश्नों पर कुछ नया प्रकाश पड़ता दिखाई दे तो इसका विस्तार किया जायेगा. अध्ययन के दौरान इसकी जांच सतत चलती रहेगी. इस जांच का रूप भी प्रमुखतः लोगों से और आपस में वार्ता, गहराई से चिंतन और संत परंपरा से सन्दर्भों के मार्फ़त आकार लेगा.
- इन विषयों पर लिखित शब्द की खोज होगी. इसके प्रमुख रूप से निम्नलिखित स्रोत हैं.
- संत वचन और कार्य
- भाषाई साहित्य. उदाहरण के लिए हिंदी क्षेत्र में प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, हजारीप्रसाद, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, शुकदेव सिंह आदि.
- अंग्रेजों द्वारा किये गए लेखन, जो उनके लेखकों के हो सकते हैं अथवा शासन की (सर्वेक्षण) रिपोर्ट के रूप में हो सकते हैं.
- सामाजिक पंचायतों/संगठनों की कार्यवाही की रिपोर्टें.
- प्रमुख जन आन्दोलन और उनके विचार, प्रेरणा, मुद्दे और संगठन के प्रकार
- भाषा, कला और दर्शन की दुनिया के विवरण.
- सक्रिय कर्म: इस शोध का एक हिस्सा सक्रिय कर्म का होगा. विशेष रूप से लोकविद्या आंदोलन, बौद्धिक सत्याग्रह और ज्ञान पंचायत तथा इस शोध कार्य के बीच जीवंत लेन-देन का सम्बन्ध होगा.
7. वित्त
कितने पैसे की ज़रूरत पड़ेगी और कहाँ से आयेंगे इसका अनुमान अभी नहीं है. विद्या आश्रम अपने अनुदान से एक बहुत छोटी-सी शुरुआत कर सकता है. इसलिये इस रीसर्च प्रोग्राम के लिए आवश्यक वित्त और उसके स्रोतों के बारे में अपने उन मित्रों से बात करनी है जो वित्त प्रबंधन करते रहे हैं.
pdf: शोध-प्रस्ताव-2024-25
Girish Sahasrabudhe (12 Mar 2024)
The new redesigned VA website was launched in the last week of October 2023.
Our earlier website was based on a free WordPress theme and hosted on a WordPress server. It used one of the WordPress hosting plans which meant restrictions on usable WordPress capabilities. The new site also uses a third-party designed WordPress theme (Dynamism) that we have purchased. It is now hosted on a non-Wordpress server and uses the free WordPress software installed on the server. This allows free use of WordPress capabilities without any bar on the plugins, extentions, elements, etc that we can use. The theme we have is rich enough for all our forseeable needs.
We paid Rs 20000 for the new website design including (cost of the template) plus an annual recurring amount of Rs 5800 toward site hosting (server space), security (https) and domain name.
Almost all the content – apart from a few documents – on the old website is there on the new site. It is organized differently, but is probably more accessible because of multiple navigation routes. The Gallery page needs many additions in terms of past events / photos. Each Gallery entry was planned to have linked text document (pdf/html) – like, for example, the “Read More” link on https://www.vidyaashram.org/gallery/#KabirJayanti2023. This is still not done.
The daily maintenance of the website does not require any outside help. We can modify existing pages, use any of the page templates provided in the theme to add any number of new pages we want, design new pages as we like, use a large number of capabilities in terms of built-in elements and plug-ins, add free plug-ins at will, etc. As of now I am maintaining the website from home, spending much less than an hour a day on an average. Unfortunately, We do not have the statistics of page views, visitors etc, which we should keep track of. I have to see what to do about this.
In the coming weeks I suggest that we focus on:
- Design a new page for Lokavidya Research Program / Bahujan Knowledge Dialogue. This will contain the basic Statement on the Program, and statements, reports, publications, proposals, ideas, contributions made by all associated with Vidya Ashram / LJA etc as well as information of / links to / audios, videos of events organized. The idea is to maintain this as an active page to bring out the significance of the Program in the Knowledge Dialogue we wish to further. Suggestions are needed from all of us on this.
- Develop a strong multilingual aspect to the website by adding text / audio / video content in multiple languages. This naturally helps the above Research Program. It obviously also helps attract more people to the website. Most importantly it adds distributed content with hopefully creating Lokavidya and Knowledge Dialogue discourse and vocabulary in several languages. This is possible only with some active thinking on how to achieve this. Each of us should take charge of a language to organize this.
विद्या आश्रम (Mar 2024)
- लोकविद्या जन आन्दोलन
- वाराणसी से प्रमुख रचनात्मक कार्यक्रम वाराणसी ज्ञान पंचायत, वार्ड ज्ञान पंचायत, सुर साधना, लोकनीति संवाद, दर्शन अखाड़ा और प्रकाशन के इर्द-गिर्द होंगे। इनके बारे में कुछ विवरण विद्या आश्रम की वार्षिक रिपोर्ट 2023-24 में उपलब्ध है। लोकविद्या जन आन्दोलन (लोजआ) के कार्यों को मुख्य रूप से वाराणसी से चित्राजी, लक्ष्मण प्रसाद, फजलुर्रहमान, हरिश्चन्द्र, रामजनम मिलकर करेंगे.
- कोलकाता से बांग्ला में लोकविद्या ज्ञान संवाद विकसित करना। इसे अभिजित मित्रा आकार दें.
- लोजआ गतिविधियों को विविध स्थानों के सामाजिक आंदोलनों के साथ जोड़कर विकसित किया जाएगा. झाँसी (कृष्णा गांधी), नागपुर (गिरीश), इंदौर (संजीव), चिराला (मोहन राव), बेंगलुरु (सुरेश), कोलकाता (अभिजीत), संजान, वलसाड (सुनील छाबड़ा) आदि स्थानों से स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से इसका विस्तार किया जा सकता है.
- प्रकाशन
- प्रत्येक मंगलवार की ऑनलाइन बैठकों के रेकार्ड से लगभग 200 पृष्ठों की एक पुस्तक तैयार हो। जो लोग हिंदी पढ़ते हैं, वे हिंदी के लेखक कृष्ण कल्पित द्वारा रचित ‘हिंदनामा’ देख सकते हैं। हमारी पुस्तक का प्रारूप कुछ इसके समान हो सकता है, जिसका अर्थ है कि हममें से कई लोग किसान आंदोलन, स्वायत्तता, स्वराज, लोकविद्या, समाज और आय आदि जैसे विविध विषयों पर नोट्स लिख सकते हैं। इसे गांधी और गिरीश मिलकर संगठित कर सकते हैं.
- ‘21वीं सदी में स्वराज’ पर एक पुस्तक का संगठन और प्रकाशन वाराणसी से किया जाएगा। इसके जरिये स्वराज की दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन की एक एजेंसी के रूप में किसान-समाज को देखने पर बातचीत शुरू की जाएगी.
- लोकविद्या, स्वराज और महात्मा गांधी पर नरेश द्वारा एक सारगर्भित पेपर हो जिसे विद्या आश्रम की पुस्तिका का रूप दिया जायेगा.
- भारत के संतों और उनके द्वारा बनाई गई मजबूत दार्शनिक परंपरा पर एक पुस्तक का प्रकाशन हो. कृष्णराजुलु और लक्ष्मण प्रसाद इसकी ज़िम्मेदारी ले सकते हैं.
- अनुसन्धान कार्यक्रम :
- सुरेश और सिवरामकृष्णन द्वारा संचालित लोकविद्या-समाज अध्ययन पर बेंगलुरु से एक रिपोर्ट बनेगी. रामजनम और फ़ज़लुर्रहमान इनके साथ संवाद में रहेंगे ताकि नया सीखे और योगदान भी कर सकें.
- विद्या आश्रम, सारनाथ से सामान्य जीवन, बहुजन समाज और परिवर्तन की दिशा पर एक शोध कार्यक्रम विकसित किया जाएगा। इसे सुनील, अविनाश और आर्यमान मिलकर संगठित कर सकते हैं.
- सोशल मीडिया : सोशल मीडिया पर उपस्थिति सुनिश्चित एवं विस्तारित की जायेगी। गिरीश और हरिश्चंद्र मिलकर इस पर कार्य कर सकते हैं.
Excerpt from WSF 2024 Kathmandu Booklet (13 Feb 2024)
Struggles against the violation of ordinary life may be said to constitute the political in an emancipatory sense.
State, Science and Capital are the sources of violation of ordinary life in the contemporary world. So, struggles against Science, against Capital and against the State constitute emancipatory activities. In common parlance they will be radical political activity. But there arises a strange situation thereby. That activity is thus called political activity which aims at uprooting the political society. Political society is the one which has emerged with the appearance of Science, Capital and the State. By now almost all language, at least the language of the public domain, is largely the language of this political society. So properly speaking emancipatory struggles are not political struggles and yet they are ‘called political struggle’ in common parlance.
This terminological or linguistic problem is solvable maybe in the context of a radical knowledge movement. So if one wants to do or talk of politics in the emancipatory sense then one must locate his/her activity and discourse in a knowledge movement. Some of these things become very clear when we see these things happening during Gandhi’s time. We may see Gandhi as the builder of a new knowledge movement and a new political movement, both of which may be justifiably called emancipatory movements.
If we see this country as divided between India and Bharat then all politics after Independence represents India. If you see Science, State and Capital intertwined with one another you would be seeing India. Politics worth the salt would be produced perhaps by coming together of a knowledge movement of the people, a lokavidya movement and an assertion by the people that ordinary life needs to be restored to its pre-eminent status.
In the modern world separation of ‘knowledge’ and ‘being’ again dates back to the period of emergence of Science, Capital and the State. Seeing them as chief sources of violation of ordinary life, also gives us that conceptual space where knowledge and being are not separated. Lokavidya and ordinary life are then inseparable. Cognition of one without the other is not possible. Ordinary life is the only dwelling that lokavidya knows and lokavidya is what knowledge in ordinary life is called. Then we will see that an emancipatory political movement is not separable from a peoples’ knowledge movement.
Bharat and India may be seen as each being in the other. One can easily point out various aspects of life and aspirations in Bharat which are similar to the life and aspirations in India and conversely, see various aspects of life in Bharat spread out in India. The idea of ordinary life is to bridge the divide not to create a new one. Ordinary life is not just the life of ordinary men and women, it is ubiquitous. The sant-parampara (Saint Tradition) is the tradition of creation and re-creation of ordinary life in thought and in practice in ever new circumstances (of violation, marginalization, suppression etc.).
चित्रा सहस्रबुद्धे (20 Jan 2024)
लोकविद्या जन आन्दोलन, वाराणसी lokavidyajanaandolan.blogspot.com
ज्ञान पंचायत का विचार लोकविद्या आन्दोलन के द्वारा सामने आया है। इस लेख में इस विचार को खोलने विविध कार्यों के तहत इसके विकास के कुछ पक्षों को उजागर करने के प्रयास हैं.
समाज में ज्ञान के रूप और सम्बन्ध
लोकविद्या यानि समाज में बसा ज्ञान, लोकस्थ ज्ञान और इस ज्ञान की प्रतिष्ठा का आंदोलन लोकविद्या जन आंदोलन है। समाज के सामान्य लोग, स्त्री या पुरुष, जिस ज्ञान के बल पर अपनी और समाज की ज़िंदगी चलाते हैं, वह लोकविद्या है। ज़िंदगी को चलाने का अर्थ है, जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों से जुड़े अनेकानेक पक्षों के अस्तित्व, भूमिका, आपसी सम्बन्ध और उनके परीणामों के प्रति सजग दृष्टिकोण का सतत् विकास। सामान्य जीवन में तर्क, कार्य और परिणाम को जांचने की कसौटियां लोकविद्या के बल पर गढ़ी जाती हैं, जीवन के सर्वोच्च मूल्य और आदर्श की मान्यता और उसे पाने के मार्ग भी बनाये जाते हैं।
लोकविद्या जीवन और समाज दोनों को समृद्ध बनाने की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसे यूं समझें कि लोकविद्या समाज में बहती ज्ञान धाराओं का समुच्चय है, जो सतत् अपने दायरे को विस्तारित और संकुचित करता रहता है, नवीन ज्ञान धाराओं को समाहित करता है और मृत तथा विनाशकारी धाराओं को त्यागता या नियंत्रित करता है। ये धारायें अपनी स्वायत्त पहचान रखतीं हैं और लोकविद्या में समाहित रहती हैं; ठीक उसी तरह जिसतरह गंगाजी में अनेक जलधारायें मिलकर गंगा हो जाती हैं। लोकविद्या की प्रकृति बंधे या ठहरे पानी की नहीं है, यह सतत् गतिशील और नवीन है।
इन ज्ञान-धाराओं के बीच भाईचारे का रिश्ता समाज को ज्ञानमय, न्यायपूर्ण और सक्रिय बनाता है। समाज की समृद्धता, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों, का आधार इस भाईचारे के प्रगाढ़ होने से सीधा सम्बन्ध रखता है।
जबसे आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ है, बड़े-बड़े विश्वविद्यालय और स्कूल बने हैं, तब से ज्ञान पर बहस बंद हो गई है। इन सभी शिक्षा स्थानों पर आधुनिक ज्ञान यानि साइंस और साइंस आधारित दृष्टिकोण से पठन-पाठन होता है। साइंस आज के समय का सबसे अधिक संगठित ज्ञान है तथा ज्ञान के क्षेत्र पर उसका एकाधिकार है। समाज में बहतीं ज्ञान धाराओं यानि लोकविद्या को यह तुच्छ करार देता है। ज्ञान के क्षेत्र में ऐसी ऊंच-नीच समाज में ऊंच-नीच और अन्याय को बढ़ाती है।
ज्ञान पंचायत इस अन्यायपूर्ण स्थिति से निकलने के रास्तों की खोज का सामाजिक स्थान है। एक ऐसा स्थान है जहां विविध ज्ञान धाराओं के ज्ञानी आते हैं और ज्ञान वार्ता करते हैं। ज्ञान पंचायत इसतरह ज्ञान पर जन सुनवाई का स्थान कहा जा सकता है। यहां विविध ज्ञान धाराओं और ज्ञानियों में ऊंच-नीच नहीं की जाती और सभी को बराबरी का दर्जा तथा सम्मान है; ग़रीब-अमीर, स्त्री-पुरुष, किसान-प्रोफेसर, कारीगर-इंजीनीयर, दुकानदार-सरकारी कर्मचारी, सभी को अपनी बात और विचार रखने का बराबर का अधिकार है। इन परिस्थितियों में ज्ञान पंचायत विविध ज्ञान-धाराओं के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों को बनाने का स्थान है. यह संगठित और लोक ज्ञान के बीच बराबरी और भाईचारे के संबंधों को विकसित करने का स्थान है.
