बहुजन स्वराज पंचायत
सत्रों का शब्दांकन [Hindi Transcripts of Sessions]
पहला दिन: सत्र 2, 3 [Day 1: Sessions 0, 1]
शब्दांकन [TRANSCRIPT]
विडियो लिंक: https://www.youtu.be/IFsIKAhsNX0
7 अक्टूबर 2025: पहला दिन, सत्र 2 (दो. 3.00 से शा. 5.00): बहुजन समाज
लक्ष्मण प्रसाद:
जो साथी सड़क पर इधर उधर टहल रहे हैं कृपया कार्यक्रम स्थल पर आ जाए। अब यह कार्यक्रम विधिवत शुरू होने जा रहा है। मैं जानकी भगत जानकी जानकी भगत जी को आमंत्रित करता हूं। आप जहां कहीं भी हो आप रोहतास बिहार के हैं। पुराने समाजवादी और अर्जक संघ से आप हैं। आप अध्यक्षता करेंगे। विजय जावंधिया जी जो पिछले सत्र में अध्यक्षता करने के लिए जिनको हम लोगों ने रखा था लेकिन थोड़ा सा काफी थके हुए थे। देर थोड़ा उनकी हो गई आने में। तो इस सत्र में आप को आमंत्रित किया जाता है। आप आए और अध्यक्ष मंडल में आप भी सुरेश प्रताप सिंह जी सुरेश प्रताप जी आप पत्रकार हैं। एक तरह से देखा जाए तो बहुजन पत्रकार के रूप में हम उनको मानते हैं। आप अगर यहां पर कहीं हो तो कृपया आ जाए। वक्ताओं की कड़ी में संजीव दाजी कृपया आप भी मंच पर आ जाए। हरिश्चंद्र जी आप भी वक्ताओं की कड़ी में है। कृपया आप भी मंच पर पधारे। हरिश्चंद्र के सहयोग के लिए वह रिकॉर्डिंग भी कर रहे हैं। तो फजल रहमान अंसारी जी से निवेदन किया जाता है कि आप आए और हरिश्चंद्र जी का मदद करें। राम किशोर चौहान जी आप देवरिया से हैं। मजदूर किसान मंच से हैं। जी तो आप सभी का स्वागत करते हुए अभिनंदन करते हुए और इस बहुजन स्वराज पंचायत की इस सत्र में सत्संग इंदौर में आप लगातार लोक विद्या के ऊपर कार्यक्रम करते रहते हैं। आप की एक वहां पर गायक मंडली है। कबीर के भजन लोक विद्या से जोड़कर यह गायन का कार्यक्रम करती रहती है। तो संजीव कीर्तने जी को मैं आमंत्रित करता हूं। आप आएं और अपने विचारों को व्यक्त करें।
संजीव दाजी:
पंचायत में आए सभी लोगों को मैं लोगों का मैं स्वागत करता हूं। मैं इंदौर से लोक विद्या समन्वय समूह इंदौर इस नाम से वहां पर एक समूह है। उसमें एक साधारण कार्यकर्ता हूं। उसके साथ ही वहां पर एक लोक विद्या कला केंद्र इंदौर के नाम से कुछ कला कार्य भी प्रारंभ हुआ है पिछले तीन सालों में तो उससे भी मैं जुड़ा हूं। पिछले 101 वर्षों में इंदौर और उसके आसपास के इलाकों में लोक विद्या के दर्शन को लेकर जहां संभव हो वहां जाना हुआ। यानी इंदौर के अंदर पहले बहुत सारी मिलें थी और कई मिलें बाद में बंद हो गई। तो ऐसे कई इलाके हैं जहां पर अलग-अलग राज्यों के लोग बस गए और ज्यादातर वो जो किसान थे वो इंदौर आए थे और मजदूर के रूप में या यूं कहें कि एक कारीगर के रूप में उन मिलों में काम करने लग गए। तो ऐसे क्षेत्रों में भी जाना हुआ जहां काफी संख्या में पीढ़ियों से जो कलाकार थे यानी पीढ़ियों से जो कारीगरी का काम करते थे ऐसे लोगों से मिलना हुआ और उन लोगों से लोक विद्या के विचारों पर उनकी भाषा में उनके तरीकों से बहसे खड़ी होने लग गई। बातचीत होने लग गई। तो कारीगरों के बीच में इंदौर शहर के अंदर ही बातचीत का सिलसिला पिछले 101 वर्षों से होता रहा। उसके बाद में इंदौर के आसपास जो किसान लोग रहते हैं मान ले 100 किलोमीटर के आसपास इंदौर के तो 100 किलोमीटर के इलाकों में बहुत ही विभिन्नताएं हैं और अलग-अलग प्रकार के अलग-अलग जातियों के अलग-अलग धर्मों के लोग हैं। तो ऐसे क्षेत्रों में भी जाना हुआ जहां पर लोक विद्या बहुतायत से रहते हैं लोक विद्या के लोग और तीसरा जो है शहर और गांव के बीच में कुछ ऐसी बातें हुई इस नए युग में कि जहां पर बड़ी संख्या में किसानों को बाहर करके उनके खेतों को छीनकर उद्योग लगाए गए। तो पीतमपुर नाम का एक बहुत बड़ा इंडस्ट्रियल एरिया वहां सरकारों ने बनाया जो पिछले 101 वर्षों से उस पर काम हुआ और अनेक किसानों की जमीनें ओनेपौने भाव में खरीद कर बड़ी-बड़ी उद्योगों की लगाए गए। यानी जो 15 20 वर्ष पहले किसान मुझे मिले थे। उस वक्त हम लोग जमीन अधिग्रह के खिलाफ कोई आंदोलन चल रहा था उसमें शामिल हुए। और उसमें लोक विद्या के विचार से उस आंदोलन को कैसे चलाया जाए इस पर भी बात हुई और उस वक्त यह सोचा गया कि जो किसानों की जमीनें ली जा रही है उनका हश्र क्या होगा तो आज जब मैं उन्हीं किसानों से मिलता हूं 15 20 साल बाद तो वो अपनी बयां करते हैं कहानी कि कैसे हमारा पूरा ज्ञान छीन लिया गया पैसों का मामला नहीं है 10 20 लाख देने से कुछ बात जीवन की होती नहीं है। आदमी जिंदा है अपने ज्ञान पे। आदमी को किसी नाम से पहचाना नहीं जाता। किसान है तो किसान के रूप में पहचान आ जाता है कि यह किसान का ज्ञानी आदमी है। तो इंसान की जो पहचान है वो तो उसके ज्ञान से है। अब उनकी जमीनें छीन ली गई और जब वो शहरों में आ गए पैसा लेके तो उनका ज्ञान तो कहीं के कहीं रह गया और फिर से वह मजदूर बन गए। ना तो कारीगर बन पाए ना किसान बन पाए। मजदूर के रूप में काम करना पड़ा। तो ऐसा हश्र हुआ। ऐसे लोगों के बीच में भी लोक विद्या के विचार को रखा गया। उनसे बातचीत हुई। तो अलग-अलग इलाकों में काम करने का अनुभव मैं थोड़ा सा इस मौके पर साझा करूंगा। और अभी जो फिलहाल पिछले 510 साल के अंदर जो एक नया इलाका हमें मिला और बहुत ही दिलचस्प इलाका जिसे हम बोलते हैं मालवा निमाड़ का अंचल और उन अंचलों में जाने से यह पता लगा कि उन अंचलों के लोग कैसे हैं। तो मैं अपने कुछ अनुभवों को एक छोटी सी समय के बीच में रखना चाहूंगा और एक निष्कर्ष जो मेरा निकल रहा है कि आगे कैसे बढ़े उस पर भी बात करूंगा। मैं वहां से मालवा निमाड़ अंचल से आए हमारे 40-50 साथियों का जहां बैठे हैं उनका मैं स्वागत करता हूं और उनके बीच में महिलाएं भाई है उनका भी मैं स्वागत करता हूं। हमारे बीच में राधास्वामी सत्संग के सभी साथी जो है उनका भी मैं स्वागत करता हूं। तो जितने लोग हैं आदिवासी हैं कुछ अलग-अलग जातियों के हैं उनका भी मैं स्वागत करता हूं। यहां बनारस में आए सभी से मैं उनका भी स्वागत करता हूं। तो मैं थोड़ी अंचल की बात कहता हूं कि मेरा अनुभव दो तीन अंचलों से हुआ। एक चंद्रपुर इलाका है महाराष्ट्र के अंदर तो वहां चिमूर नाम की एक जगह है। उस चिमूर के अंदर मैंने कुछ अनुभव लिया। कुछ औरंगाबाद के पास में इलाके हैं। वहां पर मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया और फिर इंदौर के अंदर आया तो मालवा निमाड़ अंचल मुझे मिला। तो यह अंचलों की कहानी यह है कि पूरा भारत जो है वह अंचलों में बटा हुआ है। और मालवा निमाड़ के अंचल को यदि हम ध्यान से देखें तो हमें ऐसा लगता है कि ये ज्ञान का एक गुच्छा है। यानी यहां के ये जो लोग बैठे हैं वो भी अलग-अलग छोटे-छोटे गांव से आए हैं। और ये पूरा जो ज्ञान का गुच्छा है। यानी इसमें कुछ जिनको हम कहते हैं कल किसान वह छोटी-छोटी जमीनों के किसान है। किसी कुछ लोग जो है वह कारीगर हैं। हमारे बीच में महिलाएं हैं और ये आदिवासी भी है और अन्य जातियों के लोग भी हैं। इनकी खुद की पंचायत ही बंजारे समाज की तो बहुत बड़ी पंचायत है। ये किशोर महाराज हमारे बीच में बैठे हैं जो बड़ा अनुभव यहां बता सकते हैं कि यह बंजारा समाज कैसे चलता है। तो यह इन लोगों के बीच में आने से ऐसा लगा कि इस अंचल को हम यूं ले कि यह ज्ञानी लोगों का एक गुच्छा है, गुलदस्ता है। अलग-अलग प्रकार के ज्ञानी है। और फिर इन ज्ञानियों के बीच में जाने से पता लगा कि हर अंचल की कोई खूबी है। जैसे मैं महाराष्ट्र के चमूर नामक जगह जो मैंने बताई वहां जब गया तो वहां पर उन अंचलों में शेर पाए जाते हैं। मतलब दो चार शेर नहीं 100 200 शेर। तो शेरों के बीच में रहने का उनका अनुभव है। वहां के लोगों की खूबियां यह है कि वहां पर संत लोग बहुत सारे हो गए। तो संतों के साथ रहने का उनका अनुभव है। वहां के लोगों की उन अंचलों की बात है कि वहां आजादी के पहले ही बहुत बड़ी क्रांति हो गई और अपने आप को उन्होंने आजाद घोषित कर दिया एक छोटे से इलाके को। तो वहां पर आजाद के मतवालों की भी है और वो जो चीजें हुई है यह सब यह आज भी यदि हम जाते हैं तो दिखाई देती है कि उनमें भी संत के पुट दिखाई देते हैं। सत्य की खोज कर रहे हैं वो भी और उनमें बहादुरी भी है। मतलब वो बगावत भी कर सकते हैं और शेरों के साथ भी रहने का उनको तजुर्बा है। तो उस अंचल की खूबी यह है। मालवा निमाड़ के अंचल की खूबी यह कि यहां हर गांव के अंदर सत्संगी मिले। यह सबसे बड़ी खूबी मुझे दिखी। छोटे-छोटे गांव में एक या दो सत्संगी मिल ही जाते हैं और उन सत्संगों से सत्संगियों से जब बात करते हैं तो वो सत की बात करते हैं कि सत होता क्या है? और अलग-अलग संतों की बातें करते हैं। और हमेशा यह उनको ज्ञान जो शब्द है जो ज्ञान के इर्दगिर्द उनका दर्शन चलता है। यानी आदमी पैदाइश से ले आदमी मरने तक की जो कहानी है वो भी अपने हिसाब से वो समझ रहे हैं संतों के बोलों से और जगह जगह जहां मौका मिला वहां संत वाणी रखते हैं। तो हमारे बीच में ऐसे यह संत वाणी रखने वाले महात्मा लोग आ गए हैं। बैठे हैं सामने और यह सभी लोक विद्या के स्वामी हैं। इनके पास जो ज्ञान है वो लोक विद्या का ज्ञान है। तो मुझे बड़ा अच्छा लग रहा है कि मैं ऐसे मौके पर आया हूं जब मैं लोक विद्या के ज्ञानियों के बीच में भी अपनी बात थोड़ी सी रखना चाहता हूं कि मेरा अनुभव इनके साथ क्या आया। तो वहां पर जाने के बाद में यानी मैं मालवा निमा अंचल तक ही सीमित रखता हूं। एक मुझे शायद पांच एक मिनट में हो रहा है। समय हां तो पांच एक मिनट में मैं अपनी बात समेटता हूं कि ये जो अंचल होते हैं उसमें कहां जाके अपनी बात को रखा जाए। यानी लोक विद्या की बात को मैं कहां करूं? तो कोई बोलेगा भाई किसान की बात है। खेत में करो जाओ। बहुत सारे खेत हैं। किसानों की बात वहां कर लो। बहुत सारे आपको कारीगर दिख जाएंगे। वहां जाकर बात करो। लेकिन मुझे ऐसे जगह की तलाश थी जहां पर उस अंचल के हर प्रकार के इंसान आ जाए। यानी शराबी भी आ जाए, डाकू भी आ जाए, चोर भी आ जाए, महात्मा भी आ जाए, पुरुष भी आ जाए, स्त्री भी आ जाए और वो किसी से प्रभावित ना रहे। एक ऐसी सामान्य जगह जहां पर उसको जाने की इच्छा होती है। जहां पर वो जाने के बाद में सक्रिय हो जाता है। खाली बैठा नहीं रहता। जैसे अपन पिक्चर हॉल में जाएंगे तो कोई पिक्चर अपने को देखने के लिए अपने को बैठना है वो सामने दिखा रहा है। ऐसा नहीं है। तो ऐसी कौन सी जगह है जहां पर ऐसा लगता है कि लोक विद्या का यह जीवंत स्थान है। अगर मंदिर में जाओ तो नहीं है। मस्जिद में जाओ तो नहीं है। अगर आप किसी गांव की चौपाल पर जाओ तो नहीं है। यानी सब दूर कोई राजनीतिक मिला है, कोई धनिक मिला है, उसके कब्जे में है, किसी राजनेता के कब्जे में सब बातें हैं। आप किसी से बात करोगे तो क्यों कर रहे हो? क्यों आए? 10 सवाल हैं। तो ऐसी कौन सी जगह है जहां पर यह लोक विद्या का दर्शन रखा जा सकता है और सक्रियता से उसको आगे बढ़ाया जा सकता है। तो मुझे उन अंचलों के छोटे-छोटे हट दिखे और हाटों में मैंने काम करना प्रारंभ किया। हाटों को समझना प्रारंभ किया। तो मैंने इंदौर के अंदर जो हट हैं जो 100 डे 150 साल से इंदौर में भी लग रहे हैं जहां पर जो कारीगर थे वह आते थे किसान आता था सब कोई आता था तो जब गांव के हाटों का स्वरूप देखा अलग-अलग गांव के हाटों का स्वरूप देखा तो पूरे भारत में हाटों का एक जाल सा बिछा है और पूरा ये लोक विद्या के जीवंत स्थान है। इन हाटों को एक दूसरे से कैसे जोड़ा जाए? इन हाटों पर लोक विद्या की बात को कैसे रखा जाए? कौन से यहां पर ऐसे आयोजन किए जाए जिसमें लोग लोक विद्या की बात को रखें सामने और स्वराज की बात को भी रखें। यानी बहुजन समाज का जो स्वराज ज्ञान पंचायत अपन ने बिठाई है। ऐसी ज्ञान पंचायत यदि किसी हाट में बैठ जाए ऐसी बातें यदि किनहीं हाटों में होने लग जाए तो 100 200 नहीं हजारों लोग वहां सुनने को आ जाते हैं। तो ऐसे प्रयोग हमने प्रारंभ किए। इंदौर में भी किए और जहां मौका मिला उन हाटों में किए। क्योंकि हाटों के अंदर ही उत्सव मनते हैं। हाटों के अंदर ही बहुत बहुत बड़े-बड़े प्रोग्राम होते हैं। तो हाटों के अंदर हमने यह एक केंद्र बनाया और हाटों को मैं थोड़ी सी समझाना चाह रहा हूं। दो मिनट के अंदर क्या हुआ कि एक हार्ट को केंद्र मानकर यदि 12 मील का हम एक घेरा खींचे। यानी मैंने इस पर कुछ काम किया है। अभी समय के अभाव में केवल मैं उसकी एक सामने आपको रख रहा हूं कि क्या हो सकता है। तो मैंने क्या किया कि कोई हार्ट लिया और उसका एक 12 मील का ऐसा सर्कल खींचा। ये एक 12 मील का मैंने एक सर्कल खींचा है और इन 12 मील के सर्कल को 12 भागों में बांट दिया। तो हम किसी हाट को केंद्र में मानकर यदि 12 मील का कोई घेरा बनाए तो वह एक लोक विद्या की ज्ञान पुंछ लोक इकाई कहलाएगी। एक हट के इर्दगिर्द 12 मील का क्षेत्र एक लोक विद्या इकाई है। इस लोक विद्या इकाई का केंद्र बिंदु हार्ट है जो सबसे ज्यादा जीवंत स्थान है। उस हट के अंदर हर कोई आता है और अपनी गतिविधि को अंजाम देता है। यानी अपने ज्ञान का प्रदर्शन करता है। जब लोग बहुत सारे आते हैं तो एक दूसरे के ज्ञान का आदान प्रदान होता है। कोई यह नहीं पूछता कि तुम किस धर्म के हो? कोई यह नहीं पूछता कि तुम चोर हो, कोई यह नहीं पूछता कि तुम कौन हो? हर एक का ज्ञान वहां प्रदर्शित करने का मौका है। तो हार्ट के अंदर हम सत्संग क्यों ना करें? तो इन सत्संगियों के बीच में जब ज्ञान पंचायते होने लगी। 10 12 साल से मैं इनके साथ काम कर रहा हूं। कुछ फिल्में बनाई। कुछ और भी बहुत सारे काम हुए जो अभी बताएंगे अपन। लेकिन इन सत्संगियों के बीच में मैंने एक प्रस्ताव रखा कि क्यों ना हम इन हाटों में सत्संग करना प्रारंभ करें। और सत्संग के माध्यम से लोक विद्या की यानी संतों की परंपराओं को लोगों तक पहुंचाने का काम करें। जब हमने यह बात करी 23 पिछले माह की 23 तारीख को अमावस के दिन हम लोग करते हैं कि अमावस का एक दिन पकड़ लिया है। उस उस दिन सब गतिविधियां होंगी। तो जो अमावस आएगी उस दिन गतिविधि होगी। तो जिस दिन हाट में अमावस के दिन हाट बैठता है वहां चले गए और यह संतों के बोल वहां चालू हो गए और उसी दौरान बाकी सब बातें भी रखी जाए तो कौन-कौन सी और बातें हो सकती है आप लोग भी सोच सकते हो और जो हमने सोची जो हमने करी उसके अनुभव भी मैं आपसे साझा कर सकता हूं। तो यह मंच से करने की उसकी जरूरत नहीं है। मैं यहां हूं दो दिन जिस किसी को ऐसा लगता है कि हाटों में क्या-क्या हो सकता है। हाटों में कितना बड़ा मतलब आंदोलन का स्वरूप खड़ा करने का ये एक बिंदु है। इसको मैं हर किसी से बात करना चाहूंगा। मेरे दो दिन के अभी यहां के स्टे में और जितने लोग इसमें बातचीत करना चाहे हमारे साथी सामने बैठे हैं। वह भी अपने अनुभव साझा करना चाहेंगे। हमारे कुछ लोगों का मैं परिचय करना चाह रहा था। लेकिन मैं केवल तीन-चार लोगों को कर देता हूं और फिर मैं अपनी वाणी को विराम देता हूं। मैं अपने बकलाया गांव के भैया आप खड़े हो जाओ बकलाए से। हां आपका नाम बता दीजिए पीछे मुड़ के जरा जोर से बुलंद आवाज में बताओ पिछले पांच 10 सालों से बहुत अच्छा काम सक्रियता से कर रहे हैं और इतने लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं हमेशा सत्संग करते हैं। हमारे बीच में किशोर महाराज हैं। किशोर महाराज जी आप भी थोड़ा सा थोड़ा पीछे आपको जानने लग जाए लोग परिचय हो जाए। आप किशोर महाराज से जब भी मौका मिलता है आप जरूर बातचीत करिए। वो क्या करते हैं उनकी पूरी जीवनी समझने लायक है। मेहतवाड़ा से भाई साहब आए हैं अपने महतवाड़ा से आप खड़े होइए प्लीज। आप भी अपना नाम थोड़ा बता दीजिए। पीछे जरा चेहरा देख ले लोग और गणेश भाई गणेश भाई बहुत बड़ा काम भी वहां करते हैं। आप भी थोड़ा सा दे दे गणेश भाई तो अब मैं सबका तो नहीं कर पाऊंगा लेकिन हमारे जगदीश बाबा है उधर थोड़ा खड़े हो जाइए जगदीश बाबा ने हमारे नएनए सत्संग डिजाइन किए हैं लोक विद्या के सत्संग 10 सत्संग इन्होंने ऐसे नए बनाए हैं जो वो पेश करने वाले हैं वो अपना एक तारा ले आए हैं और साजो सामान भी बिलमन भाई मांडव करके एक जगह है वहां ऐतिहासिक क्षेत्र है उसके ये एक बड़े जुझारू आदिवासी हैं और इनके साथ 10 20 10 15 साथी लोग आए हैं इनके। उधर महाराज लोग भी हमारे बीच में आए हैं। कन्हैया महाराज जी आप जरा थोड़े से खड़े हो जाइए। कन्हैया महाराज जी हैं। उधर दूसरे महाराज जी हैं। महाराज जी आप भी थोड़ा इन्होंने बड़ी प्रेरणा दी है क्योंकि हमारे बीच में हम लोग बड़ी-बड़ी ज्ञान यात्राएं निकालते हैं। एक एक घाट से दूसरे हाथ को जोड़ने के लिए ज्ञान यात्राएं निकलती है। अब नर्मदा नदी है और इधर बड़ा भारी विंध्याचल श्रेणियों को पर्वत हैं बड़े-बड़े तो पर्वतों से लेकर नदियों तक हमारी ज्ञान यात्राएं चलती है। गांव को जोड़ते जाते हैं। तो हमारे जितने भी अनुभव हम उसको आपसे साझा करना चाहेंगे और मंच से शायद मैं अभी इतनी वाणी मेरी विराम देता हूं क्योंकि
लक्ष्मण प्रसाद:
अगले वक्ता जो हैं अच्छी मेरे से महत्वपूर्ण अच्छी बातें अपने को साझा करने वाले हैं। धन्यवाद। बहुत-बहुत धन्यवाद संजीव दाजी। आप हाट में कार्यक्रम करते हैं। लोकविद्या ज्ञान को लेकर के विचार को लेकर के आदिवासी लोगों के बीच सत्संग गायन का उनके कला का कार्यक्रम करते हैं। प्राय: हम देखते हैं कि जो बिल्कुल हासिए पर जो समाज है उसकी चर्चा ही कहीं नहीं होती। हम लोग इतना पढ़े हाई स्कूल इंटर बीए एमए सब कर लिए लेकिन आदिवासी लोगों की जो कला है उनका ज्ञान है उनकी दुनिया है उसके बारे में लगभग कुछ भी नहीं पढ़ाया गया तो यह लोकविद्या समाज जो आज बहुजन समाज जिसे हम कह रहे हैं यह बहुत बड़ा ज्ञान समिति और जिसका जिक्र हमारे संजीव जी ने किया वो काफी मायने रखता है …
संजीव दाजी:
हां एक कुछ बात सबसे महत्वपूर्ण बात जो है वह बोलनी रह गई माफ करें तो वो मैं थोड़ा बोलना चाह रहा था लेकिन अब वो मैं 75 साल का बूढ़ा हो गया हूं थोड़ा जो महत्वपूर्ण बात है वो खिसक गई तो सबसे महत्वपूर्ण जो अनुभव मेरे को मिला इतने सालों के दौरान मतलब 2025 सालों के दौरान सबसे महत्वपूर्ण जो बात मेरे को समझ में आई वो ये है कि स्त्री और पुरुष दोनों की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है किसी भी गतिविधि को अंजाम देने के लिए। और यह जो स्त्री पुरुष का जोड़ा है इसको हमने पारो दरिया का जोड़ा रखा। पारो यानी स्त्री और दरिया यानी पुरुष। ये पारो दरिया ये इस आंदोलन के मुख्य आगे ले जाने वाली जोड़ी है। और इस जोड़ी के साथ मैं इतना ज्यादा प्रभावित हूं कि मैं आपको क्या बताऊं। मैं 24 घंटे आपके साथ इस पर बात कर सकता हूं। धन्यवाद।
लक्ष्मण प्रसाद:
जी बहुत-बहुत धन्यवाद। तो आगे हरिश्चंद्र केवट जी हैं मिर्जापुर के रहने वाले। आप लोक विद्या पत्रकार के रूप में पहचाने जाते हैं। मां गंगा जी निषाद सेवा समिति के आप सचिव हैं। और समाज में लगातार सक्रिय हैं। तो हमारे बीच हरिश्चंद्र केवट जी …
हरिश्चंद्र केवट:
बहुत-बहुत धन्यवाद लक्ष्मण जी और मंच पर उपस्थित सभी साथी और सम्मानित सभी साथी उपस्थित जितने भी साथी आए हैं दूरदराज से इस बहुजन स्वराज पंचायत में आप सभी साथियों का मैं विद्या आश्रम की तरफ से हार्दिक स्वागत अभिनंदन करता हूं। आप लोगों ने बहुत मेहनत की है और इस बदलते दौर में आप इतनी मजबूती से खड़े हैं अपने ज्ञान के साथ अपने हुनर के साथ अपने पहचान के साथ ये बड़ी बात है। जहां एक ओर पूरी दुनिया पूंजी की अंधी दौर में दौड़ रही है। उसी दौर में हम लोकनीति की बात कर रहे हैं। हम स्वराज की बात कर रहे हैं। हम ज्ञान की बात कर रहे हैं। हम हुनर की बात कर रहे हैं। हम कारीगरी की बात कर रहे हैं। तो निश्चित तौर पे यह जो बात है वास्तव में एक समाज को बनाने की बात है। साथियों बहुजन की पहचान को ले तमाम परिभाषाएं गढ़ी गई। कुछ राजनीतिक परिभाषाएं गाड़ी गई, कुछ एकेडमिक परिभाषाएं गढ़ी गई। लेकिन वास्तव में कोई इस तरह से बहुजन को परिभाषित नहीं कर पाया। विद्या आश्रम की तरफ से हम लोग जब इस बात पे चिंतन कर रहे थे तो हमें दिखाई दिया इतनी संख्या में लोग जो ब्रिटिश हुकूमत में विमुक्त जाति के लोग जिनको क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लगा के पाबंद कर दिया गया। अंग्रेजों के द्वारा वे लोग कौन लोग थे? यह सवाल अभी तक अधूरा है। इस पे बात नहीं होती। सारे समाजों को आज वर्गों में विभाजित कर दिया गया। आप पिछड़ी है, अति पिछड़ी है, अनुसूचित जाति है, अनुसूचित जनजाति है। लेकिन वास्तव में ये जो समाज की भारतीय समाज की परंपरा रही है, स्वराज की परंपरा इसमें आप देखिए कि आजादी के आंदोलन में जो लोगों का सपना था, जो लोग आजादी के लिए लड़ रहे थे, उनके मन में क्या सपना था कि स्वराज का मतलब हमारी आजादी होगी। हमारी मुक्ति यानी जहां पर हम है वो हमें मिल जाएगा। यानी जो अपनी मान्यताएं हैं, अपनी रीति रिवाज है, अपनी सामाजिक पंचायतते हैं उस पर हमको आजादी मिलेगी। जैसा पहले होता था। यह हमारे बगल में एक तथ्य आप देखेंगे विनोबा जी का चार सूत्र लिखा हुआ है। किस तरह से वो ग्राम गांव को परिभाषित करते हैं और देश को परिभाषित करते हैं। तो साथियों यह जो पंचायत है पंचायत शब्द का इस्तेमाल करने के पीछे जो दर्शन है वास्तव में पंचायत जब होती है तो सारे व्यक्तियों की राय उसमें होती है। आज जो व्यवस्था है यह व्यवस्था सिर्फ दिल्ली में बैठे हुए लोग तय करेंगे कि बनारस और मिर्जापुर गाजीपुर के सुदूर गांव में क्या कानून लागू होगा और क्या सुविधाएं होंगी वो दिल्ली से तय होता है लखनऊ से तय होता है तो हम कुछ तय ही नहीं कर सकते मैं एक मजेदार बात बताऊंगा आपको मेरे जीवन का बड़ा अनूठा अनुभव रहा। पिछले साल ने एक डोम समाज के लिए लड़ाई लड़ी। डोम समाज जो मुर्दा जलाता है। आप सोचिए कि यह जो सत्ता है कहां तक गिर सकती है और किसके अधिकारों को खा सकती है। वो समाज जो सदियों सदियों से लोगों को जलाने का काम करता है और उसकी एक परंपरा है। उसके पीछे उसका हुनर भी है। वो सिर्फ लोगों की चिताओं को जलाता नहीं है। बल्कि एक बांस का बहुत बेतौर कारीगर है। उसकी कारीगरी देखेंगे वो बांस के टोकरिया बनाता है। बहुत तरह के काम की चीजें बनाता है। दैनिक उपयोग की चीजें बनाता है। एक हमारी तरफ वो कहते हैं सरपत कहते हैं उसकी डंडी से निकला हुआ उससे बड़ा अच्छा सुनहरा वो सामान बनाता है। अब सोचिए वो समाज जिसको अंग्रेजों ने क्रिमिनल ट्राइब घोषित कर रखा था। डोम धिककार समाज को और जिन समाजों को अंग्रेजी हुकूमत में रोज थाने पर हाजिरी दी जाती थी और जिनके बच्चा पैदा होते थे तो उनका नाम ही रखा जाता था कि अमुक अपराधी पैदा हुआ जिनको 52 में इस देश में आजादी मिली वो समाज जिसको इस देश की आजादी में कुछ मिला नहीं लेकिन ये मिला कि उनके जो अधिकार थे वो छीने गए। जमीनें उनके पास नहीं थी। एक मात्र काम था शव जलाते थे उसके एवज में कुछ उनको मिलता था और जो मुर्दों के कपड़े होते हैं वो उसका इस्तेमाल करते हैं अपने घर के पहनावे के लिए तो मिर्जापुर में यही बगल में एक जिला है वहां पे क्या हुआ कि जिला पंचायत ने मुर्दा घर बनाकर नमावी गंजे से एक बड़ा प्रोजेक्ट बना और श्मशान घाट का उसने क्या किया ठेका कर दिया यानी एक ठेकेदार आएगा वहां बैठेगा और वो हर मुर्दे के पीछे 1000 की पर्ची काटेगा यानी अगर आप मर गए तो आपको सरकार को ₹1000 देना पड़ेगा। उसके एवज में सरकार आपको कुछ नहीं देगी। बस उस जगह पे जलाने की अनुमति देगी। लकड़ी आपका अपना ही रहेगा। बाकी सामान आपका ही था। तो ये जो परंपरा बनी इसके खिलाफ उस समुदाय के लोगों को मैंने संगठित किया। बड़े डरे हुए लोग थे। वो कह रहे थे कि हम क्या है? हम तो कुछ नहीं है। हमें तो पुलिस कभी भी आएगी उठा के ले जाएगी, मार देगी, मुकदमा कर देगी। क्योंकि इसके पहले उनको इतना डराया गया इतना उनको परेशान किया गया उनके अंदर उनके अंदर इतने गहराई से डर समा गया था कि वो ये कल्पना ही नहीं कर सकते कि ये लोकतंत्र में उनकी भी कोई जगह है। उनका भी कोई पहचान है। पूरे दो महीने उनको तैयारी में मैंने ट्रेनिंग दिया। उनको बताया बार-बार समझाया। आपस में लोग टूटे। अंततः 12 दिन की भूख हड़ताल हुई है। सत्ता को झुकना पड़ा। आंदोलन जीता गया। लेकिन एक सवाल वहीं पर रह गया कि सिर्फ उनके हक अधिकार की लड़ाई खत्म हुई। वो एक एक लड़ाई थी। बाकी सवाल वहीं पे है। उनकी अपनी अस्मिता का सवाल, उनके ज्ञान का, उनके हुनर का सवाल, उनकी जमीनों का सवाल वो सवाल वैसा के वैसा है। साथियों इस मारफत बहुजन स्वराज पंचायत के मारफत हम ऐसे ऐसे अनगिनत समाजों को उनकी चेतना को उनके ज्ञान को जो अपनी परंपराओं में वो इस्तेमाल करते थे। हम यह चाहते हैं कि बहुजन स्वराज पंचायत इस बदलाव की एक कसौटी बने। यह एक चौखट बने और हम सभी को इस चौखट को पार करना है। मुझे लगता है कि बहुजन स्वराज पंचायत में वो ताकत है। अलग-अलग समाजों के जो लोग हैं वो अपने स्वतंत्र अस्तित्व से अपनी पहचान के साथ इस पंचायत में आएंगे। हम ऐसी कल्पना करते हैं। मुझे लगता है इस दौर में आप लोगों ने कई विचारधाराओं को देखा होगा। मेरी उम्र कम है तो मैंने कम विचारधारा को देखा है। आपके पास ज्यादा अनुभव है जो बुजुर्ग साथी हैं लेकिन मुक्ति का रास्ता मुझे लगता है अभी तक नहीं मिला है। क्योंकि जिस तेजी से विकास की चकान चौक में इस देश को गिरफ्त में लेती सरकारें आ रही हैं और जो मॉडल विकास का पेश कर रही हैं जो एजुकेशन का मॉडल है जो चिकित्सा का मॉडल है वो पूरा ढांचा ही बिल्कुल अन्याय प्रवृत्ति के ऊपर आधारित है। इसमें कोई न्याय नहीं है। इसमें नीचे से लेकर ऊपर तक गैर बराबरी है। आप चिकित्सा में क्षेत्र में जाइए। आप शिक्षा के क्षेत्र में जाइए। आप देखिए क्या आंधी लूट मची है। लूट ऐसी कि आदमी कमा रहा है। वो फीस नहीं दे पा रहा है। इलाज नहीं करा पा रहा है। जबकि वो परंपराएं हमारे यहां पहले से थी। हम उसे हमारा समाज चलता था। हमारे समाज के बीच में ऐसेसे चिकित्सक थे जिनके पास ज्ञान का भंडार था। लेकिन उनके ज्ञान को नकार दिया गया। उनको झोला छाप कह के नकार दिया गया। जो लोग प्रकृति का हुनर रखते थे, पानी का जिनको अनुभव था, नदी का हुनर था, जिनके पास जड़ी बटी का अनुभव था। विष का सोचिए कि उन सारे लोगों को नकार दिया गया। सिर्फ मान्य कौन है जिसके पास डिग्री है और डिग्री भी इतनी महंगी है कि वो डिग्री भी वह समाज के लोग ले नहीं सकते। मतलब इधर से भी मारेंगे उधर से भी मारेंगे आपको जिंदा ही नहीं रहने देंगे। तो यह जो व्यवस्था है बिल्कुल अन्याय प्रवृत्ति है। न्याय का इसमें सवाल नहीं है और न्याय कोई कर सकता है तो इस देश का किसान कर सकता है, कारीगर कर सकता है, आदिवासी कर सकता है। जितने भी हुनरम कारीगर समाज के लोग हैं उन्हीं के पास न्याय है। आपने जिस हार्ट की बात की उस हार्ट की बात सच में बहुत महत्वपूर्ण बात थी। लेकिन उस हार्ट को भी आज सरकारों ने उजाड़ दिया। अवैध अतिक्रमणकारी बता के उस हट का लाइसेंस कर रहे हैं लोग। जितने भी शहर में छोटी-छोटी दुकानदारी लगाने वाले लोग थे उनको उजाड़ दिया गया। मैं आजकल एक नए नए कारीगरों के साथ काम करता हूं। जो डिजिटल प्लेटफार्म वर्कर हैं। ऐप पर काम करते हैं। आपके मोबाइल पे आप आर्डर करिए। आपके घर पर सब्जी आ जाएगी। जीवन का हर सामान आपके घर आ जाएगा। और बड़ा दुख होता है वो नौजवान जो ग्रेजुएशन करके मास्टर की डिग्री लेके पीएचडी की डिग्री लेके वो लोग इस सेक्टर में काम कर रहे हैं और उसमें किसी भी प्रकार की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। कोई कानून नहीं है। ये जो समाज को बनाया आप सोचिए एक फैक्ट्री था। पहले फैक्ट्री राज था उसमें मालिक दिखता था। अब तो ऐसे मालिक है जो मालिक दिखते नहीं है। यूरोप में बैठा मालिक है, अमेरिका में बैठा मालिक है। वो मालिक भी नहीं दिखेगा। इससे आपसे क्या करेंगे? और इस क्षेत्रों में काम करने वाले कौन लोग हैं? यही बहुजन समाज के लोग हैं। लेबर मंडी कहा जाता है। हमारे समाज का जो हुनरपन कारीगर आदमी है वो चौराहे पे सुबह से ले रात तक इंतजार करता है कि कोई आए हमारे श्रम को खरीद दे। और वो तय करेगा जो आएगा वो तय करेगा। हमारे पास तय करने का अधिकार नहीं है। तो इस समाज को वापस न्यायपूर्ण समाज बनाना है। वापस इसमें समता आए, समानता आए, भाईचारे का समाज बने, प्रेम का समाज बने। तो निश्चित तौर पे हमको इस पंचायत को मजबूत करना पड़ेगा। और साथियों मैं आपसे यही आग्रह करूंगा कि यह जो चेतना है इसको जगह-जगह हमें जिम्मेदारी से ले जाना पड़ेगा और ये तभी संभव होगा जब हम इसमें पूरा अपना योगदान देंगे। यह जो लड़ाई है यह अपने पहचान की लड़ाई है। अगर मैं नाविक समाज से हूं मल्ला हूं तो मुझे लगता है अगर मैं जिस दिन नाव चलाना और तैरना छोड़ दिया तो मेरी पहचान खत्म हो जाएगी। कौन मुझे मानेगा? और उसके लिए जरूरी है नदी होनी चाहिए। और उसके लिए जरूरी है कि नदी पर अधिकार होना चाहिए। इसी तरह जो जंगल में लोग रहते हैं उनके पास अपना जंगल होना चाहिए। तब ना वो जड़ी बूटी के ज्ञान को रखेंगे। तब ना अपने हुनर को दिखाएंगे। और जो कारीगर है उनके हाथ में करघा होना चाहिए। जो महिलाएं हैं उनके हाथ में खाने का अधिकार होना चाहिए। वस्त्र का अधिकार होना चाहिए। तो साथियों मैं इसी बात से और इसी अनुरोध से आपसे विदा लेता हूं और अपनी बात समाप्त करता हूं कि एक नई धारा जो हम लोगों ने गढ़ा है और जो हम लोग प्रयास कर रहे हैं अगर आपको उसमें जरा सा भी ताकत दिखे उस ताकत में अपनी ताकत मिलाइए जिंदाबाद आप लोगों का बहुत-बहुत धन्यवाद.