ज्ञान पंचायत में ज्ञान से जुड़े तमाम पहलुओं पर बात होती है और इनके लिए सत्य, न्याय और भाईचारे की कसौटियां क्या हों इस पर विचार होता है। आवश्यकताएं, संसाधनों की उपलब्धता, हुनर एवं प्रबंधन के प्रकार, प्रक्रियाओं के परीणाम और इनके स्थानविशेष की जलवायु, जीवों और समाज पर प्रभाव इत्यादि सभी पक्षों पर वार्ता हो सकती हैं। लेकिन इन ज्ञान वार्ताओं का लक्ष्य विविध ज्ञान धाराओं की सहभागिता को बनाने और न्याय तथा भाईचारे की डोर को मज़बूत करने में है। इस तरह ज्ञान पंचायतें समकालीन सत्य के उद्घाटन और बौद्धिक सत्याग्रह के स्थान भी बनते हैं.
ज्ञान पंचायत समाज में एक ज्ञान आंदोलन का आग़ाज़ करता है। एक ऐसा ज्ञान आंदोलन जो समाज में बसी विविध ज्ञान धाराओं के बारे में, उनके आंतरिक तर्क, जीवन मूल्यों, क्षमता और सीमाओं पर वार्ता को महत्वपूर्ण मुद्दा बनाता है, आपसी लेन-देन से ज्ञान-धाराओं को समृद्ध होने के अवसर देता है और समाज में सभी की सहभागिता की बुनियाद बनाता है।
मनुष्य गतिविधि के हर क्षेत्र में कार्यों को सीखने, करने और उन्हें संगठित करने आदि में आज यह मान लिया गया है कि आधुनिक साइंस आधारित ज्ञान और तकनीकी सबसे उत्तम प्रकार है; हर छोटे बड़े उद्यम में इसीने पैर फैला लिया है। ऐसा करने में अन्य अनेक ज्ञान धारायें खत्म होती हों और समाज के ताने-बाने अगर ध्वस्त भी होते हों तो उसे नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। इसी प्रक्रिया में अनेक ज्ञान-धाराओं को ज्ञान मानने से ही इनकार किया जाता है. पर्यावरण प्रदूषण, गांवों और शहरों से सामान्य लोगों का विस्थापन, गरीबी और बेरोज़गारी, आदि संकट इसी प्रक्रिया की देन हैं. ज्ञान पंचायत ज्ञान-धाराओं की स्वायत्तता का पक्षधर हैं. विविध ज्ञान धाराओं के ज्ञान के इस्तेमाल की भूमिका और पैमाने भी ज्ञान पंचायत वार्ता का विषय बनाती है. इसके लिए आवश्यक कसौटियों की खोज करने और उन्हें गढ़ने का दिशाबोध कराने का स्थान भी ज्ञान पंचायत है. तुरंत और दूरगामी हितों को संज्ञान में लेकर सामाजिक भाईचारा के ताने-बाने को मज़बूत करने में मददगार हो, ऐसे न्यायपूर्ण मार्गों को चिन्हित करने में ज्ञान पंचायतों की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है. विविध स्थानों की ज्ञान पंचायतों का दायरा, रूप, विषय और कार्य अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन मौलिक रूप में ये ज्ञान पंचायतें समाज की ज्ञान-धाराओं का संगम स्थल हैं और यहाँ से हर ज्ञान-धारा को और उससे जुड़े समाजों को ज्ञान का दावा करने का हक है.
लोकविद्या जन आन्दोलन की पहल
लोकविद्या जन आंदोलन ने पिछले दस बारह वर्षों में कई स्थानों पर और कई मुद्दों पर ज्ञान पंचायतें आयोजित की जिनमें वाराणसी, दरभंगा, सिंगरौली, इन्दौर, नागपुर, औरंगाबाद, बंगलुरु, मुंबई, आदि मुख्य हैं. ये ज्ञान पंचायतें विविध नामों से हुई, जैसे किसान ज्ञान पंचायत, कारीगर ज्ञान पंचायत, किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत, महिला ज्ञान पंचायत, “विश्वविद्यालय की दीवारें गिरनी चाहिए” नाम से हुई ज्ञान पंचायत, बिजली ज्ञान पंचायत, स्वराज ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत, वाराणसी ज्ञान पंचायत, वार्ड ज्ञान पंचायत आदि. सबसे अधिक किसान ज्ञान पंचायतें और कारीगर ज्ञान पंचायतें हुईं. वाराणसी और इसके आस-पास के जिलों में ऐसी ज्ञान पंचायतों का क्रम जारी रहा जिनमें तत्कालीन समस्याओं जैसे नोटबंदी का सामान्य लोगों पर आया संकट, फसल बिक्री केन्द्रों की व्यवस्था, महंगे और नपुंसक बीज का बाज़ार आदि विषयों को लिया गया. कुछ बड़ी-बड़ी ज्ञान पंचायतें हईं, जिनमें किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत, कला ज्ञान पंचायत और स्वराज ज्ञान पंचायत मुख्य हैं. वाराणसी में वर्ष 2014 से लगभग हर वर्ष अश्विन पूर्णिमा के दिन किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत हुईं जिनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी के आस-पास जिलों के अलावा आन्ध्र प्रदेश के चिराला जिले से और मध्य प्रदेश के इंदौर और सिंगरौली जिले के किसान और कारीगर समाजों की भागीदारी हुई.
सबसे पहली ज्ञान पंचायत किसान समाजों के बीच ”बिजली ज्ञान पंचायत” के नाम से हुई. वाराणासी और आस-पास के जिलों से किसान संगठन, किसान और कारीगर समाजों ने शिरकत की. किसानों ने बिजली आपूर्ति में गांवों और शहरों के बीच भेदभाव का व्यवहार किस तरह से किया जाता है, इसे पंचायत में रखा और इसे हल करने के रास्तों को भी सामने लाया. वार्ता के बाद दो बातें सामने आईं. पहली यह कि बिजली यह शिक्षा, चिकित्सा, पानी, और वित्त की तरह ही एक राष्ट्रीय संसाधन है और इस पर ग्रामीण समाजों का बराबर का हक है तथा बिजली आपूर्ति की एक न्यायपूर्ण नीति बनाई जानी चाहिए. दूसरा, बिजली आपूर्ति की न्यायपूर्ण नीति जब तक नहीं बने तब तक बिजली उत्पादन के नए प्लांटों के निर्माण पर रोक लगनी चाहिए.
वर्ष 2009 में शिक्षा के आधुनिक किलों की व्यवस्था पर “विश्वविद्यालयों की दीवारें गिरनी चाहिए” नाम से ज्ञान पंचायत हुई. इस ज्ञान पंचायत में किसान, कारीगर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. विश्वविद्यालय की दीवार को विविध ढंग से लोगों ने परिभाषित किया. ईंट सीमेंट से बनी यह दीवार समाज में बहुत बड़ी गैर-बराबरी पैदा करती है. यह दीवार केवल भौतिक रूप में ही नहीं है बल्कि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषा और ज्ञान, जीवन शैली और जीवनमूल्यों, लिंगभेद आदि की; अनेक दीवारों के सिलसिले का प्रतिनिधित्व करती है. इतनी सारी दीवारों को लांघ पाना सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं है. इस ज्ञान पंचायत में “विश्वविद्यालय की दीवार गिरनी चाहिए” का अर्थ यह उभर कर आया कि संगठित विद्या और समाज में बसी विद्या के बीच लेनदेन में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए और बराबरी तथा भाईचारे का सम्बन्ध होना चाहिए.
लोकविद्या जन आन्दोलन के कार्यकर्ताओं के बीच हुई अनेक वार्ताओं में यह बात उभर कर आई कि लोकविद्या और कलाओं में जो ज्ञान है उसमें तर्क, मूल्य और रूप के आधार बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं. इस विचार ने कला ज्ञान पंचायतों को आयोजित करने का मार्ग खोला. वाराणसी के अलावा मध्य प्रदेश में इंदौर और महाराष्ट्र में औरंगाबाद तथा मुम्बई में ये ज्ञान पंचायतें आयोजित की गईं. कला ज्ञान पंचायतों के आयोजनों से कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर आईं. एक तो यह कि कलाकर्म ज्ञान का वह सर्वसुलभ मार्ग है, जिसमें सामान्य व्यक्ति दुनिया के बारे में अपनी समझ साझा करता है और इसके लिए उसे विशेष शिक्षा की दरकार नहीं होती. दूसरा, संवेदना यह ज्ञान का अन्तर्निहित गुण है. कला ज्ञान पंचायतों से जो महत्वपूर्ण सन्देश निकल कर आया वह यह कि संगठित ज्ञान और लोकविद्या में भाईचारे के संबंधों का सृजन करने में संत दर्शन की परम्पराएँ एक पुख्ता मार्ग प्रदान करती हैं. वास्तव में संत दर्शन की परम्पराएँ इस देश में ज्ञान-पंचायतों की परम्पराओं को ही उद्घाटित करती हैं. आधुनिक ज्ञान की व्यवस्थाओं ने सामान्य लोगों से ज्ञान संवाद की अनिवार्यता को ख़त्म कर दिया. संत परंपरायें सामान्य जीवन को ज्ञान और कर्म का प्रमुख स्थान बनाती रही हैं. यही दार्शनिक संवाद का स्थान भी रहा. वर्ष 2021-23 के ऐतिहासिक किसान आन्दोलन ने इस सोच को मज़बूती दी.
किसान कारीगर पंचायतों का सिलसिला पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में और सिंगरौली तथा इंदौर के आस-पास चला. औद्योगीकरण, शहरों का विस्तार, लोकविद्या समाजों के विस्थापन का दौर पिछले दशक फिर से तेज़ हुआ. ऐसे में ज्ञान पंचायतों ने जल-जंगल-ज़मीन के आन्दोलनों को ज्ञान-धाराओं और उन धाराओं के बल पर जिंदा रहने वाले ज्ञानी समाजों को ख़त्म करने के विरोध का आन्दोलन करार दिया. किसान और कारीगर समाजों की अलग-अलग और संयुक्त पंचायतें भी हुईं. इन ज्ञान पंचायतों में इन समाजों ने लोकविद्या का दावा पेश किया. अधिकांश ज्ञान पंचायतों से मुख्य दो बातें उभर कर आईं. पहली यह कि समाज को गरीबी, बेरोज़गारी और अज्ञानता से मुक्ति का रास्ता लोकविद्या को बराबर के ज्ञान का दर्जा मिलने में है और दूसरा, किसान और कारीगर समाजों के हर परिवार में सरकारी कर्मचारी के जैसी पक्की, नियमित और बराबर की आय होनी चाहिए और इसे सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सरकारों को उठानी चाहिए.