लक्ष्मण प्रसाद:
बहुत-बहुत धन्यवाद हरिश्चंद्र जी बहुजन समाज की स्थितियों का वर्णन बहुत ही बखूबी ढंग से किया आपने ने अब आगे हमारे बीच राम किशोर चौहान जी आप मजदूर किसान मंच से हैं। देवरिया के रहने वाले हैं और किसानों के सवाल को लेकर के और अन्य सवालों को लेकर के लगातार सक्रिय रहते हैं। हम आपको आमंत्रित करते हैं। आए और अपने विचारों को रखें। राम किशोर चौहान जी …
राम किशोर चौहान: [मजदूर किसान मंच , देवरिया]
सबसे पहले मैं एक नारा दूंगा कि बहुजन बहुजन स्वराज जिंदाबाद जिंदाबाद सभी लोग बोलेंगे बहुजन स्वराज जिंदाबाद जिंदाबाद धन्यवाद साथियों देश से आए हुए सभी सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक संगठनों के अन्य लोग जो आज ऐतिहासिक धरती जहां गंगा जमुनी तजी के रूप में बनारस को देखा जाता है। जहां हमारे संत रविदास कबीर और यहां के उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जैसे लोग यहां पैदा हुए। वो बनारस है और वही बनारस है जो गंगा जमुनी तजी बहुजन को आगे बढ़ाने के लिए यहां का राजा हरिश्चंद्र के नाम से विख्यात हुए हैं। अब पूरा दुनिया में विख्यात है जो हम लोग को उसको हम लोग एक डोम राजा के नाम से जाना जाता है। उनका नाम है राजा हरिचंद। ये क्या है? ये बहुजन के लोग हैं। बहुजन को परिभाषित करने के लिए यदि हम लोग उस पर विस्तार से जाएंगे तो कुछ मनुवादियों के लोगों ने देश में वर्ण व्यवस्था बनाया। उस व व्यवस्था में चार वर्ग बांटा गया। हमारे कुछ भाषाएं कर हो सकता है। किसी लेकिन किसी धर्म विशेष में मैं बोलना नहीं चाहता हूं। ना किसी से मेरी उस स्तर की बात है। लेकिन ब्राह्मण क्षत्रिय 22 शद्रों में बांटा गया। आप लोग समझ सकते हैं। मुख से पैदा हुआ व्यक्त श्रेष्ठ भुजा से पैदा हुआ व्यक्त में लड़ने वाला उधर से पैदा होने वाला व्यक्त और पैर से पैदा होने वाला व्यक्त लोगों ने शूद्र कहा। बहुजन शब्द का अर्थ हमें लगता है कि मेरी बात को अन्यथा ना लिया जाए। लेकिन हमें लगता है कि ब्राह्मण क्षत्रिय छोड़ दिया जाए तो सभी लोग शूद्र हैं। बहुजन है। लेकिन आज इस बनारस में विद्या आश्रम में जो पंचायत हो रही है वो पंचायत का मतलब हमारी सभी किसी धर्म विशेष जात मजहब समुदायों से नहीं सभी समुदाय के लोग इस भारत के वासी जितने नागरिक हैं वो वो सबको जितने लोग बहुजनों की बात करते हैं किसानों की बात करते मजदूरों की बात करते हैं, कामगारों की बात करते हैं। वही हमारे बहुजन असली हैं। मैं जनपद देवरिया से आता हूं। जो राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने किसानों की समस्याएं इतनी देरिया में है जो हाईवे 727 ए देवरिया बाईपास और 727 बी सलेमपुर बलिया बाईपास वो किसानों का आंदोलन आंदोलन को लेकर के हम लोग जो समस्या थी जो ओपन दानों में किसानों की जो जमीन एक्वायर हो रही थी उसको लेकर हम लोग पूरी तरह से भारतीय किसान यूनियन और हमारे संग संगठन के साथियों ने आंदोलन किया और जो लगभग 3200 किसानों ने प्रभावित हुआ देवरिया के बाईपास वाले किसान जो मजदूर है के किसान है यहां तक कि जोगी जी की सरकार चल रही है जोगी ने कहा था स्पष्ट जो हाईवे बन रहा है उस हाईवे में किसी भी किसी किसी की मकान यदि पड़ती है तो किसी की मकान तोड़ी नहीं जाएगी। लेकिन कुछ अधिकारियों की गलती से उन्होंने कुछ उस हाईवे में कुछ किसानों की जमीन और मकान भी पड़ रही है। जमीन का मुआवजा तो मिल जाएगा लेकिन मकान जो टूट जाएगा उसको विस्थापित करने के लिए उन लोगों के पास पैसा कहां से आएगा? ये अभी समस्या बना हुआ है देवरिया में हम लोग किसानों के बीच में रहते हैं जो गैर बराबरी है जो मजदूर काम करता है जो रेट ठल्ला खमचा लगाता है आए दिन जाम के नाम पर जो पुलिस के प्रशासन के लोग हैं जो नगर पालिका टाउन एरिया है जो दो दो दिन की रोटी के लिए मोहताज है उनको को कभी ना कभी जाम के नाम पर नेताओं के आने के नाम पर त्योहारों के नाम पर हटाया जाता है। लाठियां बरसाई जाती है। वो मजबूर हो जाते हैं अपने रोजी रोटी के लिए। उन लोग का दो दिन का हमें लगता है कि चूल्हा तक नहीं जल पाता है। हम लोगों इसके ले लेकर के रूपपुर तहसील के अंतर्गत आंदोलन किया था। वहां के एक डीएम मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने हम लोग आंदोलन किया। कुछ राहत दिया उनको हार्ट लगाने के लिए। एक एक किलोमीटर दूर उन्होंने फैसला लिया जो बाजारारे हैं जो मुख्य चौराहे वहां से हमारे जो मजदूर ठेला व्यवसाई लोग हैं और 1 किलोमीटर दूर चले जाएंगे तो वहां बाजार कभी लगा नहीं है वहां और जो खरीदारी करने वाले लोग हैं जल्दी जाएंगे नहीं इसलिए हम लोगों ने उसे कहा उस आंदोलन के माध्यम से कि नहीं बाजार यही लगेगा रह गई बात कि और जाम जिससे होता है उसको आप कंट्रोल करो खेत ठेला रेरी पटरी वाले से नहीं लगता है। ये तो जो रोड से किनारे जो ऊपर का हिस्सा होता है उसमें हमेशा वो चलते रहते हैं। उससे दिक्कत नहीं होती है। आप अपने बड़े-बड़े जो वाहन जाते हैं उसे दिक्कत होती है। आप अपने फसलों को बदलिए। तब जाके एसडीएम महोदय ने उस फसलों को बदला और मजदूर जो मजदूर किसान थे वहां अपने सब्जी की दुकान छोटे-छोटे लगाए और अपने जीविका पार्जन के लिए उन्होंने काम किया। जो देवरिया जनपद में लगभग 16 ब्लॉक हैं। 16 ब्लॉकों में हमारे तीन तीन ब्लॉकों में अच्छा काम चल रहा है। जिसमें आप नरेगा मधुर कामगार यूनियन के जो साथी हैं जो काम कामगार करने वाले व्यक्ति हैं जिसके पास अभी राशन कार्ड में कुछ लोगों का 75% शहरी और 86% ग्रामीण का जो संख्या दिखा के कार्ड का निरस्तीकरण और काटा जाता है उसको उसको लेकर के हमें देवरिया में अपने जो मंच है मजदूर अधिकार मंच के माध्यम से लोगों को जोड़ने का काम किया गया है। लगभग सैकड़ों किसानों का जो नाम कट गया था किसान सम्मान निधि से किसान सम्मान निधि में एक सरकार ने फैसला दिया है। जो किसानों का किसान सम्मान निधि चार महीने पर ₹000 सरकार देती है। उसमें सरकार फैसला किया है कि जो मिलता है यदि मृत्यु हो जाती है तो वारिएस वाले आते हैं जो वसीयत में आते हैं उसको दिया नहीं जाएगा उसको लाभ नहीं दिया जाएगा यह गलत है और एक परिवार में यदि पहले था कि एक परिवार में जो किसानों की जो नाम था खतौनी में उनका प्रत्येक लोगों का मिलता था लेकिन उसमें भी छठी सरकार कर दी है कि यदि एक परिवार में एक से दो लोगों की यदि किसान सम्मान निधि मिलता है तो उसको भी बंद कर दिया है। इसलिए यह सरकार के झुनझुना दे रही है। और झुनझुना देने के बाद जो किसानों के उन्होंने कहा था कि आज दुगना कर देंगे वो दुगना करने का काम नहीं किया। एक किसान विरोधी सरकार है। हमारे बैतलपुर चीनी मिल लगभग दो 200 दिन से आंदोलन चल रहा है कलेक्टेट में और उस आंदोलन के माध्यम से हम लोग डेली बैठते हैं। जो किसानों का जो जो गन्ना का बकाया मूल है अभी तक भुगतान नहीं हुआ। लगभग 3500 करोड़ बकाया है। वो किसानों का भी भुगतान नहीं हुआ। बैतालपुर चीनी मिल देवरिया का बंद है। और देवरिया जनपद चीनी का कटोरा कहा जाता था। वो लगभग 13 13 चीनी मिले हुआ करती जब करती थी जब देवरिया कुशीनगर जनपद एक था तो चीनी का कटोरा जनपद देवरिया को कहा जाता था लेकिन अब चीनी मिले बंद है और चीनी मिले बंद होने के कारण जो किसानों का बकाया रुपया है उस बकाया का अभी तक भुगतान नहीं हो पाया जो और जो हम लोग जो जो जो काम करते हैं जनपद देवरिया में जो मजदूर हैं जो किसान है जो कामगार हैं और जितने किसानों की समस्या है उनको लेकर हम लोग काम किए हैं। बहुत अच्छा वहां काम चल रहा है और आप लोग जब उधर कभी आएंगे तो देखेंगे कि हम लोग कितना अच्छा काम किया है। मैं इसी के साथ अपनी बात को विराम देता हूं। जय हिंद! जय भारत! जय बहुजन समाज!
लक्ष्मण प्रसाद:
धन्यवाद, राम किशोर चौहान जी. आपने अपने विचारों को व्यक्त किया। अब हमारे बीच राम दुलार प्रजापति जी हैं। आप अधिवक्ता भी हैं और शोषित समाज दल के कार्यकर्ता मैं आपका आवाहन करता हूं कि आप आए और अपने विचारों को रखें। आप आंदोलनों में भी लगातार सक्रिय दिखाई देते हैं। चाहे यहां के रिंग रोड का आंदोलन हो उसमें रहे हो। अभी वैदिक सिटी बनाने की जो सरकार की योजना है उसमें आप लगातार किसानों के बीच सक्रिय रहते हैं। आप आए और अपने विचारों को रखें। राम दुलार प्रजापति जी …
राम दुलार प्रजापति: [शोषित समाज दल]
धन्यवाद। संचालक महोदय, मंच पर उपस्थित हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग जिनके माध्यम से हम लोग हमेशा सीखते रहते हैं। सामने बैठे हुए हमारे विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए विभिन्न जिलों से आए हुए विभिन्न मुद्दों पर काम करने वाले लोग यहां पर उपस्थित हुए हैं। जिनके सानिध्य में यहां पर कार्यक्रम हो रहा है। आप भी सामने हैं। मैं आप सबको सादर प्रणाम करता हूं, नमस्ते करता हूं और जैसा कि आपने परिचय दिया कि मैं एक अधिवक्ता भी हूं। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हूं क्योंकि हम लोग लगभग 15 से 20 साल से बहुजन समाज के ही मुद्दे पर काम कर रहे हैं और समय-समय पर जहां इस तरह के आंदोलन की जरूरत पड़ती है, वहां हम लोग साथ में खड़े होते हैं और कचहरी में भी अभी किसी मुद्दे पर पीछे नहीं हटते हैं। जहां सामाजिक न्याय की बात होती है वहां लड़ाई लड़ते हैं। साथियों यहां पर हम लोग बहुत कुछ सुने हैं। काफी ज्ञान अर्जन हुआ है हमारा क्योंकि हम यहां सुनने के लिए ही आए थे। लेकिन थोड़ा बहुत हम भी बोल देंगे। तो जैसा कि बहुजन समाज के मुद्दे पर यहां पर चर्चा हो रही है। वास्तव में बहुजन समाज शब्द जो है एक व्यापक शब्द है। यह छोटामोटा नहीं है। एक वर्ग है। एक समुदाय है। जो पूरे समाज का पालन करता है। इस बहुजन समाज में किसान भी है, कुम्हार भी है, गढ़िया भी है, लेदर का काम करने वाला भी है, मिट्टी का काम करने वाला भी है। मतलब वो सारे लोग वो बहुजन समाज जो सर्वजन के लिए काम करता है, सबके लिए काम कर रहा है, करता है, सबका पालन करता है, वह बहुजन समाज है। और उसके चिंता की बात है। उसके लिए चिंता की बात है। और वह बहुजन समाज कभी इस देश पर इस देश में उसकी काफी इज्जत थी। काफी सम्मान था। हजारों वर्ष पूर्व लेकिन धीरे धीरे धीरे धीरे वो बहुजन समाज गुलाम हो गया और गुलामी की जंजीरों में जकड़ता चला गया और वो शिक्षा से रोजगार से चेतना तक से वो गुलाम हो गया। उसको जो दिया गया, जो समझाया गया, वही वो समझा, वही वो किया। और उस समय एक धर्म विशेष का जो एक नियम कानून लागू हुआ था, उसके अनुसार उसको चलना पड़ता था। उसके अनुसार उसको सजाएं तय की जाती थी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद जब हम हमारे देश में भारत का संविधान लागू हुआ तब यहां के सभी लोगों को यानी बहुजन समाज को भी सबसे ज्यादा उसका लाभ मिला। उनको लगा कि अब मैं किसी दूसरी दुनिया में आ गया हूं। वो हमारे पूर्वज जो दूसरों की गुलामी करते थे, मजदूरी करते थे। उन्हें लगा कि वास्तव में अब हमारा भी बेटा पढ़ेगा। स्कूल में जाकर के पढ़ेगा। वह भी डीएम बनेगा, एसएसपी बनेगा, कलेक्टर बनेगा। अब हमारे भी दिन वापस आएंगे। वो सच में संविधान पूरा कर भी रहा है। लेकिन कुछ लोगों की नजर इस संविधान पर लग गई। उन्हीं ताकतों की नजर संविधान पर लगी हुई है जिन्होंने हजारों साल पहले इस समुदाय को गुलाम बनाया। अपने धार्मिक बेड़ियों में इसको जकड़ दिया। इसके साथ भेदभाव किया। इनका उत्पीड़न किया। इनके साथ अत्याचार किया। जानवरों से भी बदतर इनका जीवन कर दिया। कर दिया। लेकिन संविधान लागू होने के बाद कानून के हिसाब से सबको बराबरी का अधिकार दिया गया। और एक चैप्टर है चैप्टर थ्री फंडामेंटल राइट्स मौलिक अधिकार। मौलिक अधिकार सबको मिला। इसमें किसी के साथ भेदभाव नहीं किया गया। जाति के आधार पे, धर्म के आधार पे, क्षेत्र के आधार पे, रंग के आधार पे, लिंग के आधार पे, किसी के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया। ये ऐसा संविधान और दुनिया में सबसे बेहतरीन संविधान हमारे देश का। सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हमारा देश भारत। लेकिन इसको ग्रहण लग गया। आज भी हमारा बहुजन समाज इस चीज को समझ नहीं पा रहा है। कुछ लोग तो हैं सामाजिक संगठन के हैं। राजनैतिक संगठन के हैं जो इस बातों को बार-बार उठा रहे हैं। सतर्क हो जाओ, समझ जाओ। लेकिन हमारा अभी बहुजन समाज सामाजिक, राजनैतिक और संवैधानिक तरीके से पूरी तरीके से जो जागरूक होना चाहिए था वो नहीं हो पाया। नहीं हो पाया। जिसके कारण बहुजन समाज का ही काफी संख्या में लोग के ही काफी संख्या के लोग उस ताकतों के साथ मिलकर मिल गए हैं अज्ञानता में और वो आपका भविष्य खत्म करने पर तुले हुए हैं और जिस दिन वो सपना जो दिखाया जा रहा है जिसका नाम है हिंदू राष्ट्र जिस दिन वो लागू हो गया और आज आप देख लीजिए उदाहरण देख लीजिए आपके सामने है आप देख लीजिए कि जो राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा हुआ है या बैठा हुआ था रामनाथ कोविंद जी वो गए थे पुष्कर में मंदिर में दर्शन करने अंदर घुसने नहीं दिया ये है व्यवस्था इसको समझने की कोशिश करिए कितने लोगों ने चिंतन किया मुर्मू जी जो राष्ट्रपति हैं वह भी मंदिर में गई गर्भ गृह में जाने नहीं दिया गया उनकी ताकत समझ लीजिए। चाहती तो दो मिनट में एफआईआर करके उनको अंदर कर देते। लेकिन कुछ नहीं कर पाए। रामनाथ कोविंद भी कुछ नहीं कर पाए। सीजीआई साहब के साथ अभी घटना घटी है। आप लोगों को पता है चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया उनके ऊपर जूते मारे गए, फेंके गए। अभी लेटेस्ट घटना है। उनके ऊपर जूता फेंक दिया गया। क्यों? नारा लगाया गया कि जो सनातन का अपमान करेगा उसके साथ यही होगा। उन्होंने क्या सनातन का अपमान कर दिया? खजुराहो का मंदिर जो है वह पुरातात्विक संग्रह है। संग्रहालय है। पुरातत्व का है। विभाग का है। यह उसका काम है संरक्षण करना, संवर्धन करना। आपने दाखिल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में ले चले आए। एक याचिका दाखिल कर दिया। कहा कि जो तुरंत आदेश कर दीजिए कि जो है उसका जो है बढ़िया से निर्माण कर दिया जाए। ये सब कर दिया वो कर दिया जाए। उन्होंने कहा कि यह मात्र राजनैतिक लाभ लेने के लिए या इस तरह का करने के लिए आपने दाखिल किया है। यह योग्य नहीं है। बार-बार प्रेषित करने पर उन्होंने कहा कि फिर वो जो भगवान है विष्णु भगवान है वो अपना कर लेंगे। आप क्यों चिंतित है? उनको बुरा लग गया। आहत हो गए। दुखी हो गए। उस समय दुखी नहीं हुए थे। जब पुर एक और पुर सीजीआई क्या नाम था उनका? जिन जिनके ऊपर बलात्कार का केस आरोप लगा था और अपने केस में खुद जज बने और उन्होंने अपने ही पक्ष में फैसला दिया और बरी हो गए। क्या विडंबना है भाई? जी। राज्यसभा में। और वो आज इस समय राज्यसभा में है। वो इस समय राज्यसभा में है। क्या मजाक बना के रखा है संविधान का। खुलेआम डंके की चोट पे सब कुछ हो रहा है। और किसके बदौलत बदलेगा? यह बहुजन समाज के वजह से बदलेगा। मैं बता दे रहा हूं। मैं यही कह रहा हूं कि बहुजन समाज सामाजिक, राजनैतिक और संवैधानिक स्तर पर जागरूक नहीं हो पाया है। जितना होना चाहिए था। अखिलेश यादव पूर्व मुख्यमंत्री जब पद से हटते हैं तो उनके कुर्सी को गंगाजल से धोया जाता है। यह आपके चेतना को जागृत करने का एक बड़ा बढ़िया एक इलाज है। लेकिन फिर भी आप जागृत नहीं हो पाते हैं। समझ नहीं पाते और समझना भी नहीं चाहते। आप चिंतन में बैठिए अपना समय दीजिए। आपके ऊपर बहुत बड़ा भार है देश का बहुजन समाज के ऊपर जो है साथियों एनसीआरबी का डाटा है ये भारत सरकार का डाटा है और भारत सरकार के गृह मंत्रालय का भी डाटा है कि जहां हिंदू राष्ट्र का सपना दिखाया जा रहा है दिखाया जा रहा है जिस प्रदेश में हम यहां पर हैं वह प्रदेश इस समय हिंसा में हत्या और बलात्कार में नंबर एक पर है दुनिया में क्या आप चाहते हैं यही राष्ट्र या संविधान का राष्ट्र चाहते हैं? मनोविधान चाहते हैं या संविधान चाहते हैं? तय आपको करना है। असली लड़ाई मनोविधान बनाम संविधान है। सोचना ये छुपा हुआ है। एक आवरण से आपको ढक दिया गया है। हिंदू राष्ट्र हिंदू राष्ट्र का मतलब एक धर्म के लोग नहीं रहेंगे। केवल हिंदू रहेंगे तो हिंदू कौन है भैया? कौन रहेंगे? हिंदू राष्ट्र यानी आप इसको नहीं समझ पा रहे हैं। फिर से वही वर्ण व्यवस्था जो एक भाई कह के अभी गए हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आप शूद्र हैं। आपका काम ऊपर के सारे वर्णों का सेवा करना है। आपको पढ़ाई लिखाई और धन संचय और बढ़िया-बढ़िया कपड़ा पहनने का अधिकार नहीं है। नौकरी करने का अधिकार नहीं है। समझ लीजिए। नहीं पता हो तो आप सोशलॉजी के किताब पढ़ के सारी स्थिति जान लीजिए। हमने एमए सोशलॉजी से भी किया है। तो यह स्थिति जो वास्तु स्थिति है उसको समझने की जरूरत है। मैं बहुत ज्यादा नहीं बोलूंगा क्योंकि यहां पर बहुत विद्वान है बोलने वाले हैं। समय नहीं लूंगा इसलिए जरूरत है कि इन सारे मुद्दों पर हमें जागरूक होने की जरूरत है और वैचारिक क्रांति की जरूरत है। विचारधारा जब हमारी एक होगी जब हम मंथन करेंगे, चिंतन करेंगे, इस मुद्दे पर विचार करेंगे। जब हम विचारधारा के स्तर पर एक होंगे तभी हमारी लड़ाई सही दिशा में होगी। फुटकर लड़ाई से कोई मतलब होने वाला नहीं है। हमको एक साथ सामूहिक रूप से वैचारिक रूप से संघर्ष करने की जरूरत है। तभी हमारा संविधान बचा रह सकता है। वरना हम उनके चंगुल में फंस चुके हैं। समझना आपको तय करना आपको है। जय भीम जय भारत जय समाज।
लक्ष्मण प्रसाद:
बहुत-बहुत धन्यवाद राम दुलार भाई। अब आगे हमारे बीच राहुल राजभर जी हैं। आप लगातार समाज में सक्रिय रहते हैं। हम आवाहन करते हैं कि आप आए और अपने विचारों को रखें। लोक विद्या विचार और खासतौर से बहुजन समाज के ऊपर जो आप विषय है उसकी एक स्पष्ट समझ राहुल राजभर जी को है। आप वार्ता में भी लगातार रहते हैं। प्राय आते जाते भी हैं। एक बहद विचार रखने वाले राहुल राजभर.
राहुल राजभर:
सबको नमस्कार। मंच पे उपस्थित और सामने लोक विद्या ज्ञान के धरोहर को संजोग के रखे हुए तमाम सारे लोगों को जो यहां पे आए हुए हैं। बनारस में स्वागत है। अह साथियों चूंकि हम लोग की जो बहुजन स्वराज पंचायत की यहां का आयोजन किया गया है। उसमें मूल चुकी बराबर इस बात पे हम लोग एक मनन करते हैं। एक चिंतन करते हैं कि भारत किस रूप में हो और कौन इसकी जो है इसकी रूपरेखा क्या हो। जैसे अभी तमाम लोगों ने अभी पूर्व साथी ने कहा कि कैसे कोई संगठन एक संगठन उसकी विचारधारा जो चाहती है कि हिंदू राष्ट्र जैसा कोई संकल्पना ले कोई राष्ट्र बने लेकिन शायद इस बार क्योंकि एक तरफ आरएसएस ने अपनी शवी वर्षगांठ को मनाया और आप पूरी बातचीत में देखेंगे आरएसएस ने किस तरह से बहुजन की विचार के सामने पूरी तरह से सरेंडर किया है। आप शायद अगर एनालिसिस करेंगे उसका विश्लेषण करेंगे तो आपको दो दृश्य बहुत साफ तौर पर उभरते नजर आएंगे। एक बहुजन का संवाद जो एक नए सपने के भारत के साथ यहां बैठा हुआ है और उसकी एक योजना और उसकी एक एक ताना-बाना बुनने जा रहा है और मोहन भागवत जिन्होंने साफ तौर पर इस बात का उद्घोष किया कि अब हमारे पास नए भारत का कोई दृश्य नहीं है। यही जो भारत है यही हिंदू राष्ट्र है। अब इनके पास कोई एजेंडा नहीं है। कोई दर्शन नहीं है। कोई सपना नहीं है। यानी कि अपने उूस पे हैं। राजनीतिक और सामाजिक दर्शन के उूस पे हैं। और आप एक नए दर्शन और नई सामाजिक चेतना नई बनावट की तलाश में हैं। और उस तला उस तलाश में आपने बहुजन स्वराज संवाद का यहां आधार रखा हुआ है। और पूरी बातचीत में आप देखेंगे। आज दृश्य से सत्ता में जो भी दल है, जो भी विचार है उन्होंने इस बात को स्वीकारा है कि बहुजन का विचार, बहुजन का आइकॉन उस कहते नहीं है लेकिन आप ही के विचार, आप ही के आइकॉन, आप ही के जो पथ प्रदर्शक है उन्हीं को लेकर राजनीति करने की उनकी हैसियत है। मैं उनकी हैसियत की बात कर रहा हूं। तो आप इस देश की स्वाभाविक राजनीतिक बनावट स्वाभाविक जो विमर्श है उसके आप हिस्सा हैं और जो आज सत्ता में बैठे हुए हैं जो आज इस बात का दंब भर रहे हैं कि हम 100 साल तक जीवित रहे हुए संगठन हैं लेकिन वो हर पग पग पे सरेंडर करके आज यहां तक बैठे हुए हैं और आप अपने विचारों पे आज तक कायम हैं तो चूंकि बहुजन के दर्शन से हम नए भारत की संकल्पना करेंगे और नए भारत की संकल्पना में क्योंकि बहुजन की बात आती है तो हमेशा हम संख्या की बात करते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी लेकिन बहुजन की विचार को अगर हम संख्या पे केंद्रित या नस्ल या जाति या फिर बाहरी और भीतरी के जो द्वंद है उस पर अगर आधारित कोई विमर्श बनाएंगे तो फिर हम एक नस्लीय आधार पर कोई राजनीतिक विमर्श खड़ा करने की चाहत रखेंगे जिसमें ब्राह्मण वर्सेस शूद्र या फिर बहुजन वर्सेस और कोई भी हो सकता है। बहुजन की विचार को और व्यापक दृष्टि से इस रूप में लेने की जरूरत है कि बहुजन कोई संख्या का सवाल नहीं है। आज इस देश में तमाम सारे जो समान वर्ग के जो छोटी समूह की जाति के लोग हैं उनकी तो बात हम कर लेते हैं। लेकिन इसी बहुजन समाज में जो घुमंतु जाति है जो विमुक्त जाति के लोग हैं जिनकी संख्या किसी शहर में महज हजार की है तो क्या उनकी राजनीतिक भागीदारी उनकी सांस्कृतिक