लोकविद्या को ज्ञान का दर्जा मिलें इस दावे ने स्वराज ज्ञान पंचायतों को आयोजित करने के मार्ग खोले. लोकविद्या के दावे मूर्त रूप लें इसके लिए समाज-संगठन के ऐसे प्रकारों पर विचार क्रियाओं को बल मिला जो लोकविद्या-समाजों के जीवनमूल्य और तर्क के प्रकारों को समाहित करें. संत दर्शन में ऐसे समाज संगठनों के संकेत मिलते हैं. जैसे कबीर का अमरपुरी, रविदास का बेगमपुरा, बासवान्ना का कल्यानपुरी, तुलसीदास का रामराज्य और गांधी का स्वराज. इन सभी में निश्चित ही कुछ भिन्नता होगी लेकिन इन सभी का ज्ञानगत आधार लोकविद्या के समकालीन रूपों में बसा है. इस सोच ने मुख्यत: वाराणसी में स्वराज ज्ञान पंचायतों का सिलसिला शुरू किया. इन ज्ञान पंचायतों के तहत भारत के लोकविद्या-समाज (बहुजन समाज) की राज परम्पराओं, लोकपराम्पराओं और दर्शन परम्पराओं को वार्ता का विषय बनाया और आधुनिक समाज-संगठन के बुनियादी अंतर्विरोधों के निराकरण के लिए दिशाबोध को हासिल करने के प्रयास हुए.
इस दिशा में ‘वाराणसी ज्ञान पंचायत’ और ‘वार्ड ज्ञान पंचायत’ गढ़ने के प्रयासों का उल्लेख किया जा सकता है.
वाराणसी ज्ञान पंचायत को वाराणसी के निवासियों की ज्ञान पंचायत के रूप में विकसित करने के प्रयास हुए है. यह वाराणसी के लोगों, स्त्री-पुरुषों का ज्ञान मंच है. इस मंच की मान्यता है कि हर मनुष्य, स्त्री और पुरुष, ज्ञानी है. यह ज्ञान पंचायत ज्ञान पर जन-सुनवाई का रूप भी है. वाराणसी ज्ञान पंचायत, वाराणसी की व्यवस्थाओं को गढ़ने में सभी समाजों के ज्ञान की भागीदारी और सभी के ज्ञान को बराबर की प्रतिष्ठा का आग्रह करती है. इसकी एक आयोजन समिति है, जो नगर में अलग-अलग स्थानों पर ज्वलंत मुद्दों पर विमर्श को आकार देती है और एक छोटी पत्रिका ‘सुर साधना’ के नाम से प्रकाशित भी की जाती है. अभी तक इसा पत्रिका के चार अंक प्रकाशित किये जा चुके हैं. वाराणसी ज्ञान पंचायत में रूचि लेने वाले समर्थक लोगों का एक व्हाट्सएप समूह भी बना है.
हाल ही में नगर निगम के चुनाव के अवसर पर वाराणसी ज्ञान पंचायत ने लगभग डेढ़ माह तक घाटों पर ‘लोकनीति संवाद’ के नाम से विमर्श चलाया. इस विमर्श में अनेक प्रश्नों पर विचार हुआ. लोकनीति बनाम राजनीति, स्थानीय निकायों की नगर और नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी, लोकविद्या और लोकनीति के बीच अन्योन्याश्रित रिश्ता, नगर विकास और व्यवस्थाओं में विविध ज्ञान-धाराओं के समावेश का आग्रह, नगर की नैतिक विरासत और दर्शन, गाँव-शहर के बीच सम्बन्ध, नगर का धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना, जैसे विषयों की वैचारिकी के प्रकाश में नगर का पर्यावरण, गंगाजी और घाटों की स्वछता और रखरखाव, मल्लाहों और नाविकों के विस्थापन का सवाल, नगर में ऑटो चालकों की परेशानियाँ, सीवर और कूड़े का निस्तारण आदि जैसे दैनिक जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं के प्रति पार्षदों के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को संवाद में स्थान मिला. विविध विचारधाराओं, कार्यक्षेत्रों और संस्थाओं से जुड़े शहर के व्यक्तियों ने इस विमर्श में हिस्सा लिया. ये विमर्श गंगाजी के घाट पर खुले में ही आयोजित की गईं और लोक, सार्वजनिकता और लोकनीति के अर्थों के समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या के प्रयास हुए. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह रही कि इन संवादों से ‘वार्ड ज्ञान पंचायतों’ को गढ़ने का विचार चर्चा में आया. वार्ड ज्ञान पंचायत एक वार्ड के विविध समाजों की ज्ञान पंचायत होगी जो अपने वार्ड की व्यवस्थाओं को समाजों के ज्ञान की भागीदारी के साथ प्रबंधन का ज्ञान आधार बनाने की ओर बढ़ेगी. कम से कम दो वार्डों में ज्ञान पंचायत गढ़ने के कार्यक्रम हाथ में लिए गए.
J K Suresh (15 Jan 2024)
Points raised by Chitraji:
Point 1: The title of the thinking about Survey proposal is ‘Study of Lokavidya Samaj – The Rationale’. It seems to me that greater clarity is needed regarding the recognition / identification of the Lokavidya Samaj. Lokavidya Samaj is not the traditional / tradition-bound samaj. Nor is it merely the rural, or a caste-delineated Samaj.
We have raised this question before on the nature and composition of the Lokavidya Samaj. Are the millions who live in cities, e.g., the auto drivers, housemaids, the Swiggy/ Zomato delivery boys, etc. not a part of the Lokavidya Samaj? What can we say about absentee landlords, coffee plantation owners, people with large tracts of lands who buy expensive cars, send their children abroad for studies, etc.?
It appears therefore that it is not easy to create an effective geographical, income based, or occupation/work-based delineation of the Lokavidya Samaj. Any attempt to do so will have to deal with a fair amount of imprecision and unclear boundaries. However, this does not mean that no outlining will work. We need to make appropriate assumptions whenever we make such distinctions and in this case, we have chosen to look at village/ small town society and aim to discover what their state is.
By the way, in our proposal, no assumptions are made here that these sections constitute the Lokavidya Samaj just because they are considered to be traditional, rural or caste based. We survey them only because we believe that they broadly make up the Lokavidya Samaj.
Point 4: The purpose of a survey like the proposed one needs to be to gather together the knowledge and strengths of samaj’s making up the Lokavidya Samaj as well as to expose the paradigms constructed to exploit this knowledge and these strengths to the detriment of the Lokavidya Samaj
How one may be able to discover and describe the knowledge and strengths of the Lokavidya Samaj is a challenge that we will have to break down to arrive at the structure of the Part 2 of the survey.
However, exposing the paradigms constructed to further enslave the Samaj will not be a part of the survey.
Points 2, 3 and 5 are not directly related to the survey although an awareness of the points will help us survey better.
Point 6, viz., “The methods of survey should incorporate ‘collective dialogue’”, needs to be analyzed for situations where it works and where it does not. This will occupy our attention when the design of Part 2 of the survey is made.
Points raised by Budhey:
- What are the advantages of the method of questionnaire filled by college students whose parents are in Lokavidya Samaj? As far as I remember, the only advantage mentioned so far is convenience of the investigators. This, though, can hardly be called an advantage, Not just this but it can be extremely misleading or even harmful. The college students’ information base, knowledge, values and way of thinking will, in all probability, be very different from their parents. To get square with my years of mis-trust of the questionnaire method, I went to google-search (which is perhaps not the best thing to do) and found that ‘A questionnaire is a research tool used to conduct surveys. It includes specific questions with the goal to understand a topic from the respondents’ point of view’ (italics mine).
Background
It is to be noted that the background to the survey has already been shared with members of the group over the previous several meetings. Yet they are worthy of recall here, especially in view of the questions raised in the last couple of meetings.
There are two parts to the survey: The first uses a questionnaire for us to obtain a broad understanding of life today, and thereby help us estimate how ordinary life has changed over the previous, say, 60 years. The questionnaire will address their living conditions, material possessions, the structure of the family, and their habits in terms of what they eat, consume and experience. Further questions will hopefully reveal the strength of their caste, community, extra- and intra-Village occupations and relationships. The questionnaire will be largely objective and try to avoid false negatives and false positives in the answers.This phase will provide a broad picture of the social life of the Samaj based on inputs from a few thousand students.
The second part of the survey would be a narrower survey involving our speaking to a cross section of people in a few villages. In this part, we will raise questions related to what their notion of a good life is, how they think they can achieve it, their ideas about Nyaya, Bhaichara, Swaraj, governance and the gulf between the village and the City, etc.; also questions related to their strengths and locations of resistance as they perceive it, and so on; not by asking direct questions on many of these points but in a roundabout way. Not much thought has gone into this part yet. We will come back to you later on this.
Responses
- In passing, it may be pointed out that the comment, “the only advantage mentioned so far is convenience of the investigators” seems to have taken our claimed advantage entirely outside the context in which it was stated. The central intent of the survey is, and has been since the beginning, to understand the state of the society in parts of rural Karnataka. However, the ability to have it served out to a few thousands of people, rather than a few hundred, is an additional advantage that this process offers. Obviously, this is not the sole feature of the survey. Nor should the description of it as a novel attempt detract from the merits of its essence.
- We now come to his main point, “Not just this but it can be extremely misleading or even harmful. The college students’ information base, knowledge, values and way of thinking will, in all probability, be very different from their parents”.
We are not clear how questions related to living conditions, material possessions or occupations of family members can be
- Either be misleading or harmful, or,
- In relation to the questions in part 1 of the survey, how it matters if the young students’ way of thinking is different from that of previous generations.
On the other hand,
- It is extremely likely that a majority of these students will remain a part of the Lokavidya Samaj in the future, along with their information base, knowledge, values etc.
- Therefore, it is best that they are considered a part of the Samaj, albeit of tomorrow.
- When we speak about Lokavidya or the Lokavidya Samaj as being dynamic, it demands that we learn from these youngsters to assess the changes they are undergoing.
- As regards the observation, ‘A questionnaire is a research tool used to conduct surveys. It includes specific questions with the goal to understand a topic from the respondents’ point of view’, we don’t have any disagreements. It is in fact a part of the plan.
- Someone said during the meeting that Lokavidya has been mainly understood as knowledge outside the university. This may have been said often to underline the location of lokavidya because the university is commonly seen as the chief location of knowledge and knowledge activity. However it must be said that our discourse on lokavidya describes and identifies various positive qualities and aspects of lokavidya. This discussion on lokavidya was started again, perhaps late in 2022 or early in 2023, questioning the basic validity of the idea of lokavidya anymore for understanding (the changes in) the world of knowledge and reality, and thereby providing a new way of thinking about and dialoguing on a new political imagination. In this context I had written a note titled ‘Revisiting Lokavidya’. This note was sent to this group by Girish on 18th Feb. 2023. There are five parts of that note.These are — The Point of Departure, II. Lokavidya and Ordinary Life, III. A Summary Statement on Lokavidya, IV. Milestones and V. Lokavidya Jan Andolan. Please take a look.
Responses
We believe that this point needs an elaborate response that touches upon the note in its entirety. For your convenience, we have attached the document sent on 28 Feb 2023 by Budhey, “Revisiting Lokavidya”.
Part II (Lokavidya and Ordinary Life) of the note describes ordinary life, the unconditional nature of Lokavidya in ordinary life, its epistemic strength, the opportunity it has to transform the world in the information age due to the newly erected centrality of Knowledge by and for the new ruling classes, its breadth of viewpoint, etc.
Yes, indeed. These are reasonable ideas. However, is Lokavidya the same as what it might have been in early 1900’s? How has it changed over the last few decades when momentous changes have impacted the very nature of power across the world? What is the nature and extent of Lokavidya Samaj’s transformation – in its ideas and practices – as a result of the structures that have arisen in recent decades to project a new idiom and practice of power, governance, production relations, exchange relationships, etc. in society? It is precisely in this context that the present study, we believe, would provide a “dip-stick” type of results that provide some knowledge about the changes in the Lokavidya Samaj.
Point (5) in this section says that, “Lokavidya standpoint is the people’s standpoint in the Age of Information”. It seems reasonable to expect that this standpoint changes with society in the course of changes to ordinary life over time. One of the aims of the survey is to attempt to assess precisely this aspect of the Samaj
Part III of the note, “A summary statement on Lokavidya”, explains that Lokavidya is ubiquitous in space and time, and that people who have not been to colleges/ universities are not ignorant. This seems to be a manner of identifying farmers, artisans, women, etc., who are not schooled, as part of what constitutes Lokavidya Samaj and with knowledge gained through lived experience.
Point (5) in this section is notable because it goes beyond knowledge to indicate how their thinking, abstraction, argumentation, values, ideas of organization, relationships with others and Nature, etc. constitute, along with their knowledge, their world of Lokavidya.
Again, our question is, what are these values which, along with their knowledge, help them imagine a world that is said to be amenable to Nyaya, Thyaga and Bhaichara? How does it vary with time in the context of new presentations of reality that confront them each day or year or decade? How do we understand this? Etc.
While it is unlikely that a survey will ever be able reveal all of these aspects, a few may be probed in the second part of our survey.
We now turn our attention towards section1 (I. The Point of Departure).
Point (2) in this section says, “Science has lost its place of absolute command and lokavidya (people’s knowledge) is getting new recognition.” Point (5) in the section says, “Challenges to Western hegemony have spread to the knowledge domain. Taken to its logical conclusion, there will be lokavidya contestations in every department of the university. A people’s knowledge movement that resides in the mass movements of people on the other side of the digital divide, alone can lead to a new philosophy of knowledge required for a radical pro-people transformation of society.”