भागीदारी उनका सवाल हमसे अछूता रहेगा तो बहुजन की बात हमेशा संख्या से आगे की बात है। ये उस ताना-बाना को बुनने की बात है जिसमें इस देश की जन सामान्य की जो इस देश की आवाम है जो श्रम से अर्जित कर रही है जो ज्ञान से अर्जन कर रहा है। जो इस देश का जो मजदूर है, कारीगर है, किसान है, किसान की फिर भी हम बात कर लेते हैं। लेकिन कारीगर आज भी हमारे नजर से अछूता है। हमारे दृष्टि में हमारे राजनीतिक पूरे पूरे पूरे परिदृश्य से वो गायब है। तो बहुजन जो संवाद है जो बहुजन का स्वराज है चाहे वह छोटी संख्या में हो चाहे बड़ी संख्या में हो चाहे ऊंची जाति का हो चाहे सामान्य जाति का हो चाहे आदिवासी हो चाहे पिछड़ा वर्ग का हो हर किसी के लिए एक स्पेस बनाता है और इस स्पेस इस रूप में बनाता है कि हम उस तरह के भारत को बनाने की बात सोचते हैं या सपना देखते हैं जिसमें गैर बराबरी ना हो जिसमें सबके लिए न्याय हो महिला हो दलित हो, आदिवासी हो, विमुक्त घुमंतु जाति के लोग हो, पिछड़े समाज के लोग हो, अति पिछड़े समाज के लोग हो, इन सब की बात करने वाला, इन सब की आवाज उठाने वाला, इन सबको न्याय देने वाला, इन सबके प्रति समदृष्टि रखने वाला भारत बने, राष्ट्र बने। क्योंकि हमेशा जब भी आप राजनीतिक राजनीतिक किसी भी विचार और दर्शन के पीछे जब राजनीतिक एक दृष्टि रखते हैं या सोचते हैं कि कुछ उस पे जन भागीदारी की राजनीतिक और सत्ता की भागीदारी की राजनीति खड़ी हो तो हम हमारे दिमाग में हमेशा एक बात रहता है कि दो वर्ग हमेशा दुनिया में रहे हैं। जिसमें यूरोप ने अपने यहां उसको स्पष्ट कर लिया कि हमारे यहां दो वर्ग हैं। उन्होंने बोला कि एक हैप्स और एक हैप्स नॉट जिसके पास है जिसके पास नहीं है जिसके पास है उन्होंने बोला कि वो पूंजीपति लोग हैं। जिसके पास नहीं है वो सर्वहारा है। उन्होंने ये तय किया। लेकिन भारत की भूमि पे ये तय नहीं हो पाया कि कौन हैप्स है और कौन हैप्स नॉट है। हमने उसको द्रविण और शूद्र की तौर पर देखा। हमने उसको आज और तमाम तरह के नसली और जातीय जो बनावट है रंग है उससे हमने उसको देखने की चाहत रखी लेकिन वास्तव में हैप्स और हैप्स नॉट की जो संकल्पना है जो जो पूरी दुनिया इस बात को मानती है कि कुछ लोग हैं जिनके पास सब कुछ है और एक बड़ी आबादी जिसके पास कुछ भी नहीं है भी तो बहुत थोड़ा से जिंदा रहने के लिए बस है तो उस जो है्स नॉट जिसके पास नहीं है क्या वो बहुजन समाज होगा वो बहुजन समाज किसी जाति से परे होगा वो वो ये बहुजन समाज जिसके पास कुछ भी नहीं है वो अब तय करेगा कि इस राष्ट्र का इस नेशन का हालांकि जो आज सत्ता में बैठे हुए लोग हैं उसको तो नेशन मानते भी नहीं है। वो कहते हैं हम राष्ट्र हैं। नेशन नहीं है। नेशन स्टेट नहीं है। हम राष्ट्र हैं। लेकिन राष्ट्र की उपज कहां से आती है? वो इस बात की उनके पूरे राजनीतिक दर्शन में इसी बात को खारिज करना है कि नेशन नहीं है। ये विविधता नहीं है। ये तमाम जो स्वर है ये जो तमाम धुन है ये जो तमाम समुदाय है ये जो तमाम जो है ज्ञान के ज्ञान को धारण करने वाला समूह है पहले ही इस बात को खारिज करते हैं कि नहीं है। नहीं है कि बाद राष्ट्र की बात करते हैं। लेकिन बहुजन बहुजन उस तरह के नेशन स्टेट की बात करेगा या सोचेगा इसमें न्याय भागीदारी समता का समाज होगा। इसमें अर्जन करने वाले की प्रतिष्ठा होगी और क्योंकि हम लोग इस बात पर भी बराबर ये बहुजन शब्द की स्वीकृति आज अचानक नहीं हुई है। लंबे जो विचार की एक एक दर्शन है भारत में लगातार चाहे वो जो है अर्जक संघ रामस्वरूप वर्मा जी ने एक थोड़ी सी न्यूज़ डाली थी और कांशीराम साहब ने उसको आगे बढ़ाया और तमाम सारे इसके पहले भी लोग रहे हैं जो इस बात की चाहत रखे हैं कि इस देश का जो बहुसंख्यक जो बड़ी आबादी के लोग हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है उनका उनके सपनों का भारत कैसे बने तो अब हम लोग जिस जो है बहुजन समाज या बहुजन समाज के राष्ट्र की बात कर रहे हैं क्योंकि उसमें संख्या का एक बड़ा सवाल है। जैसे जब भी हम कोई संकल्पना करते हैं तो उसके पीछे का एक जन समूह क्या बनेगा? अगर बहुजन के पीछे का जन समूह जिस रूप में हम लोग देख रहे हैं या जिस रूप में हमारे पहले के लोगों ने काम किया है उस रूप में हम उभार के कोई कोई ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बना पाते हैं। कोई ऐसा सामाजिक व्यवस्था बना पाते हैं। कोई ऐसा सांस्कृतिक व्यवस्था बना पाते हैं। क्योंकि देखिए हमेशा ये लड़ाई रही है। ये कोई आज की लड़ाई नहीं है। ये पूरी दुनिया में लड़ रही लड़ाई रही है। अमेरिका में ही जब ये बात तय हो रहा था कि किसके पास फुल पॉलिटिकल अथॉरिटी होगी या किसके पास सारे राजनीतिक अधिकार होंगे तो अमेरिका ने तय किया कि हमारे यहां तो जो गोरे हैं और गोरों में भी जो पुरुष हैं पुरुषों में भी जो संपत्ति वाले हैं उनको पहले सारे राजनीतिक अधिकार दिए जाने की जरूरत है। फिर उन्होंने अपने राज्य उन्होंने अपने जिस तरह के राष्ट्र की कल्पना की उसमें यही लोगों को सारे तरह के राजनीतिक अधिकार सुनिश्चित हो ऐसा उन्होंने बात तय किया। लेकिन बाद में जब वहां के तमाम आंदोलनों से बात आगे बढ़ी तो उन्होंने तय किया कि ठीक है हम उनको तो देंगे ही जो वाइट है जो मेन है जो प्रॉपर्टी वाले हैं उनको तो देंगे ही साथ ही हम जो है अफ्रीकन अमेरिकनंस को भी कुछ राइट्स दे देंगे उनको भी फुल राइट पॉलिटिकल राइट्स देंगे फिर आंदोलन और आगे बढ़ा तो बात यहां तक पहुंची कि हम अब जो है जो यहां के इंडजीनस अमेरिकन है उनको भी अधिकार देंगे जो महिलाएं हैं उनको भी अधिकार देंगे तो अधिकार पाने की लड़ाई ये हमेशा पूरी दुनिया में रही है। भारत में भी है और हम अब इसको किसी जातीय खांचे में बांटने के बजाय हम सबको हम तो आज सबसे बाधा सबसे ज्यादा इस देश में अगर चिंता का सवाल है तो वो है समान जाति के युवा वर्गों की जो मानसिक दशा है वो सबसे बड़ी चिंता का सवाल है। आज जिस तरह से वो विमुख होके आज गांधी जी की जयंती पर आप देखेंगे कि सबसे ज्यादा जिसने गोडसे जिंदाबाद का नारा लगाया वो वर्ग जो है उचित वर्ग से आने वाले लोग हैं वो नौजवान लोग हैं। वो विचलित है, व्याकुल है। वो चाहते हैं जरूर कि कोई राष्ट्र बने जिसमें बराबरी का समाज हो। लेकिन फिर भी उन्हें इस इस बीमारी से इस इस रोग से पीड़ित किया गया है कि आप अपने को श्रेष्ठ मानिए क्योंकि भारत या दुनिया में हमेशा ये माना जाता है कि हम पहले सबसे ज्यादा मूल हैं। हम ही सबसे ज्यादा केंद्रित हैं और हम ही को सबसे ज्यादा राइट लेने का अधिकार है। तो जबकि ऐसा होता नहीं है। तमाम सारे आप आज हम लोग बहुत सारे लोगों को मानते हैं कि नहीं कुछ लोग बहुत पुराने हैं। कुछ लोग बाद में आए हैं। कुछ लोग और बाद में आए हैं। कुछ लोग और बाद में आए हैं। लेकिन इन आने जाने के सिलसिला को हम हमेशा दुश्मनी की निगाह से देखते हैं। जबकि ये बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया होता है। लोग आते हैं जाते हैं। इसी शहर बनारस में बहुत सारे लोग आए बस रहे हैं। हम ही लोग बहुत चिंतित पहले हो जाते हैं कि नहीं लोग आ तो रहे हैं। जमीन खरीद रहे हैं और यहां के लोगों को भूमिहीन कर रहे हैं। ये चिंता का सवाल जरूर है। लेकिन एक का जो जो राजनीतिक व्यक्ति था जो राजनीतिक कार्यकर्ता था कभी गोडसे जिंदाबाद का नारा नहीं लगाता था क्योंकि वो वो इस बात की निंदा जरूर करता था कि नहीं गांधी का ये पक्ष इसको मैं स्वीकार नहीं करता हूं लेकिन आज जिस तरह के जिस तरह की राजनीतिक व्यवस्था में भारतीय जनता पार्टी, आरएसएस और तमाम सारे संगठनों ने मिलकर इस देश को पहुंचाया है। इसमें एक बहुत बड़ा रचनात्मक समाज का युवा इस बात की ओर जा रहा है कि इस देश को हिंसा, घृणा और नफरत की राजनीति का जो जो आइकॉन है उसको हीरो बनाने पे तुला हुआ है। तो इन इस इन सब जो आज की जो पहल कदमी हुई है इसके बाद इस बहुजन स्वराज की जो जो संकल्पना है अब इसको और किस और किस रूप में और व्यावहारिक तौर पे तमाम जातियों की भागीदारी के साथ तमाम समूहों की भागीदारी के साथ इसको और आगे बढ़ाया जाए इस पे भी हमको यहां पे चर्चा करके ही जाना होगा कि ये कोई आखिरी कड़ी या कोई आखरी कोई आख आखरी जो है हमारा कदम ना रह जाए। ये पहले कदम की तरह हम इसको देखेंगे और इस पे जरूर कोई जो है विचार के स्तर पे कार्यक्रम के स्तर पे संगठन के स्तर पे इसको कुछ नए रूप में इसको आगे ले जाएंगे क्योंकि निश्चित तौर पे देखिए आज जो हालत हुआ है देश में आज जो हालत हुआ है इससे देश का बड़ी आबादी ऐसे जेएनयू में अभी कुछ दिन पहले जो कुछ लोगों ने आरएसएस ने अपना कार्यक्रम किया और बहुत लोगों में निराशा हुई मैं बिहार बिहार के बहुत सारे जिलों में गया। यूपी के बहुत सारे जिलों में जाता हूं। इतना बड़ी चिंता का सवाल ही नहीं है उनका इस तरह से एकिस्टेंस में होना। वो आप ही के ताकत और आप ही के आइकॉन आप ही के विचार की बात करते हैं तब आप उनको कुर्सी देते हैं बैठने के लिए। नहीं तो उनके पास तो अपने महापुरुष अपने इतिहास अपने दर्शन को लेके अगर बैठ आप उनको बैठेंगे कुर्सी तक नहीं देंगे। तो इस देश का बहुसंख्यक जो समाज है जो बहुजन समाज है आज भी सांप्रदायिक नहीं हुआ है। आज भी वो आरएसएस की राजनीति को खारिज करता है। आज भी वो इस रूप में नहीं जाना चाहता है कि हमारे हमारे देश में किसी एक तबके का राज हो। वो चाहता है कि सबके न्याय सबके भागीदारी वाला समाज बने। तो हम सबको मिलके इस पहले कदम को और लंबी ऊंचाई तक ले जाना है और व्यापक बनाना है। जय हिंद जय भारत जय बहुजन समाज।
लक्ष्मण प्रसाद:
बहुत-बहुत धन्यवाद। एक सकारात्मक विचार बहुजन समाज पूरे बहुजन समाज के लिए पूरे बहुजन समाज के चिंतन के लिए आपने दिया। आगे राजीव यादव आप किसान आंदोलन के नेता हैं। रिहाई मंच के अध्यक्ष हैं। आपसे निवेदन है कि कृपया आए और अपने विचारों को व्यक्त करें। आप लगातार सक्रिय रहते हैं। आजमगढ़ में जो खरिया बाग में किसानों का आंदोलन है। जहां पर सरकार ने हवाई अड्डा बनाने के लिए किसानों की जमीन को छीनने का अभियान चलाया और उसके लिए लगातार आप लोग लगातार लगे रहे। हम लोगों की भी भागीदारी उसमें होती रही. तो राजीव यादव जी आप आए और अपने विचारों को व्यक्त करें…
राजीव यादव: [किसान आन्दोलन, खरिया बाग़, आजमगढ़; अध्यक्ष, रिहाई मंच]
शुक्रिया आज यहां पर हम लोग विद्या आश्रम में बहुजन स्वराज पंचायत जो कार्यक्रम हो रहा है इसमें बहुत सारे लोग अलग-अलग जगहों से आए हैं और बातचीत हो रही है। सबसे पहले तो मुझे जब राम जनम जी ने इस बात को कहा कि बहुजन स्वराज पंचायत का आयोजन यहां पर किया जा रहा है। इसके पहले भी जून में एक बार चीता जी और सुनील जी से बात मुलाकात करने की बात हुई थी। एक आर्टिकल भी एक बार रामचंद्र जी ने कहा था। तो तमाम वक्त में मैं वक्त निकाल करके ना लिख पाया ना मिल पाया लेकिन मुझे लग रहा है कि आज जैसे मेरे पूर्व वक्ता जो साथी बोल रहे थे और मैं खुद भी अभी जैसे रवि भाई से मैं बात कर रहा था कि बहुजन का जो पूरा नरेटिव है जो विचार है उसका जो सामाजिक संदर्भों में देखा जाए, राजनीतिक संदर्भों में देखा जाए या लोक संदर्भों में देखा जाए यहां ऐसे बहुत सारे लोग बात कर रहे हैं तो उसमें कई बार मैं खुद को भी अपने बहुत कंफ्यूजन की स्थिति में पाता हूं जो है कि क्योंकि जो आपका जो अगर लोग के हिसाब से सोचेंगे तो वो बहुजन का जो कांसेप्ट है जो बातचीत है वो एक उसके डायमेंशन है। चाहे वो अगर आप महात्मा बुद्ध से अगर उसको रिलेट करके देखते हैं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय मतलब सबसे बड़ी जो आबादी है उसके सुख के उसके कल्याण की बात करते हैं वही अगर अगर हम भारतीय राजनीतिक संदर्भ में इसको देखें जो है और इस पर अभी पूर्व वक्ता साथी ने भी बोला मन कांशीराम जी को कोट किया तो माने राजनीति में क्या हो रहा है एक एक अलग बात होती है और जमीन पे इंप्लीमेंटेशन क्या हो रहा है वो एक अलग बात होती है। जैसे एक मैं अलग चीज बात कहूं कि जैसे कि असदुद्दीन ओवैसी साहब की राजनीतिक जो उनके बारे में जब बात होती है तो उसे एक बड़ा समाज जो है बहुत नाफाकी रखता है कि असदुद्दीन ओवैसी की जो बातचीत है जो उनकी राजनीति है। लेकिन अगर असदुन ओवैसी की अगर आप उनके किसी भी स्पीच को सुन लीजिए उनको इसी स्पीच को बात कर लीजिए तो वो बहुत ही जो संवैधानिक दृष्टिकोण से जो क्स्टिट्यूशन वैल्यूस के अधिकार से बोलते हैं। जबकि अगर राजनीतिक दृष्टिकोण में जाएंगे उनकी पार्टी में जाएंगे तो उसके बहुत सारे डायमेंशन अलग-अलग होते हैं। वहीं पर जब हम बहुजन की पॉपुलर टर्म में जब हम इस दौर में बात करते हैं तो बहुजन समाज पार्टी जो उसने खास तौर पर बहुजन पूरा कांसेप्ट जो है उन्होंने ला करके सबसे पॉपुलर टर्म उत्तर भारत में खड़ा किया तो उसमें कहीं ना कहीं वो बात में उत्तर प्रदेश की जो राजनीति में इंप्लीमेंटेशन होता है उस कुछ जातियों के वर्चस्व की बात होती है। कुछ जातियों के गजोड़ की बात होती है और कुछ जातियों के गजोड़ से एक सत्ता प्राप्ति की बात होती है। तो क्या यह बहुजन बुद्ध का बहुजन है? या जो अभी हम बात कर रहे थे जो लोक में बहुजन जो हमारा श्रमिक समाज है चाहे वो कबीर से बात कर सकते हैं गुरु गोरखनाथ से बात कर सकते हैं तो क्या वो बहुजन जो हमारा श्रमिक समाज है जिसके बारे में बात होती रहे लगातार विद्या ऐसी तमाम बहसों को संचालित करने के लिए राजनीतिक सामाजिक दिशा देने में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा तो क्या हम उस पर बात कर सकते हैं तो मुझे लगता है कि इस