Simply put, we would like to know, through a survey, how the above points are actually to be understood in the context of the life, beliefs, understanding and cognition of the Lokavidya Samaj.
Sunil Sahasrabudhey (14 Jan 2024)
As suggested by Suresh, I am giving my observations on the discussion taking place on the proposal for Lokavidya Samaj Study from Bengaluru. Two main points – one about the method and the other about lokavidya.
- What are the advantages of the method of questionnaire filled by college students whose parents are in Lokavidya Samaj? As far as I remember, the only advantage mentioned so far is convenience of the investigators. This, though, can hardly be called an advantage, Not just this but it can be extremely misleading or even harmful. The college students’ information base, knowledge, values and way of thinking will, in all probability, be very different from their parents. To get square with my years of mis-trust of the questionnaire method, I went to google-search (which is perhaps not the best thing to do) and found that ‘A questionnaire is a research tool used to conduct surveys. It includes specific questions with the goal to understand a topic from the respondents’ point of view‘ (italics mine).
- Some one said during the meeting that Lokavidya has been mainly understood as knowledge outside the university. This may have been said often to underline the location of lokavidya because the university is commonly seen as the chief location of knowledge and knowledge activity. However it must be said that our discourse on lokavidya describes and identifies various positive qualities and aspects of lokavidya. This discussion on lokavidya was started again, perhaps late in 2022 or early in 2023, questioning the basic validity of the idea of lokavidya anymore for understanding (the changes in) the world of knowledge and reality, and thereby providing a new way of thinking about and dialoguing on a new political imagination. In this context I had written a note titled Revisiting Lokavidya. This note was sent to this group by Girish on 18th Feb. 2023. There are five parts of that note.These are — I. The Point of Departure, II. Lokavidya and Ordinary Life, III. A Summary Statement on Lokavidya, IV. Milestones and V. Lokavidya Jan Andolan. Please take a look.
चित्रा सहस्रबुद्धे (13 Jan 2024)
- सर्वेक्षण प्रस्ताव का नाम ‘Study of Lokavidya Samaj – The Rationale रखा गया है. इसमें लोकविद्या-समाज की पहचान को लेकर अधिक स्पष्टता की आवश्यकता महसूस होती है. लोकविद्या-समाज परंपरागत समाज नहीं है, यह मात्र ग्रामीण समाज भी नहीं है और न यह जातियों में सीमित समाज है.
- लोकविद्या-समाज एक ऐसे जीवंत समाज की अवधारणा है, जो लोकविद्या के बल पर जीने वालों के जीवन को बदहाली और तिरस्कृत स्थिति से निकालकर एक खुशहाल और सम्मानपूर्ण जीवन में बदलने की शक्ति का संचय स्थान बनने की संभावना रखता है और इसके लिए आवश्यक ताना-बाना बुनने की क्षमता भी रखता है.
- हम लोगों ने समाजों की शक्ति का एक आधार लोकविद्या में देखा है और पिछले 20-25 वर्षों से इस ताने-बाने को बुनने के लिए और इन समाजों की एकता को साधने के लिए लोकविद्या दर्शन और लोकविद्या जन आंदोलन के कार्यक्रम गढ़े हैं.
- ऐसे में सर्वेक्षण का उद्देश्य इन समाजों के ज्ञान और क्षमताओं के संकलन के साथ ही इनके ज्ञान और क्षमताओं की लूट करने वाली नीतियों को उजागर करना भी होना चाहिए.
- इन समाजों पर परकीय ज्ञान को ज़बरदस्ती थोपने व इसके चलते इनकी बदहाली होने के असंख्य उदाहरण मिलते हैं. औद्योगिक युग में शोषण का एक महत्वपूर्ण आधार ‘ज़बरदस्ती थोपे गये श्रम’ में रहा. क्या इसी तरह आज लोकविद्या के बल पर जीने वालों के शोषण को व्यवस्थित ढंग से समझने का एक आधार ‘ज़बरदस्ती थोपे गए ज्ञान’ के रूप में देखना चाहिए?
- सर्वेक्षण पद्धति में समूह वार्ताओं को शामिल किया जाना चाहिए.
English Version:
My Thoughts on the Bengaluru Proposed Survey
Chitra Sahasrabudhe (13 Jan 2024)
- The title of the thinking about Survey proposal is ‘Study of Lokavidya Samaj – The Rationale’. It seems to me that greater clarity is needed regarding the recognition / identification of the Lokavidya Samaj. Lokavidya Samaj is not the traditional / tradition-bound samaj. Nor is it merely the rural, or a caste-delineated samaj.
- The conception of the Lokavidya Samaj is one, which can become repository of a transformative potential to liberate those who live by lokavidya from a pecuniary and dishonorable existence and to reconstruct their lives of as plentiful and honorable lives by building the network and organization needed to do that.
- We have always seen this potential as residing in lokavidya. For the last 20-25 years we have exerted to build this network and the unity of Lokavidya Samaj by constructing lokavidya thought and Lokavidya Jan Andolan programs.
- The purpose of a survey like the proposed one needs to be to gather together the knowledge and strengths of samajs making up the Lokavidya Samaj as well as to expose the paradigms constructed to exploit this knowledge and these strengths to the detriment of the Lokavidya Samaj
- One can find innumerable examples of efforts to impose alien knowledge and systems of thought causing the deprivation of Lokavidya Samaj. In the industrial era a significant instance of this is the system of ‘deliberately imposed labour’. In the same vein, should we not today view ‘deliberately imposed (alien) knowledge’ as a significant instrument of exploitation of those living by lokavidya?
- The methods of survey should incorporate ‘collective dialogue’.
G. Sivaramakrishnan (04 Jan 2024)
As human beings we are largely products of our learning and the ability to transmit our learning to the next generation. Hence, it is a truism to say that all human beings are knowledge beings. This capacity to learn and transmit our learning to the next generation is perhaps what distinguishes us from all other animals. It is this which is responsible for the building up of human civilizations over millennia.
This trivial truth is in itself not very useful in understanding or explicating the nature and evolution of societies across centuries. Though as knowledge beings we all are equal, it must also be clear that there have been hierarchies in human societies and hence also of knowledge. No knowledge is innocent. Our knowledge has not only given us the power to dominate nature and control it to serve our needs but also to dominate other human beings. That knowledge is power is not only a Baconian or Western concept but was perhaps a larger understanding of human societies everywhere.
It is in this context that we have developed our present understanding of Indian society as having a huge knowledge divide between a small University- based/developed knowledge stream and a vast ocean of Lokavidya. It is our understanding that the knowledge of ordinary people which helps them navigate this world is in no way inferior to those who have formal University education and training. It is also a fact that those who have formal, institutionalized or University based knowledge have been the powerful, dominant ruling classes everywhere.
The pre-colonial India too had a divide between formal institutionalized knowledge practiced / propagated through its Sastras and Lokavidya.
It may also be true that our Sastric knowledge and Lokavidya are more compatible with our culture, ethos, etc. Perhaps it is equally true that there is an organic relationship between the two, one reinforcing the other. The colonial rule and the introduction of modern Western University knowledge nearly eclipsed our Sastric knowledge as there was no state patronage. It created a peculiar situation in which Sastric knowledge was almost frozen at the pre-colonial stage of its development while Lokavidya ‘survived’ largely on account of their continued relevance to the vast masses in securing their material needs. The British too had no interest in replacing Lokavidya with their formal systems as they saw no threat or challenge to their economic interests from Lokavidya. Thus, Lokavidya Samaj continued without any serious threat to its knowledge base. But the impoverishment of the country as a whole under colonial rule meant the weakening of the Lokavidya Samaj. The coming of independence had very little impact on Lokavidya or its Samaj. The policy of industrialization pursued based on modern Western science and technology was without much challenge, except for some muted criticism by Gandhians. Of course, the Indian state/ government did create bodies to promote Khadi and Village industries and appoint some Gandhians to guide them. Similarly, there was great interest in promoting Sastric knowledge by including them in university curriculum. Artisanal crafts/skills do receive assistance from central and state governments.
The divide between organised/formal knowledges based on modern/Western science and Lokavidya based on centuries of experiential learning continues without much hostility. Just as the formal knowledge could exist without much contribution from Lokavidya except perhaps for the supply of labour to run industries, the Lokavidya Samaj has been ‘autonomous’ to the extent that it has its own innate skills / techniques to adapt itself to changes brought by the University based modern knowledges. The catch is, of course, the inferior status/position of Lokavidya in relation to modern University knowledge. This is clearly reflected in the pay a university degree provides and the wages that Lokavidya can command from the system. Suffice it to say then that Lokavidya survives as inferior to university knowledge in every respect. A question naturally arises how and why Lokavidya continues. The obvious answer seems to be that for vast masses of people there is no alternative to keep their body and soul together. Be that as it may.
The proposed study is relevant in this context as it seeks to answer further questions about Lokavidya Samaj. Firstly, we know that Lokavidya has been able to survive largely because of the existence of the Samaj.
How does the larger Lokavidya Samaj find itself today when many institutions / practices that have been supportive of this Samaj through centuries have either disappeared or are under severe strain? The vast kinship system and jatis that have been responsible for the preservation of skills, crafts, or knowledge practices of localities or regions are under great threat from changes in the economy as a whole. The Lokavidya Samaj has largely been unable and powerless to determine the course of the economy or industry and is continuously expected to adapt itself to many changes that are exogenous. That even under constant and continuous pressure from external forces it has been able to survive, indicates the ingenuity of our people and culture or their instincts.
The study aims to identify the various support systems that are still in existence in the Samaj and their own strengths and weaknesses under large changes taking place in society, polity and culture.
If we find through the study that a major part of the support for the pursuit of Lokavidya that were available in the early part of the 20th century have all disappeared and changes in the economy, society have today no structures or functions that help in the transmission of skills, crafts, or practices, it means Lokavidya is increasingly becoming irrelevant to the future of Indian society. It is our hunch that such irrelevance or redundancy has already taken place in our agriculture at least since the introduction of GR which has transformed our agriculture irrevocably to a capitalist system. Thus, while it may be true that our farmers are still part of the Lokavidya Samaj, their mainstay occupation has very little resemblance to what their own fathers’ generation practiced. It is also perhaps true that the knowledge of agriculture that may have come down to the present generation has no utility or relevance today. That is to say, even in terms of knowledge, the farmers of India are today more dependent on university produced knowledge and from the laboratories of modern science and technology. This can be seen not only in the production of food crops but in other crops as well as poultry and in the large dairy industry. We find through our cursory observations that most farmers who are in poultry industry want to have their sons graduate from veterinary colleges. In the town of Namakkal in TN there are more veterinary doctors than perhaps in most districts of India. Most of these veterinarians come from families that were traditional farmers in the previous generation. Namakkal today is the largest centre for broiler eggs in the country and decides the price of eggs every day. Similarly, the community of Thigalas who were known as gardeners in and around Arcot districts of TN were encouraged to migrate in sizeable numbers to Bangalore and its surroundings by Hyder Ali and Tippu Sultan. They were the builders of the famous Lalbagh gardens of Bengaluru. Today many of these traditional gardeners have become big suppliers of exotic flowers to various parts of the country and abroad. They now depend on input from agricultural universities and research centres for the latest techniques of floriculture. Their big nurseries in and around Bengaluru today were the homes of simple Thigala gardeners only about 50 years ago. Thus, one of the aims of our study is to understand the increasing dependence on university based knowledge in what were strongholds of Lokavidya only about fifty years ago. Lokavidya has been understood by us as not only providing for the material needs of our people but also their aesthetic and cultural needs. We wish to understand how in the fields of arts, entertainment, sports and games, etc., the Lokavidya Samaj has undergone changes over the century. The impact of technology is very prominent in these fields as it is in economic activities. Perhaps the Lokavidya Samaj has been increasingly under the influence of formal, external structures for fulfilling its aesthetic, entertainment needs and thus is abandoning its own forms. Actually, the creative participation of the Samaj in all of them has reduced considerably and our people have been reduced to being mere consumers. This change from active participants in these pursuits to being mere consumers means our Lokavidya Samaj is already a ‘mass society’ as outlined by C Wright Mills and others in respect of the US.
When we are on the subject of our Lokavidya Samaj being reduced to consumers, the decline of home remedies in treating very routine and ordinary ailments has to be taken note. Again, our gut feeling/ cursory observations suggests that dependence on neighbourhood clinics or poorly run government hospitals have increased among the members of Lokavidya Samaj than perhaps among middle / upper middle class educated Indians. It would be revealing to know how Lokavidya Samaj handles illnesses that are of routine occurrence. If it is found that that they have abandoned their indigenous / home remedies and increasingly rely on ‘ scientific’ medicine / doctors, it is yet another indication of the loss of autonomy of Lokavidya Samaj. Thus, an understanding of the present state of Samaj is necessary to imagine the shape of things in the coming decades of our society, polity and culture. Hence this study.
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Pamphlets and Reports
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विद्या आश्रम (1 August 2024)
विद्या आश्रम स्थापना दिवस विचार गोष्ठी
1 अगस्त 2024
विद्या आश्रम, सारनाथ
विद्या आश्रम को स्थापित हुए 20 वर्ष हो रहे हैं. इस वर्ष के स्थापना दिवस के आयोजन पर यह विचार गोष्ठी एक तरह से खुली समीक्षात्मक चर्चा का रूप लें तो अच्छा होगा ऐसा विचार बना और इसी दृष्टि से निमंत्रण पत्र का प्रारूप भी बना. लगभग सवा-सौ लोगों की भागीदारी से आयोजित इस विचारगोष्ठी में किसान, कारीगर, छोटी दुकानदारी करने वाले, महिलायें और सामाजिक विचारक व कार्यकर्त्ता शामिल हुए.गोष्ठी की शुरुआत सामू भगत, सर्विंद पटेल, छोटेलाल की सदारत में लोकविद्या के बोलों से शुरू हुई और लोकविद्या सत्संग के कुछ पद गाये गये. विद्या आश्रम की वरिष्ठ प्रेमलताजी ने गोष्ठी का सञ्चालन किया और अध्यक्षता दर्शन अखाड़े के संचालक गोरखप्रसाद, भारतीय किसान यूनियन के नेता राम अवतार सिंह, बुनकर समाज के गुलज़ार भाई और सामाजिक कार्यकर्ता पारमिता ने संयुक्त रूप से की.
प्रेमलताजी ने बड़ी खूबसूरती से विद्या आश्रम के बनने की प्रक्रिया को अपनी एक स्वरचित कविता में बाँधा.
एक दिन में नहीं पड़ी, विद्या आश्रम की बुनियाद।
वर्षों तक सतत् खोज, शोध, संवाद, परिसंवाद,
अनगिनत दिन रैन बीत गए, सत्य की खोज करते-करते,
विचार मंथन किया अकथ, तब दिखा ऐसा परिणाम।
जिस सत्य का मिला ज्ञान, लोग थे उससे अनजान!
चलता जिससे जग का काम, लोकविद्या है उसका नाम,
विद्या आश्रम का सूत्रधाम, जीवन जिये सभी सामान्य।
विषय प्रवेश करते हुए लक्ष्मण प्रसाद ने ज्ञान के सवाल को आज के समय का मनुष्य की मुक्ति का सबसे प्रभावी साधन बतलाया और कहा कि विद्या आश्रम की स्थापना ही ज्ञान के क्षेत्र में ऊँच-नीच को ख़त्म करने के विचार से हुई है. किसान, कारीगर, आदिवासी, महिलाएं, कलाकार और पटरी-ठेले-गुमटी के सब छोटे-छोटे दुकानदार ये सब बहुजन-समाज के लोग हैं. ये सब अपने ज्ञान और श्रम के साथ अपनी और बृहत् समाज की ज़रूरतों को पूरा करते हैं. इनका ज्ञान लोकविद्या कहलाता है और लोकविद्या किसी भी अर्थ में विश्वविद्यालय के ज्ञान से कमतर नहीं है. लोकविद्या को विश्वविद्यालय के ज्ञान के बराबर प्रतिष्ठा मिलेगी तभी बहुजन-समाज को न्याय, खुशहाली और सम्मान का जीवन मिल पायेगा. लोकविद्या की प्रतिष्ठा का कार्य ही विद्या आश्रम का कार्य है. प्रतिष्ठा का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने उन सभी बिन्दुओं को गोष्ठी में रखा जो निमंत्रण पत्र में उद्दृत की गई थीं.
बुनकर साझा मंच के फ़ज़लुर्रहमान अंसारी ने लोकविद्या दर्शन पर आधारित वाराणसी ज्ञान पंचायत के तहत चलाये जा रहे वार्ड ज्ञान पंचायत के कार्यक्रम को लोकविद्या आन्दोलन की बुनियादी ईंट के रूप में देखते हुए कहा कि जब स्थानीय पंचायतों में लोकविद्या और बहुजन-समाज की भागीदारी होगी तभी बदलाव और खुशहाली आएगी. जब बहुजन-समाज अपने ज्ञान के बल पर अपनी व्यवस्थाओं को संचालित करेंगे तभी खुशहाली आएगी, जिसे स्वराज कहा जा सकता है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए वाराणसी नगर निगम के दो वार्डों में जन भागीदारी पर आधारित ज्ञान पंचायत गठित करने का कार्य किया जा रहा है. ये दो वार्ड हैं -सलारपुर और जलालीपुरा. इसे वार्ड ज्ञान पंचायत नाम दिया जा रहा है, इसमें वार्ड में रहने वाले, तरह-तरह के काम करने वाले अर्थात तरह-तरह के ज्ञानियों की भागीदारी होगी जो अपने वार्ड में हो रहे कार्यों व नीतियों पर आपस में और वार्ड के नागरिकों के बीच विचार के लिए रखेंगे I वार्ड की समस्याओं, प्राथमिकता के आधार पर सड़क, गली ,चौका- खरंजा ,पानी ,लाइट- बिजली, अस्पताल, पाठशाला इत्यादि का इंतजाम और रखरखाव के बारे में अपनी राय देंगे. वार्ड में हो रहे तरह-तरह के निर्माण कार्य में यथासंभव वार्ड के ही संबंधित ज्ञानी हूनरमंद, मिस्त्री ,कारीगर इत्यादि की भागीदारी होने का आग्रह रखेंगे. कार्य सुंदर हो, गुणवत्तायुक्त हो, कम खर्चीला हो इन सब का भी ध्यान रखते हुए वित्त की व्यवस्थाओं पर विमर्श की पहल लेंगेI यह एक मॉडल वार्ड का स्वरूप होगा.
‘बहुजन-समाज के ज्ञान की प्रतिष्ठा में स्वराज का आधार है’ इस विषय पर बोलते हुए स्वराज अभियान के राम जनम ने कहा कि विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर सभी किसान, कारीगर लोगों का अभिनंदन है. विद्या आश्रम एक परिवर्तन के विचार का केंद्र है. लोकविद्या-समाज कहें या बहुजन-समाज कहें, इसका सबसे इसमें महत्वपूर्ण स्थान हैI आज ऐसी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था बन गई है, जो बहुजन-समाज की लूट पर आधारित है I इस आर्थिक जाल को काटे बिना लोकविद्या-समाज की खुशहाली नहीं आ सकती. अब हम सबको यह तय करना होगा कि वह व्यवस्था क्या हो ? इस देश में स्वराज बहुजन-समाज की परंपरा रही है. आजादी के आंदोलन के समय गांधी जी ने स्वराज को फिर से देश और समाज के सामने रखा. स्वराज की व्यवस्था में बहुजन-समाज की प्रतिष्ठा है,उसके ज्ञान की प्रतिष्ठा है. किसान आंदोलन की गतिविधियों को अगर हम देखें तो वे किसान पंचायत करते हैं ,आपस में चर्चा करते हैं. यह क्या है? कहीं ना कहीं से यह स्वराज का ही एक स्वरूप है. चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत भी जब पंचायत लगाते थे, उसमें अदना सा अदना व्यक्ति भी यह कह सकता था कि चौधरी साहब यह गलत है, यह नहीं होना चाहिए. स्वराज की व्यवस्था न्याय, समता और जन भागीदारी पर आधारित है. विद्या आश्रम द्वारा भी यह पहल शुरू की गई है. वार्ड ज्ञान पंचायत बनाने की कोशिश की जा रही है. वार्ड ज्ञान पंचायत में स्थानीय लोग शामिल होंगे. वही उनके ज्ञान और विचार के आधार पर वार्ड का नया ढांचा खड़ा होगा, बड़ी से बड़ी व्यवस्था का आधार नीचे की इकाई होती है. इसको शक्ति, सम्मान व प्रतिष्ठा देने का मतलब देश व समाज को खुशहाली के रास्ता ले जाना है. आज बुद्ध और कबीर नहीं हैं , रविदास और गांधी नहीं हैं, लेकिन मेरा मानना है कि इस देश का बहुजन-समाज इन महान संतों के विचारों को संजोता है, समझता है, आचरण में लाता है. इसी समाज के पास नैतिक बल है. यह देश बहुजन-समाज का देश रहा है. राज करने का ज्ञान भी बहुजन-समाज के पास ही रहा है. कुछ क्षत्रिय राजा रहे होंगे लेकिन सिर्फ क्षत्रिय राजा ही नहीं हुए हैं, इतिहास में गिने जाने वाले अधिकांश राजा तो बहुजन-समाज के ही रहे हैं. दलित पिछड़े और आदिवासियों में भी राजा हुए हैं. कहीं सुहेलदेव राजा हुआ करते थे. कहीं मऊ नट राजा हुआ करते थे. मऊ नट के भांजे को आतिताइयों ने मार दिया था. इसीलिए इन्हीं के नाम पर मऊ का नाम मऊनाथ भंजन पड़ा. बहुजन-समाज की शक्ति के सन्दर्भ में किसान आंदोलन का जिक्र करना चाहूंगा, जिसने देश में एक नैतिक हलचल पैदा की है, यह रुकने वाला आंदोलन नहीं है. विद्या आश्रम का आवाहन है कि परिवर्तन की शक्ति बहुजन-समाज अर्थात सामान्य जन के पास है, इस बात को पहचाना जाए.
गाँधी विद्या संस्थान की रजिस्ट्रार डॉ. मुनीजा खान ने अपनी बात को रखते हुए कहा कि लोकविद्या-समाज में किसान, बुनकर ,कारीगर ,आदिवासी महिलाएं हैं. महिलाओं को आधी आबादी भी कहा जाता है. जो भी काम हो रहा है ,चाहे किसानी हो, बुनकारी हो, छोटी दुकानदारी हो सभी में उनका भी योगदान होता है. घर-गृहस्थी को चलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है. महिलाओं की प्रतिष्ठा लोकविद्या की प्रतिष्ठा से जुड़ी है. यह दृष्टिकोण लोकविद्या विचार ने दिया है, ऐसे अनेक दृष्टिकोणों को विद्या आश्रम ने सामने लाया गया है.
डॉ. अनूप श्रमिक ने कहा कि यहां विद्या आश्रम से विश्व सामाजिक मंच काठमांडू नेपाल के सम्मेलन में लोकविद्या आन्दोलन के साथियों के साथ बैठक में हम लोगों ने भाग लिया था. वर्तमान समय में सरकार का उन संस्थानों पर हमला है जो दलित, पिछड़े, पसमांदा, अल्पसंख्यक के हक अधिकार की बात उठा रहे हैं, जो संविधान की बात कर रहे हैं. उन संस्थानों पर रोक लगा दिया गया है. आज दलित पिछड़े समाज का कुंभ मेले के नाम पर तथाकथित साधु संतों ,मठों को अरबों अरब रुपए बांटा जा रहा है. इसके विरुद्ध 80% जनता को मिलकर एक जन आंदोलन चलाना होगा. 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस है. इस दिन जिला मुख्यालय वाराणसी पहुंच कर राष्ट्रपति महोदय के नाम ज्ञापन देना है. सन 1980 के दशक में स्पेशल कंपोनेंट प्लान पास हुआ था I दलित आदिवासी के उत्थान के लिए यह बना था.
स्वतंत्र पत्रकार सुरेश प्रताप जी ने कहा कि विद्या आश्रम में लोकविद्या यानि समाज में ज्ञान, पर वार्ता की जाती है. जो लोग विश्वविद्यालय में डिग्री ले रहे हैं उनसे बेहतर ढंग से गांव के लोग खेती किसानी के ज्ञान को समझते हैं. विद्या आश्रम की ओर से लोकविद्या की प्रतिष्ठा का यह कार्य एक अच्छा प्रयास है. लोकविद्या अनछुए प्रश्न को सामने लाने का प्रयास कर रहा है. पढ़ने- लिखने वाले लोगों, पत्रकारों की भी एक जिम्मेदारी बनती है कि इस विषय पर कुछ लिखा जाए.
पीली कोठी से आए अब्दुल मतीन अंसारी ने कहा कि उत्पादन करने वाले समाज को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, न्याय मिलना चाहिए. यह कह दिया जाता है यदि तुम गरीब हो तो तुम्हारे भाग्य में लिखा गया है इसलिए. धर्म के नाम पर शोषण हो रहा है. शिक्षा पर ध्यान देना होगा, कोई जरूरी नहीं की स्कूली शिक्षा ही हो. चेतना जागरूकता कहीं से भी मिल सकती है.
दीनापुर से आए महेंद्र प्रताप मौर्य ने कहा कि लोकविद्या का काम जमीनी स्तर का काम है. जमीनी स्तर पर लोगों से मिलने-जुलने और उनसे बातचीत करने का काम है. किसानों, कारीगरों के दुख, तकलीफ, समस्याओं को जानने और उसके निवारण और संघर्ष का काम है. इसके लिए बधाई देता हूं.