दौर में खासतौर पर मुझे लगता है एक चीज पे तो मुझे लगता है कि बात को गंभीरता से करनी चाहिए अगर हम राजनीतिक दृष्टिकोण से बात करें और राजनीतिक दृष्टिकोण से जब हम बात करते हैं तो कहीं ना कहीं इस बात को जो राजनीति में उत्तर प्रदेश की राजनीति में खास तौर पर देखा जाए क्योंकि उत्तर प्रदेश में लोग बैठे हैं तो कहीं ना कहीं जो बहुजन के नाम पर जातियों के वर्चस्व की लड़ाई रही और उत्तर प्रदेश में तो देखा जाए तो जो लड़ाई जो है वो दो जो है जो ओबीसी और एससी की एक जाति है उस दो जातियों के बीच के वर्चस्व की लड़ाई रही और अगर मैं जहां तक देखूं अभी उस बहुजन नरेटिव में उत्तर प्रदेश में एक नरेटिव और आ गया पीडीए माने कि बहुजन तो मान लीजिए कि महात्मा बुद्ध से आप उसको जोड़ सकते हैं। उनकी विचारधारा से जोड़ सकते हैं। और नो डाउट कांशीराम से इत्तेफाक रख सकते हैं। नहीं इत्तेफाक रख सकते हैं। ये आपकी मर्जी हो सकती है। लेकिन मान्यवर कांशीराम ने उत्तर भारत में जो आइकन उन्होंने दिए जो उन्होंने राजनीति की दिशा दिया। आज उत्तर भारत में अगर फुले पे बात हो रही है। ज्योतिबा फुले पे बात हो रही है। माता सावित्रीबाई फुले पे बात हो रही है। साहूजी महाराज पे अगर बात हो रही है। अगर बात हो रही है रामस्वरूप वर्मा पर। अब बात हो रही है जगदेव बाबू कुशवाहा पर। तमाम जो इस तरह के आइकॉन थे उनपे बात हो रही है। तो उसमें मान्यवर कांशीराम जी का एक बड़ा योगदान था। लेकिन मुझे लगता है कि उस योगदान में लगातार शायद उनकी कोशिश नहीं रही हो लेकिन जो उनके मानने वाले जो उनकी विचारधारा को इंप्लीमेंट करने वाले लोग थे वो कहीं ना कहीं अपनी जो तमाम चीजें थी उसमें कहीं असफल होते हुए दिखे। मेरी बातें बहुत बिखरी बिखरी हुई होंगी क्योंकि मैं राम जनम जी से जब बात हो रही थी तो मैं कल के लिए मैं सोच रहा था। अभी सोच ही रहा था कि कुछ क्या दिमाग बनाऊंगा और सोच रहा था कि सुनूंगा लेकिन क्योंकि उन्होंने कहा कि बात रखिए तो मैं रख देता हूं बात। जैसे मैं कह रहा हूं कि रामस्वरूप वर्मा जी कभी क्यों यही बात हुई? कि रामस्वरूप वर्मा जी ने उत्तर प्रदेश के वो वो वित्त मंत्री थे। उन्होंने लाभ का बजट दिया। रामस्वरूप वर्मा जी की किसान नेता के रूप में उनकी जो किसानों के लिए जो मजदूरों के लिए जो उनकी सोच थी उस पर नहीं बात हुई। नो डाउट अर्जक संघ जो उन्होंने स्थापित किया लोहिया जी से उनके कंट्राडिक्शन थे और धर्म को लेकर उनकी जो क्लिटी थी उसका हम सम्मान करते हैं। हम कभी शाहूजी महाराज पर जब हम बात करते हैं जो शाहूजी महाराज के जो सामाजिक न्याय के जो पहलू है उन पर बात करते हैं तो शाहूजी महाराज ने भारत में पहली बार गए ब्राह्मणों को रिजर्वेशन दिया। इस बात पर बात करते हैं और और इस पर भी अभी बहुत लेटेस्ट में बात शुरू होने लगी है और शाहूजी महाराज का ये डेवा जन्म शताब्दी वर्ष भी चल रहा है। लेकिन शाहूजी महाराज ने इस देश में जो अस्पृश्यता के लिए काम किया उन्होंने उस दौर में जो इस तरह की जातियां थी धर्म थे उनके बच्चों के पढ़ने के लिए उन्होंने हॉस्टल खोले। शाहूजी महाराज ने पहली बार भारत में बिना ब्याज के ऋण दिया। शाहू जी महाराज ने उन्होंने जो अंतरजाती विवाह को बढ़ावा देने की बात कही कहीं ना कहीं यह जो सामाजिक संदर्भ है इसमें हम अपने जातीय आकांक्षाएं या जातीय दम को हम कहीं ना कहीं एड्रेस करने के लिए और हमारी कोशिश रहती है कि हमारी जो जातीय एकता है और मैं इसके माफी के साथ कहता हूं ये जो पीडीए है ये पीडीए उसको क्या कहते हैं जो भी इसका नाम कहे ये पीडीए बेसिकली जी वो जातीय गठजोड़ की बात कर रहा है। पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक वो कभी उसको पांडे हो जाता है। कभी आरा में आधी आबादी हो जाता है। कभी कुछ हो जाता है। मतलब कि नो डाउट माने क्राइसिस है। माने इस देश में इस दौर में क्राइसिस है कि भाजपा की जो फासीवादी जो सांप्रदायिक विचारधारा है उसको हमको मात देना है और उसको सत्ता से हमको बाहर करना है। उसको बेदखल करना है। अब उसमें क्या होता है कि जो भी एक मजबूत होता है उसके साथ हम जाकर के खड़े हो जाते हैं। मजबूरन खड़े हो जाए। अपेक्षा के साथ खड़े हो जाए। लेकिन अगर हम खड़े हो रहे हैं तो इस बात पर भी सोचना पड़ेगा कि क्या उत्तर प्रदेश में जहां पर हम बैठकर के बात कर रहे हैं आज बहुजन स्वराज पंचायत में बात कर रहे हैं तो क्या उत्तर प्रदेश में जो सामाजिक न्याय की जो दो धाराएं थी एक समाजवादी पार्टी और दो बहुजन समाज पार्टी आखिर में ये धाराओं ने क्या सामाजिक न्याय के लिए क्या बहुजन राजनीति के लिए इन्होंने क्या किया या क्या यह चेतना का कभी विस्तार कर पाने में ये इस बात पर सफल रहे या सक्षम रहे कहीं ना कहीं मुझे लगता है कि जब हमारे तमाम साथी लोग बात करते हैं तो कहीं ना कहीं वो जातीय वर्चस्व की ही बात करते हैं। अगर हम उस जाती वर्चस्व को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के से जोड़ें तो वो तो कहते हैं कि जातियों के खात्मे की बात करते हैं। लेकिन यहां पर हम जाति वर्चस्व किसी तरह से हम अलायंस कर ले किसी तरह से गठजोड़ कर ले हम जाति वर्चस्व को फिर से स्थापित कर ले तो क्या ये सामाजिक न्याय हो पाएगा शायद मेरी मैं दो तीन मिनट का मुझे और वक्त दीजिए ये सामाजिक न्याय हो पाएगा या फिर अगर मैं हूं कि सामाजिक न्याय भारतीय संदर्भ में बात करिए और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में बात करिए अगर सिर्फ सिर्फ और सिर्फ गूगल कर लीजिए। तो सामाजिक न्याय जो उसका अंतरराष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस है वो 20 फरवरी है और भारत में जो सामाजिक न्याय दिवस कोई था ही नहीं और लेकिन इस बात को लेकर कोरोना काल में बहुत सारे साथियों से बीच हम लोग बातचीत बात करते हुए 26 जुलाई जिस दिन भारत में शाहूजी महाराज ने रिजर्वेशन दिया था उस तारीख को सामाजिक न्याय दिवस के रूप में पॉपुलर टर्म में आजकल मनाया जा रहा है। तो मुझे लगता है कि अभी जो हम लोग जो सामाजिक न्याय या बहुजन राजनीति या जो तमाम बातचीत चल रही है और उसमें चाहे वो ज्यादातर जनगणना का सवाल हो हम लोग एक क्राइसिस मैनेजमेंट इन इन शब्दों और इन विचारों के साथ कर रहे हैं। कहीं ना कहीं शब्द इसकी जो व्यापक जो राजनीति है जो इसकी व्यापक विचारधारा है उसमें ना जाकर के हम ये जो कर रहे हैं उसका खामियाजा ये हो रहा है कि मैं लास्ट में अपनी बात समाप्त करते हुए बात कहूंगा कि आजमगढ़ में मैं छह सात केसेस ऐसे हुए हैं और मैं जब मार्च में और अप्रैल में मैं बहुत काफी तनाव में रहा। क्यों? क्योंकि जब हम जाते हैं और मौजूदा राजनीति मेंकि जो नरेटिव है उसमें यह हो गया कि दलितों का अल्पसंख्यकों का पिछड़ों का उत्पीड़न हो रहा है और इस उत्पीड़न के सवाल को एड्रेस करना है और स्थिति ये है कि हम जब जाते हैं हम तीन चार घटनाओं का जिक्र करते हुए अपनी बात समाप्त करेंगे क्योंकि मुझे लगता है कि वो सब बहुजन समाज की राजनीति की बात में होगा। अभी तरवा एक आजमगढ़ में जगह है और वहां पर एक दलित युवक की जो है कस्टोडियल किलिंग हो गई और उस किलिंग के बाद पूरे प्रदेश में एक माहौल बना कि इस लड़के की जो हत्या है वो योगी सरकार में हुई, योगी की पुलिस में हुई। तमाम चीजें बात हुई। लेकिन उस हत्या के पीछे के कारणों में भी जाना चाहिए। उस लड़के का जो हत्या का कारण था उसमें उसका एक लड़की के साथ अपने ही गांव की लड़की के साथ अपने ही जात की लड़की के साथ प्रेम था और वो लड़की एक टीचर की लड़की थी और उस टीचर की टीचर ने पुलिस को कहा एक बार पुलिस ने उठाया उसको पैसा ले दे के मारपीट के छोड़ दिया और दूसरी बार फिर उठाया और उसमें पीटने में उसकी डेथ हो गई। लेकिन क्या किसी भी मैं अपनी भी बात कर रहा हूं। क्या किसी भी पिटिकल या सामाजिक पार्टी के किसी भी बयान में यह बात आई कि इन एक ही जात के होने के बावजूद इसका एक्सेप्टेंस नहीं था। अभी आपके बगल में ही लालगंज में एक घटना हुई। वहां पर एक ठाकुर जात के व्यक्ति ने अपनी 15 साल की बेटी और 21 साल के उसके दोस्त को एक रेस्टोरेंट में गोली मारी और लड़का जो है वो बच्चा अभी किसी हॉस्पिटल में वाराणसी में है और लड़की मर गई। मैं बात ये बात कर रहा था तो मेरे एक दोस्त ने कहा कि तुम एक कयामत से कयामत एक फिल्म है जो है आमिर खान की पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा। उस फिल्म में भी एक ही जाति के बीच की यह बात है। इसके अलावा आजमगढ़ में ही एक पिछले दिनों एक चर्चा में रहा कि एक दलित युवक को चार पांच लोग पीट रहे हैं और उसकी उसमें मौत हो जाती है। उस दलित युवक का एक यादव लड़की के साथ प्रेम था और यादव लोगों ने उसको पीटा और दलित युवक की उसमें मौत हो गई और उसमें भी एक ब्राह्मण को एक्यूट बना दिया गया कि ना ये जो यादव लोग हैं ये तो कैसे भड़क सकते हैं ये लोग तो गऊ होते हैं इसको कोई नहीं भड़काया होगा इसीलिए इन्होंने मार दिया मैं खत्म कर रहा हूं इसके बाद जो दलित समाज है जिसकी बात हम कह रहे हैं कि उसके बहुत उत्पीड़न हो रहा है। सदियों से उत्पीड़न हो रहा है। हमारे कप्तानगंज में कादीपुर गांव में उस दलित समाज के लोगों ने एक राजभर समाज के लड़के की पीट करके हत्या कर दी। क्योंकि वो राजभर समाज का लड़का दलित लड़की से बात कर रहा था। मैं कह रहा हूं कि जो बात है इस देश में ऐसी मैं माने कि ये बातें सिर्फ वेस्ट यूपी में आती थी। हरियाणा पंजाब में आती थी। लेकिन जो राजनीति है जो हिंसा है वो किस कदर बढ़ रही है और उसमें जो लैगिंग समानता का सवाल है जो उसके उसके पे भी बात नहीं हो पा रही है। तो मुझे लगता है कि ये व्यापक दृष्टिकोण क्योंकि मुझे लगता है मैं यहां पर कुछ बोलने नहीं आया हूं। मैं भाई से पहले भी कहा था कि मैं यहां पर एक सोचने आया हूं। अध्ययन करने आया हूं कि कुछ हम ऐसा इस पंचायत से कुछ ऐसे विचार ऐसी सोच निकाल पाए कि जो आने वाले समय में जो है क्योंकि वो रास्ता निकाले क्योंकि मुझे आज भी लगता है साफ तौर पर कि फांसीवाद का दुनिया में जहां पर भी आया है उसको किसी पार्टी ने उसको ध्वस्त नहीं किया है। उसको खत्म नहीं किया है। जब भी उसको किया है तो जनता ने किया है और बहुजन स्वराज पंचायत से ऐसे विचार हमें मिलेंगे। इसी आशा के साथ, इसी विश्वास के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं। इंकलाब जिंदाबाद।
लक्ष्मण प्रसाद:
बहुत-बहुत धन्यवाद राजीव यादव जी। अब हम अपने अध्यक्ष मंडल की ओर चलते हैं। विजय जाविया जी आप नागपुर से हैं। किसान आंदोलन के नेता शेतकरी संगठना के पूर्व अध्यक्ष और आंतरराज्य किसान आंदोलन समन्वय समिति के पूर्व अध्यक्ष आपको मैं आमंत्रित करता हूं। आप आए और अपने विचारों को रखें। विजय जावंधिया जी …
विजय जावंधिया: [शेतकरी संघटना]
अध्यक्ष महोदय, मंच पर सभी सम्माननीय साथी, उपस्थित भाइयों और बहनों और युवा मित्रों, सबने बहुत अच्छी बातें कही है और बहुजनों की ताकत होनी चाहिए। बहुजनों का समाज होना चाहिए। बहुजनों का स्वराज्य होना चाहिए। यह हम सब लोगों की इच्छा है। पर बहुजन यह बहुजन ही इकट्ठा है क्या? इस तरह का सवाल भी पूछा जाना चाहिए। क्योंकि यह व्यवस्था ने बहुजनों को ही आपस में लड़ा के रख दिया है। मेरा परिचय दिया। मैं बहुत साफ तौर से कहता हूं कि मैं एक जमीन मालक किसान हूं। एक जमींदार दादा का मैं पोता हूं। और मैं यह काम क्यों करने लगा? तो जब 1970 में मैं शहर से गांव गया और खेती की तो खेत में काम करने वाली हमारी मां बहन की मजदूरी 1970 में ₹1 रोज थी। और पुरुष की ₹5 तीन थी और इतनी कम मजदूरी देकर भी मेरे 100 एकड़ जमीन में से कुछ बचा नहीं सूखी खेती थी बारिश के भरोस पे होने वाली खेती ज्वार तवर और कपास ये हमारी मुख्य फसलें थी तो मैं अपने आप को सोचने लगा क्योंकि इंदिरा जी कहती थी कि गरीबी हटाओ गरीबी हटाओ तो मैंने मजदूरों की मजदूरी नहीं बढ़ेगी तो गरीबी हटेगी कैसे? और मैं बड़ा किसान हूं। मैं नहीं देता मजदूरी ज्यादा पर गांव का दूसरा किसान भी तो ज्यादा मजदूरी नहीं दे पा रहा है। तो फिर ये गांव में इस गरीबी का जिम्मेदार कौन है? मुझे जवाब मिला कि इस ये गरीबी गांव में जो है इसके लिए गांव जिम्मेदार नहीं है। यह व्यवस्था जिम्मेदार है। और यह व्यवस्था जमीन मालक किसान को कहती है कि मजदूरों से ज्यादा से ज्यादा काम करवाओ। कम से कम मजदूरी दे और सस्ते से सस्ता अनाज जीवनावश्यक वस्तु शहरों में दे। तुम भी मत मरो और मजदूरों को भी मरने मत दो। मैंने सोचा कि ये नहीं करना चाहिए अपन। अपन इस व्यवस्था के दलाल नहीं बनना चाहिए। और इसलिए मैं इस क्षेत्र में काम करने लगा और आज भी बड़ी नम्रता से मैं पूछता हूं कि ये जो बहुजन है गांव में जो असंगठित कामगार हम कह सकते हैं और असंगठित कामगार जो रस्तों में काम करता है जो बिल्डिंग पर काम करता है जो असंगित असंगठित कारीगर है हाथकरगा का हो बुनकर हमारे यहां पर कोष्ठी समाज है इनकी अगर मजदूरी नहीं बढ़ लड़ती है तो सबका साथ सबका विकास कैसे होगा? बहुत सरल सवाल है ये और सरकार किसी की भी रहे 1947 से आज तक के क्या किया है सरकारों ने? सुबह एक सत्र में बोलते हुए हमारे गांधी जी ने समाजवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की बात कही कि समाजवाद में ऐसा ऐसा कहा जाता था मुक्त अर्थव्यवस्था में सरकार की जरूरत नहीं ऐसा ही कहा गया पर आप देखिए दोनों भी व्यवस्थाओं में इतना ही नहीं तो साम्यवादी व्यवस्था में भी असंघटित श्रम करने वालों की लूट का कोई जवाब ही नहीं मिला। कब इसके बारे में हम सोचेंगे? अभी यहां पे ज्योतिबा फुले