आरती ने कहा कि माइक्रोफाइनेंस जो की महिलाओं के समूह को ऋण देती है ,भारी ब्याज वसूलती है.महिलाएं कर्ज में फंस कर परेशान हो रही हैं. आत्महत्याएं कर रही हैं. समूह से लिया गया कर्ज संकट का कारण बन रहा है. सबको मिलकर इस समस्या से निजात पाना है. मोहम्मद अहमद ने दुनियाभर में बहुजन-समाज पर थोंपी जा रही लड़ाइयों का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस पर किस तरह की बात होनी चाहिए इसे सोचना ज़रूरी है I विनोद ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि विकेंद्रीकरण में लोकविद्या के समस्त तत्व मिलेंगे. यह लोकपरक व्यवस्था है, जबकि केंद्रीकरण पहले से ही लूटपाट की व्यवस्था रही है और आज भी लूटपाट की ही व्यवस्था है. चिरईगांव से आए हुए शहनवाज ने कहा कि किसान आंदोलन के तर्ज पर जातिगत जनगणना के लिए लड़ना होगा. सोनभद्र जिले में जंगलों को कॉर्पोरेट के हवाले किया जा रहा है. बुनकर समाज के लिए सस्ते दर पर बिजली के फ्लैट रेट का सवाल हो, सभी को मिलकर लड़ना होगा.
सारनाथ से 5-6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कमोली गाँव से लगभग 10 किसान गोष्ठी में आये और उन्होंने अपनी बात रखी I किसान राहुल कुमार भारद्वाज ने कहा कि गाँव में लेखपाल कानूनगो भूमि माफिया के लोगों के साथ है I लेखपाल से मिलकर भूमाफिया गांव की 40 बीघा जमीन पर कब्जा कर लिए हैं. हम किसानों का भूमि संबंधी चक न कटे होने की बात कर हमारा कोई भी काम नहीं होने दे रहा है I यहां पर आए हुए भारतीय किसान यूनियन के लोगों से हम कमौली गांव की समस्याओं के समाधान में हमारा साथ देने की अपील करते हैं. विद्या आश्रम से कमलेश कुमार ने अपनी बात रखते हुए कहा कि स्थापना दिवस पर सबका स्वागत है. लोगों ने सारी बातें रख दी हैं, मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि कमौली के किसान भूमाफिया से परेशान हैं. उनका साथ दिया जाएगा.
अध्यक्षीय संबोधन में बुनकर समाज से गुलजार भाई ने कहा कि विद्या आश्रम में बुनकर, किसान, महिलाएं सभी लोग के ऊपर चिंतन होता है. यहां पर सबको एक साथ एकजुट होना चाहिए. इसी से सब का कल्याण होगा. विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर बधाई. दर्शन अखाड़ा से में गोरखनाथ जी ने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि 2004 में सुनील सहस्रबुद्धे और चित्रा सहस्रबुद्धे की पहल पर विद्या आश्रम की स्थापना हुई. यहां पर बहुत अच्छे-अच्छे कार्यक्रम लगातार हुए हैं. सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक सभी विषयों पर गहन चर्चा हुई है. लोग महंगाई से त्रस्त हैं. युवा, किसान, मजदूर सभी लोग परेशान हैं. सबको साथ में आने की जरूरत है. किसान समाज की ओर से अपने अध्यक्षीय संबोधन में रामअवतार सिंह ने कहा कि विद्या आश्रम में लगातार किसान समाज और अन्य अनेक समाजों पर शोध-रिसर्च-चर्चा-मीटिंग-गोष्ठी चलता रहता है. हम किसान की बात करते हैं. किसान के हाथ में लाठी होगा उसके पास बिल्ला होगा टोपी होगी तभी उसका कोई सुनने वाला होगा. सभी सदस्यों से अपील करते हुए उन्होंने कहा कि आप लोग टोपी बिल्ला साथ में रखिए.अन्याय मत सहिए. उठ खड़े होइए. जो अधिकारी हमारी बात नहीं सुन रहा है, डटकर उसका मुकाबले कीजिए. विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर कमोली गांव से आए किसानों की बातों पर उन्होंने कहा कि कमौली गांव में पंचायत बुलायें. हम सभी लोग आएंगे. कमौली गांव में जल्दी से जल्दी पंचायत बुलाई जाए. अपने अध्यक्ष के संबोधन में पारमिता ने कहा कि एक बच्चा 16 साल में विद्यालय से पढकर निकलता है. तब उसके पास ज्ञान होता है. एक कारपेंटर 10 -15 साल 20 साल में सीख करके अच्छा कारपेंटर बनता है इसी तरह से बुनकर, किसान सभी लोग 15 साल काम करने के बाद किसान,कारीगर बनते हैं. लेकिन स्कूल स्कूल कॉलेज में 15 -20 साल पढ़ लेने के बाद यदि नौकरी नहीं मिली तो स्कूल कॉलेज से पढ़ा नौजवान किसी काम का नहीं होता और किसान, कारीगर, बुनकर वगैरह अपने और अपने परिवार की रोजी-रोटी चलाने की काबिलियत रखते हैं. महिलाएं सिर्फ गृहणी नहीं होती. वे घर परिवार चलाने से लेकर बाल-बच्चों को पालन- पोषण कर बड़ा करने का काम करती है. बच्चों को मनुष्य बनाती है. अपने पति के काम में भी सहयोग करती है. खेती में काम करती है, बुनकारी में काम करती हैं, ठेला खोमचा पर हो रहे काम में भी वह अपना हाथ बटाते हुए हर तरह का काम करती हैं I महिलाएं सिर्फ गृहणी नहीं हैं. ये पूरे परिवार को संभालने, सजाने का काम करती हैं. आज के सिस्टम में गांव का ग्राम प्रधान जीतने के पहले गांव का होता है , और जीत जाने के बाद वह सेक्रेटरी ,बी डी ओ, सरकारी अधिकारियों का हो जाता है. लोगों से उसका कोई वास्ता नहीं रह जाता. हमें खुद से संगठित होकर स्वयं में समस्याओं का समाधान निकालना होगा. कमौली गांव से आए हुए किसानों की बातों का मैं समर्थन करती हूं. उनको पूरी ताकत से सहयोग दिया जाएगा.
संचालन कर रही प्रेमलता जी ने कहा कि आज विद्या आश्रम में सुनील जी और चित्रा जी नहीं है. चित्रा जी की इस समय तबीयत खराब होने की वजह से इलाज के लिए दोनों वाराणसी से बाहर गए हुए हैं. चित्रा जी ने विद्या आश्रम स्थापना दिवस पर अपना संदेश भेजा है, जिसे गोष्ठी में पढ़कर सुनाया।
गोष्ठी के अंत में सहभोजन का आयोजन था। प्रभावती, अंजू देवी, चंपादेवी और मधु ने मिलकर भोजन की व्यवस्था की।
विद्या आश्रम स्थापना दिवस के अवसर पर सन्देश
1 अगस्त 2024
विद्या आश्रम स्थापना दिवस के 20 वर्ष पूरे हुए हैं. समाज में बदलाव के लिए विचार निर्माण या विचार यात्रा के एक पड़ाव के रूप में इस दौर को हम देखते हैं. यह दौर दुनिया में एक ऐतिहासिक उथल-पुथल का दौर था. देश-दुनिया में सूचना-युग के आगमन से हो रहे बदलावों के बीच तेज़ी से बढ़ते अन्याय की दाहक आग गाँव, क़स्बा, गली-मोहल्लों तक फैलते देखी गई और इसे असंख्य परिवारों को लीलते देखा. परंपरागत राजशाही, लोकतंत्र या समाजवाद पर आधारित राज्सत्तायें लगभग समानरूप से इस आग को जलाये रखने में सहयोगी बनते देखी गई. चारों तरफ उम्मीदें तेज़ी से नाउम्मीदों में तब्दील हो रही थीं. यही दौर था जब अन्याय से मुक्ति के नए विचारों की खोज में आकुल समाजों में तरह-तरह के विचार गति लेने लगे थे. ऐसे ही कुछ साथी जो यह सोचते थे कि सत्य, न्याय और भाईचारे पर आधारित समाज को बनाने के लिए हमें अपने समाज, अपने देश, अपने लोगों की शक्तियों को पहचानने, उजागर करने और उन्हें संगठित करने के कार्य में लगना चाहिए उनके साथ मिलकर वर्ष 2004 में विद्या आश्रम की स्थापना हुई.
विद्या आश्रम पर चली वैचारिकी में देश के अलग-अलग कोनों से अनेक लोग शामिल हुए, अनेक विचार और विचारधाराओं के बीच संवाद हुए, समाज के विविध घटकों की आकाँक्षाओं, संघर्ष और आन्दोलनों में भागीदारी, समर्थन और सहयोग के आधार बने, आधुनिक व्यवस्थाओं के पाखंडों से सामना हुआ, अनेक बातें हुईं. इन सभी प्रयासों ने जहाँ एक ओर साइंस आधारित औद्योगिक युग से प्रबंधन आधारित सूचना युग में संक्रमण के विविध पक्षों (दार्शनिक,आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि) का अधिकाधिक लोकविरोधी होते जाने के सबूत मिलते गए तो दूसरी तरफ अपने लोगों, समाज और देश के प्रकृति से ले-ताल-सुर मिलाते हुए लोक-आधारित मूल्य, तर्क, संगठन, प्रबंधन, उत्पादन, तकनीकी, आदि के जीवंत और मज़बूत धागे मिलने लगे. ये धागे अपने मूल स्वभाव से ही लोगों के पास, यानि समाज में ही जन्म लेते रहे हैं, जिंदा रहते हैं और नवीन होते रहते हैं, उन्हें कोई आर्थिक अथवा राज सत्तायें मिटा नहीं सकती. लोकविद्या ऐसा ही एक धागा है. इस धागे को जितना ही काता उतना ही उसके साथ के अन्य धागे भी खींचे चले आये और एक ऐसी दुनिया सामने खुलती गई, जिसकी बुनावट बहुजन-समाज द्वारा बुनी गई है. इस बुनावट में इस समाज और देश की सक्रिय पहल, खुशहाली और न्याय के दर्शन होने की स्पष्ट उम्मीद दिखाई देने लगी.
हमारे देश और समाज की शक्ति इस बुनावट में ही बसी हुई है. इसे जिंदा करने, जीवन और समाज के पुनर्संगठन का आधार बनाने अथवा इसे समकालीन रूप देने के कार्यक्रमों को गढ़ने का कार्य बहुजन-समाज ही कर सकता है; क्योंकि यही इसका ज्ञाता है. बहुजन-समाज को अपने ज्ञान, लोकविद्या, पर भरोसा कर नई बुनावट के लिए पहल लेना होगी. विद्या आश्रम आने वाले वर्षों में इस कार्य में अपनी सहयोगी भूमिका देखता है. हम आप सभी मिलकर इस भूमिका को कारगर बनाने में लगे यही आज कामना करते हैं.
चित्रा सहस्रबुद्धे
समन्वयक, विद्या आश्रम
सारनाथ, वाराणसी
लोकविद्या जन आन्दोलन (April 2024)
लोकविद्या जन आन्दोलन
लोकसभा चुनाव 2024 के सन्दर्भ में ज्ञान-वार्ता अभियान
लोकविद्या जन आन्दोलन एक ज्ञान आन्दोलन है और ज्ञान की विविध धाराओं के बीच बराबरी, भाईचारा और सहयोग का पैरोकार है. ज्ञान के क्षेत्र में ऊँच-नीच समाज में ऊँच-नीच, दुराव और नफ़रत के बीज बोती है. ‘सामाजिक न्याय’ पर पड़ा ताला ‘ज्ञान में बराबरी’ के विचार से खुलता है. मई-जून 2024 को होने जा रहे लोकसभा चुनावों में इस सवाल को सामाजिक बहस में लाने का प्रयास होना चाहिए. इस बहस को हम ‘सामाजिक न्याय का अगला चरण’ नाम दे सकते हैं.
विचार
धीरे-धीरे देश की राजनीति दो बड़े खेमों में बंट गई है. एक तरफ दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी हैं और दूसरी तरफ प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष हैं. दोनों ही की आर्थिक नीतियां एक-सी हैं. दोनों ही देश के सामान्य जन के श्रम और ज्ञान को लूटकर राज करने की नीति अपनाते रहे हैं और ऐसा करने के लिए दिल्ली की सत्ता को मज़बूत करने और बरकरार रखने का विचार दोनों ही रखते हैं. हमारे ही देश में नहीं बल्कि दुनिया के अनेक देशों में लोकतंत्र के नाम पर कमोबेश यही स्थिति है. पिछले सौ-दो सौ वर्षों से चल रही लोकतंत्र की व्यवस्थाओं में सामान्य जन की उपेक्षा और उत्पीडन का पैमाना बढ़ता ही गया है. न्याय, रचनात्मक पहल, भाईचारा और सहयोग के विचारों और मूल्यों को निष्क्रिय बना दिया गया है. लोकतंत्र और समाजवाद से अधिक बेहतर व्यवस्थाओं के बारे में सोचने की ज़रूरत है.
जब तक लोकतंत्र के नाम पर बड़ी आबादी वाले इस बहुज्ञानी देश पर दिल्ली से, यानि एक राजधानी के मार्फ़त राजसत्ता को केन्द्रित कर सरकारें चलेंगी तब तक बहुजन-समाज के लोग यानि किसान, कारीगर, आदिवासी, महिलाएं और छोटी-छोटी पूँजी के बल पर सेवा देकर जीवनयापन करने वालों(जैसे, ठेला-पटरी-गुमटी के दुकानदार, मरम्मत और रखरखाव के कार्य में लगे कारीगर, स्वास्थ्य-कर्मी, रिक्शा-ऑटोचालक आदि ) का भविष्य अन्धकार में रहेगा.
सामाजिक न्याय का अर्थ है खुशहाली, सम्मान, पहल और रचना के साधनों पर सबका बराबर का अधिकार, जिसे निरंतर छीना गया है. अधिकार की बात के साथ साधनों के नवीनीकरण, संशोधन और निर्माण के ज्ञान और संसाधनों की व्यवस्थाओं और सञ्चालन की ज़िम्मेदारी का दावा भी ज़रूरी है, यानि बहुजन-समाज को अपने ज्ञानी होने का दावा भी पेश करना होगा. जब तक अधिकार, ज़िम्मेदारी और ज्ञान (लोकविद्या) का दावा एक साथ नहीं उठेगा तब तक दिल्ली से हो रही लूट को रोका नहीं जा सकेगा. बहुजन-समाज के ज्ञान, अधिकार और ज़िम्मेदारी की आपसी गतिशील चेतना के निर्माण की ज़रूरत है.
हमारे देश की दर्शन परम्पराओं और सामान्य जीवन में भी ‘स्वायत्तता’ को मनुष्य की चेतना का एक बुनियादी विचार (शर्त) माना गया. विविध कालखंडों में दर्शन और ज्ञान की परम्पराओं के नवीनीकरण के अभियान और प्रवाह भी ‘सामाजिक न्याय’ के विचार से अनुप्राणित रहे. भारत के भू-भाग पर अधिकांश कालों में समाज संगठन और सञ्चालन की परम्पराएँ तो ‘स्वराज’ की ही रहीं. ‘सामाजिक न्याय’, ‘स्वायत्त समाज’ और ‘स्वराज’ के विचार और परम्पराएँ यहाँ के बहुजन-समाज की ही देन हैं. आज भी ये विचार मिलकर समाज के लिए न्यायपूर्ण धागे बुन सकते हैं.
इसी उद्देश्य से अप्रैल 2024 से लोकविद्या जन आन्दोलन निम्नलिखित बिन्दुओं पर ज्ञान-वार्ता को आकार देने की पहल ले रहा है. इन वार्ताओं में शामिल होकर सामाजिक न्याय और स्वराज के लिए अनुकूल मार्गों को बनाने में अपना योगदान करें.
ज्ञान-वार्ता के मुद्दे
- सामान्य-जन यानि बहुजन के पास जो ज्ञान (लोकविद्या) है, उसके बल पर उसे सम्मान के साथ जीवनयापन करने के अवसर निर्मित हों. हर किसान और कारीगर परिवार में सरकारी कर्मचारी के जैसी पक्की, नियमित और बराबर की आय हो. विविध कार्यों में लगे लोगों की आय का अनुपात 5:1 से अधिक न हो
- रोज़गार के सवाल को सिर्फ शिक्षित युवाओं तक सीमित न करके, लोकविद्या-समाज के समस्त युवाओं को शामिल करके हल करने के प्रयास हों. ऐसा न करने से रोज़गार के नाम पर अधिकांश युवाओं पर मजदूर बन जाने की बाध्यता लादने की संभावना बढती है.
- क्षेत्रीय राज और केन्द्रीय राज के बीच स्वायत्तता और बराबरी के सम्बन्ध बनाना सामाजिक न्याय के लिए एक सकारात्मक कदम है. आज की दुनिया में इन संबंधों को बनाने के विचार और व्यवस्थाओं पर चिंतन की दिशा तय हो.
- हर क्षेत्र में ‘वितरित व्यवस्थाओं का निर्माण’ सामाजिक न्याय को गतिशील और स्थाई बनाता है. उत्पादन, वितरण, उपभोग, समाज संगठन, सञ्चालन आदि के प्रकार, विचार, व्यवस्था, सम्बन्ध आदि पर सार्वजनिक चर्चा ‘सामाजिक न्याय’ के अगले चरण को प्रकाशित करेगी.
संपर्क
लक्ष्मण प्रसाद (7905245553), रामजनम (8765619982),
फ़ज़लुर्रहमान (7905245553), हरिश्चंद्र केवट (9555744251)
लोकविद्या जन आंदोलन
प्रमुख कार्यालय
विद्या आश्रम, सा 10/82,अशोक मार्ग
सारनाथ, वाराणसी-221007
मो.: 9838944822
Vidya Ashram, Sarnath, Varanasi
Vidya Ashram
Sa 10/82 Ashok Marg, Sarnath 221007
Minutes of Annual Meeting (Online Mode) of the Ashram Samiti
3.00-6.00 pm Sun 17 Mar and 4.00-6.00 pm, Tuesday, 19 March 2024
Members Present : Sunil Saharabudhey, Chitra Saharabudhey, Laxman Prasad, Mohammad Aleem, Ehsan Ali, Premlata Singh, Vinod Kumar Choube, B Krishnarajulu, J K Suresh, G Sivaramkrishnan, Abhijit Mitra, Naresh Sharma, Avinash Jha, Girish Saharabudhe, Vijay Jawandhia, Krishna Gandhi. Members Absent : Amit Basole, Macharla Mohan Rao, Awdhesh Dwivedi, T. Narayan Rao, L K Kaul, Praval Singh. The Invitation, the Agenda and other accompanying documents were sent by email to all except Mohammad Aleem and Ehsan Ali to whom these were hand-delivered. The Meeting adjourned at 6.00 pm on 17th March for want of completion of the Agenda was reconvened and continued on 19th March at 4.00 pm.
- Calling the meeting to order: The Meeting was called to order and Sunil Sahasrabudhey was requested to take the Chair. The Meeting was then conducted by Girish as per the Agenda circulated earlier.
- Confirmation of new members of Vidya Ashram Samiti: The Meeting confirmed and welcomed two new Members, Dr K R. Krishna Gandhi, and Shri Vijay Jawandhia, to the Trust. Gandhi briefly spoke on their behalf assuring full participation in the VA processes.
- A Brief Yearly Report of 2023-24 by Coordinator: Chitra Sahasrabudhey presented the report, circulated earlier, of VA and LJA activities. Varanasi Gyan Panchayat and Lokaneeti Samvad programs have opened a dialogue with different sections of the Samaj. Last year VA activists interacted with and interviewed many members of the lokavidya samaj on their thoughts on social arrangements for production activities and governance. Chintan vartas at Darshan Akhada have addressed questions of social reconstruction through ideas like Begumpura, Kalyanpuri and Swaraj. Sur Sadhana has served to take these discussions and debates to larger audience. She mentioned the survey proposal by Suresh and GSR Krishnan being shaped at Bengluru, the VA Research Program being developed from Varanasi, the participation by VA in WSF 2024 Kathmandu, Gyan Yatras conducted by Lokavidya Samanvay Samuh, Indore, the Tuesday online meetings, and the new VA website as other important initiatives.
Naresh said that the work done under fellowships program is important and it should find a mention in the Report. Sunil said that fellowship program was based on the idea of “Samajon ki kahani, samajon ki jubani” and aimed at finding an inside perspective of the Lokavidya Samaj to address a global audience, different from one of either the anthropological variety, or the social scientific variety. There are no established ways of doing this and the Research Program being proposed is aimed precisely at charting such ways and working them. - The Proposed research program from Vidya Ashram: Talking about the Program Sunil said that it is aimed at understanding the dialectic between lokavidya and ordinary life. All our discussions hitherto have had the same reference. The proposal is to explore if one can make a substantive progress in this investigation by excavation of lokasmritis through what may be called Bahujan Gyan Samvad. Complemented with written word, art and literature can such excavation be a serious tool to produce an understanding of the space where your past, politics, ways of life, philosophy, methods of governance etc. all converge?
Avinash suggested that the program may be discussed in Tuesday meetings. This was generally accepted. Sunil suggested that any finance mobilized for the Program may not be directly handled by VA, that many centre may be handling the proposed research activity, particularly if necessity of vernacular initiative is seriously understood. Krish suggested that the work of Dharampal and Sivaram Karanths work on Yakshagan should be good resource material for the research to be done. Laksman mentioned the debates in Varanasi around the idea of excavation of lokasmriti, as well as some of the work done a decade or so earlier around the concept of vidyaloka. He said that research done with this tool will definitely produce some outcome. Chitra ji recalled work done by Ravish Kumar of Delhi in the past to explore the inter-relation between loka and shastra. She suggested that we might add dynamic of relations (i) between the state, and (ii) between Nature and the bahujan samaj to lokavidya and ordinary life as objects of research. - Study of Lokavidya Samaj – The Rationale: GSR Krishan talked about the Bengaluru initiative and its importance in understanding the changes in the last 70-80 years that have happened in the lokavidya samaj and our activity based on that. The procedure for the Study has been finalized and close to a hundred teachers have been contacted to implement the questionnaire-based survey in institutes where the students belong mostly to the Bahujan Samaj. That work should begin after May. In the other part of the Study planned to be completed by end of October, GSRK and Suresh and possibly a few more friends will be visiting villages and interviewing people. A large number of studies on post-independence Indian villages exist (Srinivas, Dubey, Beteille, etc., PhD studies). These will be explored too.
Abhijit suggested the PARI (P. Sainath) website as a resource. GSRK agreed and mentioned studies on farmer suicides etc., as well as many literary works (Kusum Nair’s Blossoms in the Dust, etc.) as important source materials too. Krish suggested that the questionnaire may be translated into other regional languages so that similar work may be possible in other states / regions. - On line presence and VA Website: Girish talked briefly of the Note circulated earlier dwelling on the two suggestions in the Note: (i) a new substantial page devoted to the Research Program pointing to all the material produced etc., and (ii) developing the website as a seriously multilingual portal, not just to increase its audience but aimed at developing new language and vocabulary capturing the ideas, the political imagination, etc. that we have been talking about as well as the outcome of the research being planned.
Gandhi suggested that we should include on our website links to material of interest to us elsewhere, or even link to another website. He cited example of DKS journal. Others may be requested to provide link to our website too. Naresh suggested incorporating page translators into the website. Many suggested adding audio-visual content to the website. - Programs (and publications): Chitra ji talked about the four-fold program proposed for the next year under the heads: (i) LJA, (ii) Publications, (iii) Research Program, and
(iv) Social Media. Incomplete discussions centered on specific suggestions. The members were broadly agreed on the proposals.
Gandhi suggested more discussions on the book proposal, on compiling “Samajon ki kahani samajon ki jubani” stories and on Swaraj. Naresh said he is already working on a paper on lokavidya, Swaraj and Gandhi. Sunil suggested that we need to write on a broad variety of topics based on a broad set of positions and ideas as we have been doing earlier – but more extensively. hopefully to lead us to be self-critical to a degree that will help the research program too. GSRK talked of a need to think anew, give up some of our pet ideas, which is something we can do unlike political activists, and academics committed to some stream. He said we can generate some you tube content in the form of personal stories and discussion on our ideas. Vijay said we may explore the transition of the country from independent country of independent villages … etc. as (Vinoba described it) to today’s independent country of dependent villages, to produce data and strong argument. - Finances, Audit and Accounts and Donations: Sunil said that the annual expenditure last year was bout 14Lakh. This FY (ending 31st Mar 2024) it is around 10Lakh. Remuneration to activists is low by any standards and some increase in donations will be welcome. This may be discussed sometime in one of our Weekly Meetings. The Audited Statement of Accounts circulated earlier was adopted.
- The general political situation in the country and in the world, and lokavidya initiative.: Speaking on this Krish drew attention to how, globally over, apparently accepted processes like general elections seem to have brought dictatorial, authoritarian forces, individuals, and parties into political power. It is not that the processes are vitiated in some manner with no sanction. The issue is how to question these forces and their actions? Apparently this is happening as there are no alternative visions of the future. He said that sant-parampara is the only basis for imagining a future society without the ills and injustice of the present order.
- Any other matter and Concluding remarks by the Chair: No matter other than those already covered above.
- Concluding remarks by the Chair: No concluding remarks were deemed necessary by the Chair.
चित्रा सहस्रबुद्धे (29 Feb 2024)
इस रविवार 3 मार्च 2024 को वाराणसी में होने जा रहे ‘महिला अधिकार सम्मलेन’ के अवसर पर लोकविद्या जन आन्दोलन कुछ कहना चाहता है. सम्मलेन के लिए हमारी शुभ कामनाएं.
राजनीतिक, अकादमिक, स्वयंसेवी या सरकारी, सभी महिला संगठनों से हमारी अपील है कि वे सामान्य महिलाओं के ज्ञान, उनकी स्वयंस्फूर्त शक्ति और पहल को स्त्री-समाज की सक्रियता का आधार बनाने में आगे आयें.