की बात कही गई। ज्योतिबा मां जी ने किसानों का आसुर करके किताब लिखी है अंग्रेजों के कान पकड़ने के लिए कि आप किसानों की लूट कैसी करते हो। उस किताब के प्रकरण तीसरे का पहला वाक्य ऐसा है कि गोरे अंग्रेज सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाएं बढ़ाकर किसानों पर नाना प्रकार के कर लगाकर किसानों को कर्ज में डुबो दिया है। मुझे बताइए कि बहुजन समाज के हमारे भाई बहन जिनको वेतन आयोग का फायदा मिल रहा है स्वतंत्र भारत में क्या वो ज्योतिबा फुले की इस बात को मानने को तैयार होंगे और बहुजन समाज के साथ में खड़े होंगे? मैंने महाराष्ट्र सरकार को चिट्ठी लिखी थी क्योंकि हमारे यहां के एक माली समाज के नेता छगन भुजबल वहां मंत्री थे। वो ज्योतिबा फुले की गद्दी संभालते हैं। बोलते हैं। मैंने महाराष्ट्र सरकार को लिखा कि जो सरकारी ऑफिसों में ज्योतिबा फुले की फोटो लगाई गई है। उस फोटो के नीचे यह वाक्य लिखा जाए। मुझे महाराष्ट्र सरकार का जवाब आया है कि इस तरह से नहीं लिखा जा सकता। जरा सोचिए साहब यह लड़ाई कितनी कठिन होते जा रही है। बहुत अच्छा लगता है बोलने के लिए। गांव में जमीन मालक और मजदूर का झगड़ा इतना बढ़ा दिया गया है कि अब जमीन मालक छोटाछोटा हो गया है। फिर भी वो एक ही नहीं बन पा रही है। ज्योतिबा फुले जी ने वही शेतकर किसानों के आसुड़ में आठ बैल का किसान जमीन मालक उसकी क्या अवस्था है? उसके बच्चों की क्या अवस्था है और एक अंग्रेज के सोल्जर उसकी क्या अवस्था है इसका जिक्र किया है साहब पर कभी इस पर चर्चा हुई जमीन बांटो कोई हरकत नहीं भैया गांव की जमीन बांटी तो टाटा बिरला अंबानी अडानी की संपत्ति क्यों नहीं बांटते उसको हजारों एकड़ जमीन देंगे बहुजनों के नेताओं ने कभी इस पर गंभीरता से सोचा? कभी इस पर प्रबोधन किया? मार्क्स ने जो कहा कि मजदूर के लूट से संपत्ति का संचय होता है। बिल्कुल सही बात कही मार्क्स ने। पर रोजा लग्जर नाम की महिला एक इकोनॉमिस्ट उसने कहा था कि कच्चे माल के लूट से भी पूंजी संचय होता है। क्यों रोजा लज्जबर को सामने नहीं लाया? क्या महिलाओं को दबा के रखना है? इसलिए रोजा लज्जबर को भी दबा के रख दिया। बहुत गंभीरता से सोचने का समय आ गया है। गांधी ने एक जिक्र किया समाजवाद और फ्री मार्केट का। पर मैं उसको इस ढंग से रखता हूं कि हमारे देश को दो कालखंड में विभाजित करने की जरूरत है। एक कालखंड है 1947 से 1990 तक का और दूसरा कालखंड है 1990 से 2025 तक का। आप देखिए 1947 से 1990 तक के गांव और शहर संगठित और असंगठित इनका जो अंतर है इनमें की जो दरी है वो धीरे-धीरे बड़ी है। उसका अगर ग्राफ निकाले तो आपको ऐसी ऐसी ऐसी दिखेगी। मेरे ख्याल से बनारस के बुनकर भी यह मान्य करेंगे। कि उनके बाप दादा जो 70 से 47 से 90 तक के थे वो थोड़े से सुखी थे आज से बराबर है तो वो ऐसी ऐसी बड़ी है पर 90 के बाद में अगर आप उसको निकालेंगे तो वो एकदम ऐसी गई है एक्सप्पोनेंशियल ग्रोथ ऑर्गेनाइज सेक्टर में हुई है और अनऑर्गनाइज सेक्टर ज्यादा ज्यादा पिछड़ते जा रहा है। मेरा यह मानना है कि जो मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे जिन्होंने यह नई आर्थिक नीति इस देश में लाई 1990 से उनको भी इस बात की जानकारी हुई कि कुछ तो भी गलत हो रहा है और जो गलत हो रहा है उसको दुरुस्त करने के लिए उन्होंने जो निर्णय लिए उस निर्णय की तरफ हमको देखना होगा। उन्होंने निर्णय क्या लिए? उन्होंने निर्णय लिए गांव में पैसा पंप करने के। क्योंकि जो नया पैसा बना वो सब शहरों में और मुट्ठी भर लोगों के पास में ही जमा हो रहा था। मनमोहन सिंह जी ने रोजगार गारंटी योजना को राष्ट्रीय बनाया। मनमोहन सिंह जी ने 70 हजार करोड़ की किसानों की कर्ज माफी की पूरे देश में। और मनमोहन सिंह जी ने फसलों के दाम 28 से 50% एक रात में बढ़ा दिए। मैं उनकी वकील नहीं करना चाहता हूं। पर वो इकोनॉमिस्ट थे। अर्थशास्त्री थे और देश के प्रधानमंत्री भी थे। उन्होंने यह कदम तो उठाए। पर हुआ क्या? चुनाव जीत लिया यूपीए वन का और यूपीए टू में फिर वही शुरू हो गया। शहरी लोगों का दबाव फसलों के दाम बढ़ना बंद हो गए। एक चीज को हमने और गंभीरता से लेना चाहिए। रुपए का अवमूल्यन मनमोहन सिंह जी के जमाने में रुपए का अवमूल्यन करने का पहले निर्णय हुआ। 90 में ही उस समय दुनिया के बाजार में सभी कृषि उपज के दाम डॉलर में ज्यादा थे। तो रुपए का अंबूलन होने से वह दुनिया का माल जो आ रहा था वह महंगा हो गया। आपका चीन का रेशम भी महंगा हो गया ना बराबर है। तो विदेश से आने वाला माल महंगा हो गया। पर बाद में इन लोगों ने बड़ा हिसाब से विदेश में सब दाम डॉलर में के गिरा दिए डॉलर में ही। तो वो रुपए का अमूल्यन भी काम नहीं कर रहा था। किसानों की आत्महत्याएं शुरू हो गई। 95 के बाद में कपास वालों की सबसे ज्यादा आत्महत्याएं हुई। मेरा कहना क्या है? मेरा कहना यह है कि इस देश की राजनीति, अर्थनीति और समाज नीति इस पे पूरे बहुजन समाज का नियंत्रण होना चाहिए। दुर्भाग्य से वह नियंत्रण ही नहीं रहा है। हमको बराबर जाति पाती में बांट दिया गया है। हमको इंसान बचा के रखा ही नहीं है। और अब तो मोदी जी के राज में तो कुछ सोचने की बात ही नहीं है। मोदी जी ने तो हमको हिंदू और मुसलमानों में भी बांट दिया है। उनका चुनाव जीतने का हथकंडा तो सिर्फ हिंदू और मुसलमान ही है। और फिर दूसरा वो रेवड़ी का विरोध करते हैं। रेवाड़ी कल्चर का विरोध करते हैं पर खुद रेवड़िया बांट बांट कर चुनाव जीतते हैं। और उसमें बहुजन समाज फंसते जा रहा है। अब आप देखिए, आठवें वेतन आयोग की चर्चा है देश में। आप YouTube खोल लीजिए। उसमें आपको दिखेगा आठवें वेतन आयोग में चतुर्थ श्रेणी कामगार की तनख्वाह जो सातवें वेतन आयोग में 18,000 है वो 500 होने वाली है। कोई बोलता है 60 हजार होने वाली है। हमारे बहुजनों के जो नेता हैं वह मोदी को यह क्यों नहीं पूछते बीजेपी के पार्टी में भी जो बहुजनों के नेता है वो कि भैया आठवें वेतन आयोग में अगर इतनी तनख्वाह चपरासी की होने वाली है कलेक्टर के तो फिर हमारे गांव में हमारे रास्तों पर हमारे बिल्डिंग पर काम करने वाले बहुजन मजदूर भाई बहन की मजदूरी कितनी बनने वाली है? क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहिए? क्या यह सवाल गलत है? पर कौन पूछेगा यह? मैं बहुत साफ रूप से कहता हूं कि जिन्होंने इस व्यवस्था का फायदा लिया है, वो इस व्यवस्था के गुलाम बन गए हैं। यह हमको मान लेना पड़ेगा। मैं तीन दिन पहले गुजरात में था और गुजरात में मैं मेरे भाषण में यह बोलकर आया हूं और ये सवाल पूछ कर आया हूं जो यहां पूछता हूं योगी जी से पूछता हूं। आप हिंदू हिंदू करते हो। ठीक है। गुजरात में तो 25 साल से आपकी सरकार है। कोई दूसरा नहीं आया। 11 साल से आप देश के प्रधानमंत्री हो। खुद को बहुजन कहते हैं मोदी जी। मैं बहुजन हूं, ओबीसी हूं। अदर बैकवर्ड क्लास में हूं। है ना? मैंने मोदी जी को चिट्ठी लिखा। उनका एक यंग मंत्री था हिमाचल प्रदेश का ठाकुर। उसको भी लिखा। अरे भैया हिंदू हिंदू करते हो? तो जरा मुझे यह तो बताओ कि 25 साल से गुजरात में आपकी सरकार है। वहां के खेत मजदूर की आदिवासी की कितनी मजदूरी 25 साल में आपने बढ़ाई? इसका जवाब तो दो। क्या गलत सवाल है ये? मेरे को बड़ा अच्छा लगा कि वहां के एक अखबार ने उसकी हेडलाइन ही छाप दी। भाइयों और बहनों हर चीज का आप सॉन्ग ले सकते हो, नाटक कर सकते हो, पैसे का नहीं कर सकते। इसीलिए कहा है ना सबसे बड़ा रुपैया आज बहुजनों में यह सब क्यों है? यह गुलामी क्यों है? क्योंकि बहुजनों को भारत सरकार के तिजोरी में से अपना हक नहीं मिल रहा। इसलिए आज बहुजनों की यह हालत है। दोस्तों आज क्या परिस्थिति है? हम गौजनों को हमारे यहां पर किसान आंदोलन में गांव के 12 बलूतेदारों का समावेश करते थे। नाई है, बई है, सोनार है, धोबी है, कोष्टी है। सबका तो सब एक है नाम। कहां अलग है? सबका उस जमाने में अनाज देने लेने से व्यवहार होता था। सिस्टम थी, वस्तु विनिमय था। आज कोई भी अनाज देने को तैयार नहीं है। मुझे याद है जब मैंने खेती शुरू की गेहूं की कटाई होती थी। गेहूं की कटाई होने के बाद में हमारी मां बहने खेत में जाकर जिसको हम इरवा बोलते हैं। जो बाली गिरी रहती है ना वो बाली को चुनकर उसको ठोक कर उसमें का गेहूं निकालती थी और आधा गेहूं जमीन के मालिक को देती थी। आधा गेहूं खुद ले जाती थी। आज किसी को बोलो जाएगा तो कोई काम करने के लिए क्या हो गया यह रुपए की अर्थव्यवस्था में अनाज के दाम तो कम रखे उसको नहीं बढ़ने दिया। मैंने मनमोहन सिंह जी के सामने 2006 में मेरे गांव में कहा था गरीब को अनाज सस्ता मिलना चाहिए पर अनाज पैदा करने वाले ने गरीब क्यों रहना चाहिए इसका जवाब हमको चाहिए दोस्तों मैं नहीं कह रहा हूं ये ज्योतिबा फुले ने लिखा है ये विनोबा भावे ने लिखा है हम विनोबा भावे कैसे भूदान भूदान के ढोल बजाते हैं विनोबा भावे ने एक जगह लिखा है कि जिस इस देश में 70% लोग खेती पे जिंदा है और खेती के ही वस्तुओं के दाम कम रखेंगे तो देश का विकास कैसे होगा? ये विनोबा ने लिख के रखा है साहब। मैं कई लोगों को कहता हूं कि बाबा साहब आंबेडकर का मुझे कहीं एक आधा निबंध बता दो कि जिसमें बाबा साहब अंबेडकर ने कहा है कि दो-दो चार-चार एकड़ जमीन बांटो करके। हां। नहीं कहा ना? मेरी जानकारी जो यह है कि बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि जमीन का राष्ट्रीयकरण करो और राष्ट्रीयकरण करके पूंजी खेती में सरकार ने लगानी चाहिए। कैपिटल इन्वेस्टमेंट सरकार ने करना चाहिए। हमारे यहां क्या किया? दो-दो चार-चार एकड़ जमीन बांटी। उनको भू विकास लैंड डेवलपमेंट बैंक से कर्जा दिया। कूड़ा खोदो। वो किसान कर्जे में चले गया। फसलों के दाम बढ़ने नहीं दिए। वो बेचारा कर्जे में ही खत्म हो गया। इसलिए कहा जाता है ना कि भारत का किसान कर्जे में जन्मता है, कर्जे में बढ़ता है और कर्जे में ही मरता है। मुझे कहना यह है कि इस आर्थिक नीति पर हमारी नजर होनी चाहिए जो हमें पीछे पीछे डाल रही है। और अब मैं एक उपाय सिर्फ बता के अपनी बात को खत्म करूंगा। बहुत बातें हो गई है सब। मर्म कहां है? अब मोदी जी के विकास मॉडल पर ही मैं बात करता हूं। मोदी जी सत्ता में आए। 2014 में कहा मैं किसानों को फसल का मुनाफा जोड़ के 50% दाम दूंगा। बाद में कहा किसानों की आमदनी दुगनी करूंगा। बाद में दिया पीएम किसान सम्मान निधि ₹6000 ये 1919 में दिया उसके बाद में उसमें एक पैसे की भी बढ़ोतरी नहीं की है। क्यों भैया सबके महंगाई भत्ते बढ़ रहे हैं ना? फिर क्यों नहीं? मजदूर की मजदूरी क्यों नहीं बढ़ाते मोदी जी? क्योंकि वो बढ़ाई तो फिर फसलों के दाम बढ़ेंगे। खेत मजदूर की मजदूरी बढ़ी तो बाकी के समाज के सबके मजदूरी बढ़ेगी। हम हमारे मंच से यह कहते थे कि इस देश में कई करोड़ लोग भाई और बहन एक धोती या एक साड़ी पे जीते हैं। उनकी क्रय शक्ति बढ़ जाए तो उनको कितने करोड़ धोतियां और कितनी करोड़ साड़ियां लगेगी और फिर कितना कपास लगेगा और कितना रोजगार मिलेगा। क्या यह बुनकरों की मांग नहीं थी क्या? ये हम कहते थे साहब तो दुर्भाग्य यही हुआ कि हमारा वो भी सब ताकत खत्म कर दी। पूरा उसको तोड़ डाला। अभी मोदी जी क्या कर रहे हैं? अंबानी अडानी तो जाने दो हो। वो इसके पहले के सरकार ने भी बनाया। अब ये भी बना रहे हैं। पर मोदी जी जो कर रहे हैं ना उसके तरफ हमको नजर रखनी होगी। ₹15 लाख करोड़ का कर्जा हर बजट में बढ़ा रहे हैं मोदी जी। ऐसा कहते हैं कई इकोनॉमिस्टों ने लिखा है कि 1900 2014 में मनमोहन सिंह गए उस समय देश पे 55 करोड़ का 55 लाख करोड़ का कर्जा था। आज दो 256 लाख 60 लाख करोड़ का कर्जा हो गया है। हर साल 15 लाख करोड़ का कर्जा बढ़ाकर बढ़िया रस्ते बनाना, बढ़िया रेलवे स्टेशन बनाना, बढ़िया एयरपोर्ट बनाना, इंडिया को सुपर इंडिया बना रहे हैं मोदी जी। जो मनमोहन सिंह नहीं कर सके उससे आगे जाकर काम कर रहे हैं। और दूसरी तरफ गांव के किसान मजदूर को बोलते हैं 5 किलो मुफ्त अनाज ले ले। ₹1500 लाडली बहना ले ले। तीन गैस सिलेंडर मुफ्त ले ले। ₹6000 पीएम किसान सम्मान निधि ले ले। बुनकरों को कहेंगे कि थोड़े से हम इसमें दे देते उसमें दे देते। उसमें दे देते आदिवासी को कहेंगे कि आदिवासी विकास में यह दे देते और अब तो बिहार में हमारे सभी मां बहन को चुनाव जीतने के लिए उन्होंने ₹10,000 उनके खाते में डाल दिए। ये क्या लोकतंत्र है क्या? क्या हम यह मांग कर सकते हैं मोदी जी से या देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से कि अगर ₹15 लाख करोड़ का कर्जा शहरों के मुट्ठी भर लोगों के लिए आप ले सकते हो। तो फिर 15 लाख करोड़ का कर्जा ज्यादा कहा लो ना हर साल और वो गांव में पंप करो फसल के दाम के माध्यम से रोजगार हामी योजना के माध्यम से मजदूर की मजदूरी के माध्यम से सिंचाई व्यवस्था के माध्यम से तभी जाके समानता आएगी ना ₹1 लाख महीना जिसकी आमदनी है ₹1 लाख साल की दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए मोदी जी ने उनका इनकम टैक्स जीरो कर दिया। जिसकी 12 लाख की आमदनी है साल की उसका इनकम टैक्स जीरो। ऐसे एक करोड़ लोगों के लिए एक लाख करोड़ बजट पैसे दिए। उनको पैसे देने के लिए पैसे हैं इनके पास में? गरीब मजदूर किसान को पैसे देने के लिए पैसे क्यों नहीं है? क्योंकि हम मांग ही नहीं करते हैं। हम में एकता ही नहीं है। हम जाति पाती में, धर्म में, छोटे बड़े में बिखर गए हैं। बिखार दिए गए हैं। दोस्तों, बहुजनों को अगर संगठित करना है तो डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर ने जो कहा था कि