चुनौती
मनुष्य-समाज में गैर-बराबरी और प्रकृति का बड़े पैमाने पर विध्वंस, दोनों मिलकर, आज की दुनिया के सामने निरंतर एक के बाद एक सबसे बड़े और दर्दनाक दृश्यों को खड़े करते जा रहे हैं. ऐसा करने में लगी नीतियों, साधनों, तकनीकों और व्यवस्थाओं को ’विकास’ का नाम देना संवेदनहीन होने के ही सबूत हैं. संवेदनशील होने की ज़रूरत है. लेकिन पूंजीवादी विचार और व्यवस्थायें संवेदनाओं को ज्ञान का अंग मानने से शुरू से ही इनकार करती रही हैं.
पिछली सदी के अंत में पश्चिमी देशों में उठे महिला विमर्श की एक सशक्त धारा ने इस बात को उठाया कि चूँकि पूंजीवादी व्यवस्थाओं (आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक आदि) का ज्ञान-आधार आधुनिक साइंस में रहा है इसलिए ये आक्रामक, अमानवीय, असामाजिक, ऊँच-नीच वाली और शोषणकारी व्यवस्थाओं को जन्म देती है क्योंकि साइंस में सिद्धान्ततः भाव-जगत की दखल अमान्य है. गरीब देशों की स्त्रियों की बदतर होती जा रही स्थिति का एक बड़ा कारण इसमें देखा गया है.
इस परिस्थिति में स्त्रियों की ज़िन्दगी की बेहतरी (न्याय, सम्मान, खुशहाली हासिल करने) के लिए आधुनिक साइंस को और पूँजी व राजनीति के साथ इसके मजबूत गठबंधन को चुनौती देने का रास्ता बनाना है. और इसके लिए सामान्य स्त्रियों की शक्ति की पहचान करना आवश्यक है. सामान्य स्त्रियाँ यानि किसानी, कारीगरी और छोटी पूँजी के सेवा और व्यवसाय के उद्यमों में कार्यरत लोगों और समाजों की स्त्रियाँ. इन सभी उद्यमों में लगी स्त्रियों की उत्पादनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रबंधनकर्ता के रूप में स्पष्ट पहचान है. ये सभी स्त्रियाँ आज केवल अपने हित में नहीं बल्कि अपने समाज के शोषण के खिलाफ खड़ी नज़र आती हैं.
सामान्य स्त्रियों में निहित दार्शनिक, उत्पादक, संगठनात्मक और नेतृत्वकारी शक्तियों का ज्ञानगत आधार आधुनिक साइंस, पूँजी व राजनीति के गठबंधन को चुनौती दे सकता है.
दावा
लोकविद्या जन आन्दोलन की ओर से हाल ही में काठमांडू, नेपाल में हुए हुए विश्व सामाजिक मंच (15-19 फरवरी 2024) से सामान्य महिलाओं के ऐसे ज्ञान-आन्दोलन को गढ़ने का दावा पेश किया गया, जिसका आधार विचार नीचे दिया जा रहा है.
हर समाज की सामान्य महिलाओं में मनुष्य की बुनियादी संवेदनाओं का विशाल भण्डार होता है. इनके बल पर वे पालन-पोषण के नित नवीन तरीके इजाद करती हैं, जो मनुष्य के नैतिक, भौतिक और कलात्मक ज्ञान-पक्षों को गढ़ते हैं. संवेदनायें किसी भी तरह के ज्ञान का अंतर्निहित अंग हैं इसका ठोस सबूत स्त्री-ज्ञान में है.
संवेदनाओं से पूर्ण ज्ञान सभी के लिए बेहतर, न्याय और सम्मानपूर्ण दुनिया बनाने की बुनियाद है. यही इन्सान होने की पहचान है. सामान्य स्त्रियों का ज्ञान किसानी, कारीगरी, सेवा और छोटे उद्यमों की हर प्रक्रिया तथा प्रकारों में इन मूल्यों का संवर्धन करता है. यही वजह है कि संतों के दर्शन संवेदनाओं को ज्ञान का अभिन्न अंग मानते रहे हैं.
आवाहन
- आज की दुनिया में सबसे अधिक संख्या में सामान्य स्त्रियों के पास वस्त्र निर्माण और खाद्य निर्माण का ज्ञान है. साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ सामान्य स्त्रियों के ज्ञान-आन्दोलन का पहला चरण यहीं से शुरू होता है. वस्त्र और खाद्य के क्षेत्र स्त्रियों की ज़िम्मेदारी में रहें. यह मांग उन्हें किसान और कारीगर समाजों के साथ बराबरी से खड़ा होने का ठोस आधार देती है.
- देश की कृषि नीति और उद्योग नीति बनाने में सामान्य स्त्रियाँ अपने ज्ञान का दावा पेश करें और देश के किसान-समाज और कारीगर-समाज के साथ खड़ीं हों.
- इन समाजों की प्रमुख मांग यह हों कि स्थानीय स्तर से वस्त्र और खाद्य निर्माण में लगे सभी स्त्री-पुरुषों की आय सरकारी कर्मचारी जैसी हो.
- प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र स्त्री-ज्ञान पर आधारित हों तभी समाज में नैतिक मूल्यों का बीजारोपण हो सकता है. ये सेवा क्षेत्र स्थानीय स्तर से स्त्रियों के पास हों.
- हम दुनिया के महिला संगठनों से अपील करते हैं कि वे अपने समाज और बृहत् समाज के लिए स्त्रियों की ज्ञान-आधारित प्रखर भूमिका को पहचानें और एक ऐसे स्त्री आन्दोलन को आकार दें जो एक दूसरी, नई, बेहतर और न्यायपूर्ण दुनिया बनाने की ओर बढ़े.
चित्रा सहस्रबुद्धे, समन्वयक, विद्या आश्रम (27 Feb 2024)
दिन : रविवार, 28 जनवरी 2024
समय : शाम 3.00 से 5.00
कार्यवाही
विद्या आश्रम कार्यकारिणी की वर्ष 2023-24 की दूसरी बैठक 28 जनवरी 2024 को दोपहर 3.00 बजे से शुरू हुई. वाराणसी में रहने वाले कार्यकारिणी के सदस्य विद्या आश्रम पर पहुँच गए और अन्य शहरों में रहने वाले ज़ूम के द्वारा बैठक में शामिल हुए. बैठक की अध्यक्षता चित्राजी ने की और सञ्चालन गिरीश सहस्रबुद्धे ने किया.
उपस्थित सदस्य : प्रेमलता सिंह, एहसान अली, लक्ष्मण प्रसाद, अविनाश झा, कृष्णराजुलु, जे.के सुरेश, गिरीश सहस्रबुद्धे, अभिजित मित्रा और चित्राजी .
बैठक की शुरुआत वर्ष 2023-24 के दौरान हुए कार्यक्रमों पर हुई, जिसकी एक रपट संक्षेप में लिखकर पहले से ही सदस्यों में वितरित कर दी गई थी. चित्राजी ने इस वर्ष की प्रमुख गतिविधियों का उल्लेख करते हुए कहा कि विद्या आश्रम की पहचान अब एक ऐसे विमर्श स्थान के रूप में हो चुकी है, जहाँ बहुजन समाज, जिसे हम लोकविद्या-समाज या स्वदेशी-समाज के नाम से जानते हैं, की शक्तियों को ऊर्जावान बनाने की दिशा में विचार और कार्य होता है. सामान्य लोगों की नैतिक और परिवर्तनकारी शक्तियों को उजागर करने का काम होता है. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के मिलने का एक स्थान विद्या आश्रम बन गया है.
इस वर्ष कबीर जन्मोत्सव कार्यक्रम के जरिये लोकविद्या जन आन्दोलन ने वाराणसी और वाराणसी से बाहर के सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर शहर के विविध इलाकों में सामान्य लोगों के बीच कबीर के दर्शन की प्रासंगिकता और परिवर्तनकारी शक्ति को उजागर किया. सत्य, न्याय, भाईचारा और प्रेम के मूल्यों की पुनर्स्थापना के साथ समाज संगठन और सञ्चालन के उन बिन्दुओं की पहचान करने की कोशिश की गई जो सामान्य लोगों के ज्ञान की पहल और गुणवत्ता को बराबर का सम्मान और दर्जा दे. वाराणसी ज्ञान पंचायत कार्यक्रम ने एक कदम आगे बढाया है. इस कार्यक्रम के तहत अब वार्ड ज्ञान पंचायतें बनाने की ओर बढे हैं. वाराणसी ज्ञान पंचायत की पत्रिका ‘सुर साधना’ के अब तक कुल 5 अंक निकल चुके हैं और अब अंक 6 की तैयारी है. वार्ड सलारपुर और वार्ड जलालीपुरा में वार्ड ज्ञान पंचायत बनाने की बैठके भी हो गई हैं. इन बैठकों में ज्ञान पंचायत की भूमिका पर विस्तार से चर्चा होती है. लोकनीति संवाद के कार्यक्रम का विस्तार किया गया और स्थानीय लोगों के साथ संवाद के वीडियों बनाये गए. इंदौर से कला के क्षेत्र में लोकविद्या आधारित प्रस्तुतियों का आयोजन हुआ. लोकविद्या यात्राओं और सत्संगों के मार्फ़त लोकविद्या वार्ताएं चलीं. लोकविद्या वार्ता के व्हाट्सएप्प समूह की प्रत्येक मंगलवार को वार्ताएं चलती रहीं हैं. इन वार्ताओं में किसान आन्दोलन, स्वराज और वितरित सत्ता के मुद्दे विशेष स्थान लेते रहे. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी वार्ताएं हुईं. इन वार्ताओं के कुछ आधारभूत पर्चें अब विद्या आश्रम की वेब साईट पर पढ़े जा सकते हैं. विद्या आश्रम की वेब साईट का नवीनीकरण हुआ है. वेब साईट अब सुन्दर, सहज और आकर्षक बनी है. इसे अब हिंदी, मराठी और अंग्रेजी भाषाओं में पढ़ा जा सकता है.
लक्ष्मण प्रसाद ने वाराणसी से किसान समाज के बीच वार्ता के निरंतर चलते रहते कार्यक्रमों के बारे में बात रखी. संयुक्त किसान मोर्चा और भारतीय किसान यूनियन की गतिविधियों को सामने रखा.
‘बहुजन रिसर्च प्रोग्राम’ को चलाने की बात पिछले एक दो महीने से लोकविद्या समूह में चर्चा का विषय बनी. वाराणसी और चंडीगढ़ में इस विषय पर बैठकें भी हुई और लोकविद्या व्हाट्सएप्प समूह पर लगातार कई सप्ताह बात चली. इसी क्रम में बैठक में जे.के.सुरेश ने बंगलुरु से ली जा रही पहल ‘लोकविद्या-समाज रिसर्च कार्यक्रम’ के बारे में विस्तार से अपनी बात रखी. यह रिसर्च लोकविद्या-समाज के अन्दर पिछले दो दशकों में हुए परिवर्तनों को रेखांकित करने की कोशिश हैं. कर्णाटक में तकनीकी, राजनीति, सामाजिक आदि पक्षों में हुए परिवर्तनऔर लोकविद्या-समाज के अपने ज्ञान को सामने लाने का प्रयास रहेगा. सभी ने इस पहल का स्वागत किया और इसे शुरू करने के पक्ष में सहमति दी. राय यह भी रही कि वाराणसी, इंदौर और अन्य शहरों से भी इस दिशा में प्रयास हों तो अच्छा होगा.
विद्या आश्रम न्यास समिति की बैठक के लिए सर्वसहमति से 17 मार्च 2024 की तारीख तय की गई और इस पर न्यास के सभी सदस्यों की राय आ जाने पर इसे पक्का कर दिया जायेगा. बैठक विद्या आश्रम पर हो या ज़ूम हो इस बारे में भी न्यास के सदस्यों की राय आने के बाद तय होगा.
प्रकाशन के क्षेत्र में ‘सुर साधना’ के अलावा अधिक कार्य नहीं हुआ है. स्वराज पुस्तक माला के लिए सामग्री के संकलन का कार्य जारी है. हाल ही में 15-19 फरवरी 2024 में काठमांडू, नेपाल में होने जा रहे विश्व सामाजिक मंच में लोकविद्या जन आन्दोलन की ओर से एक युवा समूह शामिल हो रहा है. इस अवसर पर ‘सबकी आय पक्की, नियमित …’ का अंग्रेजी संस्करण तैयार किया गया.
वित्त के बारे में यह कि दिसंबर के अंत तक लगभग 6.20 लाख खर्च हो चुके हैं और आगे 2.50 या 3.00 लाख तक का खर्च होगा. उम्मीद है कि यह जुट जायेगा.
आश्रम की व्यवस्थाओं में फिलहाल यह कि वाराणसी विकास योजनाओं के तहत विद्या आश्रम की भौतिक स्थिति कितने दिनों तक बनी रहेगी इसकी कोई नई सूचना अभी नहीं मिली है.
वर्ष 2024-25 के लिए वाराणसी ज्ञान पंचायत, प्रकाशन और बहुजन रिसर्च प्रोग्राम ये प्रमुख कार्यक्रम होंगे इस बात पर सहमति बनी.