पढ़ो, संगठित हो और संघर्ष करो। यह सब पढ़ाना पड़ेगा। इसका एजुकेशन करना पड़ेगा। उनमें से चेतना जगानी पड़ेगी। और डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर ने एक बात और कही थी कि पढ़ाई होने के बाद में सरकारी नौकरी मिलने के बाद में शादी होने के बाद में अपने सुखी संसार में आप मत रहो। मग्न मत रहो। जहां से आप आए हो उसको भूलो मत। आज है क्या कोई ऐसा कलेक्टर कि जो इस बात को ले आगे बढ़ रहा है। वो सही सही बात बताता है क्या? दोस्तों आज बातें बहुत अच्छी हुई है। मैं तो यह कहूंगा कि यह जो अधिवेशन है ये सुनील सहस्त्र बुद्धे हमारीित्रा भाभी इन्होंने अपनी जिंदगी दे दी इस काम के लिए। और आप आप और हम सब उनको सहकार्य कर रहे हैं। नई पीढ़ी को हमको तैयार करना पड़ेगा। अगर नई पीढ़ी तैयार नहीं होगी तो मुझे कोई शंका नहीं है कि इस देश में एक नई गुलामी की व्यवस्था होने वाली है। वो व्यवस्था क्या कहती है हमारे गांव के बच्चों को खेती पुराती नहीं है। खेती छोड़कर बाहर आ जाओ। शहरों में आओ हमारा 5 किलो मुफ्त अनाज लो आप देखो वन वन राशन कार्ड क्या है ये बिहार का आदमी बंबई में जाएगा वो कार्ड लेकर उसको वहां पे भी मुफ्त का अनाज मिल जाएगा इसका मतलब क्या हो गया कि जाओ गुलाम बनो आओ शहरों में और हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर के कामों पर कम मजदूरी में काम करो और हमारी गुलामी स्वीकार करो मुझे लगता है कि इसके लिए गांधी और भगत सिंह ने अपनी जान नहीं दी। ज्योतिबा फुले और बाबा साहब आंबेडकर ने यह संदेश हमको नहीं दिया। हमको बाबा साहब आंबेडकर ने संदेश दिया। गांधी ने संदेश दिया कि इंसान की जिंदगी जियो। तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा। इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा। बाबा साहब आंबेडकर ने कहा घटना मैंने इसलिए लिखी है कि इंसान को इंसान की जिंदगी देने का अधिकार देने वाली राजनीति अर्थनीति और समाज नीति होनी चाहिए। जिस दिन ये राजनीति अर्थनीति और समाज नीति इंसान की इंसानियत को महत्व देंगी उस दिन बहुजन समाज का स्वराज आया। ये कहने में हमको संकोच नहीं होगा। आपके चरणों में नमस्कार। धन्यवाद। [प्रशंसा]
लक्ष्मण प्रसाद:
बहुत-बहुत धन्यवाद। हमारे किसान नेता विजय जावंधिया जी। आपने बहुत ही विस्तार से इस विषय को रखा। अब हमारे अंतिम वक्ता हमारे अध्यक्ष इस सत्र के दूसरे अध्यक्ष जानकी भगत जी आप पुराने समाजवादी हैं। अर्जक संघ से हैं। मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप आए और अपने विचारों को व्यक्त करें और इस सत्र का समापन भी करें।
जानकी भगत: [अर्जक संघ, रोहतास, बिहार]
साथियों, आज इस बहुजन स्वराज पंचायत में मैं उपस्थित हूं और जब हमको पता चला कि बहुजन समाज पंचायत हो रही है तो हमको बहुत खुशी हुई इस शब्द से कि शायद देश में ऐसे सोचने वाले लोग भी हैं। क्योंकि मैं जिंदगी में जब से होश संभाला 15 साल तक हुआ उस कड़ी में मैं लड़ता रह गया। पांच बार देश के लिए जेल गया। यहां तक कि हमारे बगल में पोस्टर लगा है टीत साहब का आंदोलन। उसमें भी मैं 22 दिन जेल रहा। पिछड़ों के लिए झेल रहा। हमारे बिहार ले जगदेव मारे गए। उसमें भी जेल रहा। लेकिन आज अफसोस है कि हमारी जिंदगी बीत गई है। पढ़ने में मैं राजेंद्र प्रसाद था। उस जमाने में आधा घंटा में मैंने 100 नंबर का हिसाब बनाया था। और मेरे एग्जामिनर को जब कॉपी देने लगा लड़की बुद्धि था तो एग्जामिनर कहा कि अरे बेहूदा तू पढ़ता है कि बकरी चराता है कि भैंस चराता है। मैं चुप रह गया। लेकिन पांच मिनट के बाद जब मेरी कॉपी लिया और मेरा 100 में 100 नंबर का हिसाब ठीक था तो कहा कपड़ धरे बाप रे बाप राजेंद्र प्रसाद दूसरा आ लेकिन आज मुझे कहना पड़ता है मैं अंबेडकर से सीखता हूं गांधी से सीखता हूं और भगत सिंह से सीखता हूं और अभी जरूरत है लाखों लोगों को सीखने के लिए क्योंकि आज बहुजन समाज के लोगों में कम से कम 1500 वर्षों से गुलाम बनाया गया है तेजी से गुलाम बनाया गया है। आजादी के बाद भी गुलाम बनाया जा रहा है। एक साथी कहे हमारे पहले विजय भाई ने कि हमारे लोहिया कहते थे गांधी कहते थे सबकी शिक्षा एक समान राष्ट्रपति का बेटा हुआ की संतान लेकिन आज क्या हो रहा है? पूरे हिंदुस्तान के यूनिवर्सिटी में कहीं पढ़ाई नहीं हो रही है। पैसा वालों के लिए खोल दिया। ये भी नहीं सरकार की बजट देखिए मैं दुनिया का आंकड़ा देखता हूं कभी-कभी मुझे तो मोबाइल चलाने उतना नहीं आता है ना रखा हूं छोटा रखा हूं लेकिन हिंदुस्तान में शिक्षा बजट पर 2.7% खर्च हो रहा है अमेरिका में 8% खत्म हो रहा है ब्रिटेन में अधिक खर्च हो रहा है जापान में भी हो रहा है और हिंदुस्तान में सबसे कम और वो शिक्षा कर हम लोग देते हैं जो लगान बालगुजारी देता है ना तो शिक्षा कर देता है स्वास्थ्य कर देता है रोड श कर देता है। अब मिलता क्या है? इन लोग का बाप का पैसा है। हमको एक बात और रहा भाई उन्होंने कहा कि मैं डब्ल्यूटीओ के खिलाफ में एक बार दिल्ली में धरना दिया था 92 में और हमारे एक एमपी थे और उन्हीं के हमारे साथ 500 लोग थे ठहरा था। जब चलने लगा तो मैं पूछा कि एमपी महोदय डब्ल्यूटीओ क्या है? तो कहे कि भगत जी आप नेता हैं। आप बताइए डब्ल्यू टीओ क्या है? तो हमने कहा कि भाई हम नेता हैं तो हमारे जैसे आदमी को ना पार्लियामेंट में रहना चाहिए। आप कैसे आ गए? आज मैं देखता हूं पार्लियामेंट में चरित्र विहीन नेता और नीति विहीन राजनीति देश में चल रही है। इसलिए डूब रहा है। डूब रहा है। एक साथी और कहे किसान आंदोलन मैं किसानी तो करता हूं। अब एक बात उदाहरण दो तुमको समझा देता हूं। किसानों का क्या हाल है। 75 72 में किसान के धान का दाम था 75 क्विंटल और सोना से वैल्यू होता है रुपवा का कागज का ना तो सोना मिल जाता था अाई क्विंटल धान बेचने पर 80 में डीजल तेल का दाम था। कितना ₹3.5 पौने दो किलो धान बिकता था तो एक लीटर तेल मिल जाता था। एक क्विंटल धान 72 में बेचता था तो सात वाला सीमेंट मिलता था। आज जानते हैं कि देश के रीढ़ किसान है। और जब रीढ़ कमजोर हो जाएगा तो कोई व्यक्ति टिकेगा क्या? नहीं टिकेगा। इस सरकार जो है पूंजीपतियों की सरकार है। अचरितहीनों की सरकार है और नीति विहीन सरकार है। इसलिए देश खतरा में जा रहा है। और आज बहुजन लोगों को जो हमारे जुटे हैं। मैं तो अफसोस कर रहा था कि इस जमात में नौजवानों की टीम कम है। मैं साथियों मैं पढ़ता था तो हमारे यहां डॉक्टर राम मनोहर लोहिया गए थे और मैं विद्यार्थी था। पढ़ने में बात कह दिया कि मैं फर्स्ट डिवीजन का विद्यार्थी था। लेकिन लोहिया की बात जब मैंने सुना तो उस दिन मुझे लगा कि ऐसा ही नेता बनना चाहिए। और दिल्ली में दिल में वेदना दबती गई और क्रांति के आंदोलन में फंसता गया। 74 में जल गया। पिछड़ों के लिए 78 79 में सामाजिक न्याय के लिए दो-दो बार जेल गया। किसान आंदोलन में जल गया। आज आपके सामने मंच पर खड़ा हूं और मेरी 80 वर्ष की उम्र हो रही है। मुझे लगता है कि मैं अभी जवानी में हूं। और इस जवानी का मतलब देश के लिए मैंने भगत सिंह को खूब पढ़ता हूं। विवेकानंद को पढ़ता हूं। गांधी का मोड किताब रखा हूं। 50ों किताब रखता हूं। जहां-जहां सम्मेलन में जाता हूं तहां रखता हूं। लेकिन एक बात हमारे नौजवान बलगड़ा रहे हैं। अभी साथी कई साथी जो कहेती कांशीराम की बात मैं इन लोगों को परीक्षा लिया। ये लोग नीति विहीन थे। जमात के नाम पर मनुवादियों की जो संस्कृति चले उसके नाम पर लोग राजनीति करना चाहते हैं। इसलिए देश हमारा बिखर गया। पिछड़े दलितों में एकता नहीं है। ना तो आज मनुवाद नहीं बढ़ता। एक बात जो आपके बनारस उत्तर प्रदेश की नगरी है अयोध्या वहां सुन रहे हैं अखबार में देखते हैं मोबाइल पर देखते हैं कि मंदिर बनाम का अरबों रुपया लग गया लेकिन मैं उस मंदिर में एक बार गया था और देखा कि उस मंदिर के महंत था मैंने सलाम नहीं किया तो खुद महंत ने कहा कि जय श्री राम हम कहा कि भाई हम बोलते नहीं है जय श्री राम कर दिया तब हमको लगा कि देखिए कितना इतना चालाक आदमी है। आज रामराज से काम नहीं चलेगा। मनुवाद से काम नहीं चलेगा। जाति व्यवस्था से काम नहीं चलेगा। हम तो चैलेंज करते हैं हर जगह कि जात का परिभाषा बता दो। धर्म का परिभाषा बता दो। सनातन का परिभाषा बता दो। एक आदमी को नहीं जो ग्रेजुएशन किया है उसको भी नहीं आता है लेकिन लकीर के फरी बने हुए हैं। आज हम बहुजन भाइयों जो सम्मेलन में आए हैं, उनसे यही आग्रह करना चाहते हैं कि अपने विचार और सोच आगे बढ़ाइए। ये विकल्पहीन नहीं है दुनिया लेकिन ताकत तो लगाना है ना। हम एक बार जिंदगी में अनुभव किया कि यहां तो 500 लोग जुटे हैं। दिल्ली में एक बार अाई 3000 जुटे थे और हमारे देश के प्रतिरक्षा मंत्री जा फर्नांस थे। और मैं इस घटना को इसलिए कहना चाहता हूं कि कमजोर से कमजोर आदमी देश को हिला सकता है। और मेरी भावना थी जब जार साहब गए थे अमेरिका में उनको लंगझारी किया अपमान किया। बिहान भला सुबह मुझे दिल्ली में अखबार में मिल गया। उनकी शिकायत आलोचना पढ़ा मुझे गुस्सा हो गया। मैं नहीं जानता था कि जाने फने इस सम्मेलन के उद्घाटन करता है। 11 11:30 बजे शुरू हुआ। जे जा साहब आए और कुलदीप नयर जो अमेरिका के राजदूत थे वही सभापति कर रहे थे। हमारे बगल में हमारे नेता किशन पटनायक बैठे थे। सीताराम चौरी बैठे थे। जब शुरू किए भाइयों और बहनों मंच पर आकर तो हमने कहा कि आपकी बात हम सुनना नहीं चाहते हैं। तो क्यों? हम की हिंदुस्तान के कायर मंत्री कार्यर नेता देश को स्वाभिमान गिराने वाले की हम बात सुनना नहीं चाहते बंद करो भाषण देने सहभाग है बाद में हमको लोगों ने सलामत किया कि भगत जी कहिए धन्यवाद के बात है नमस्कार है उनको बहादुर हम कहा कि हां हमको एक बात लगा कि गरीब का बेटा भी देश को बदलने के लिए तैयार है लेकिन लोग पीछे से ठहरे तब ना लड़े तब ना फले साहब कह गए अंबेडकर साहब संविधान बना दिए। लेकिन अंबेडकर साहब तो एक बात लिखे हैं कि अगर कितना हो संविधान अच्छा है लेकिन चलाने वाला ठीक नहीं हो तो संविधान काम नहीं करेगा। आज राजनीति में क्या हो गया? राजनीति को व्यापार बना दिया है। तो व्यापार में क्या होता है? पैसा भाई हमारे साहब ने कहा कि 10,000 पूरे बिहार में रुपया दे दिया। कुछ महिलाओं को बड़ी खुश है। हम कि सबसे धूता आदमी है। अनाज की कीमत किसान किसी भी कीमत में इसको वोट ना दे। अगर जागरूक किसान है और मजदूर है तो इस सरकार के बिल्कुल खिलाफ होना चाहिए। और एक लोहिया जी की बात मैं याद दिलाता हूं। लोहिया जी कहे थे कि रोटी बनाते हैं खाने के लिए ना। एक तरफ छोड़ दोगे तो रोटी जल जाएगी। रोटी उलटते रहो तब खाने लायक रहेगी। इसलिए जनता की भलाई के लिए काम करने सरकार को 5 वर्ष में पलटते रहो और सरकार दना दन काम जनता के हित में करती रहेगी। लेकिन जब तक नहीं पलटोगे तब तक सरकार। अब मोदी सरकार वो हो गई है ना कि हिंदुस्तान के कम से कम सैकड़ों अमीर पूंजीपति दुनिया के अमीर लिस्ट में आ गए हैं। यहां के किसानों को, मजदूरों को 82 करोड़ लोगों को राशन दे रहा है। वाह रे वाह। क्या सोचे? लेकिन इस सोच के जो समझदार हैं सब सबका दिमाग बराबर नहीं है मैं मानता हूं और आज पढ़ाई पर भी हम तो कहते हैं कि ज्ञान बांटने का चीज है ज्ञान बेचने का चीज नहीं है ज्ञान बांटने का चीज है लेकिन आज ज्ञान बेचा जा रहा है व्यापार हो गया है वाह रे वाह क्यों ऋषि महर्षि ने कहा था कि पैसा पर दुकान खोल दो ज्ञान का कोई कहा था राम कहे थे कृष्ण कहे थे जो लोग मानते हैं नहीं हम तो एक दिन घटना है कि लालू को भी लजवाया था बिहार में कि लालू जी देश की राजनीति कैसे होती है कौन स्वाभिमानी आदमी था जिसके स्वाभिमान के चलते पूरा लोग थरथराते थे आए नहीं हम कृष्ण के बुद्धि के लोहर के मन ले कृष्ण इंद्र के भगवान के खिलाफ गोवर्धन पहाड़ पुजवा दिया आज हम अंधविश्वास में जी रहे हिंदुस्तान के लोग अंधविश्वास में जी रहे हैं पूजा पाठ कर रहे हैं पता पूज रहे हैं हमारे नेता तो ही कबीर यही है रविदास धरती पर। मैंने कबीर को सबसे अभी तक मेरे दिल में आया कि अगर दुनिया का अशास्त्री का नोबेल पुरस्कार दिया जाए तो कबीर को देना चाहिए। कबीर ने क्या लिखा था? साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाए। मैं भी भूखा ना रहूं। साधन भूखा जाए। लोहिया जी भी कहते थे कि किसी भी सरकार को ये देखते हैं ना पांच गंगरी पांच के अनुपात में तनख्वाह चाहिए किसी को 10,000 तो किसी को 500 आज क्या हो रहा है प्रोफेसर को 3 लाख एमपी को 3 लाख और मजदूरन के 200 वह काम हम तो देखत बाजार में तो हम बड़ा सर झुका कि मजदूरन के लाइन हजारों हजार मजदूर हम के काम मिल जा वाह रे बेरोजगारी के मोदी कह कि हम देश चौथा विकसित देश में चल पूरा दुनिया में हम कैसे हो कोना आंकड़ा से हो यही नहीं जो देखा देखी हो रहा है सबसे काम देखा देखी पछतावा का होता है अमेरिका जो है अपने किसानों को ₹5600 प्रति साल बीत गया अनुदान देती है लेकिन हिंदुस्तान के की सरकार ₹00 खाली लुभावना दे के ₹6000 और किसानों को लूट रही है लूट रही है दाम नीति में लूट रही है। अब एक बात बता दूं कि अगर हमारी 72 की सरकार जो थी एक क्विंटल धान बेचता था तो 11 बड़ा सीमेंट मिलता था। आज अगर उस नीति को कायम करें तो हमारे धान का दाम ₹400 होना चाहिए। माननीय राम स्वरूप वर्मा जी ने बताया था कि इस देश में अगर औद्योगिक क्रांति लग जाए तो हिंदुस्तान का एक आदमी भी बेरोजगार नहीं रहेगा और हथ को पानी दे दो और उत्पादन का उसके मेहनत का दाम दे दो। लेकिन अभी हमारे भाई साहब ने बताया जो सरकारी कर्मचारी हैं उनका वेतन पर वेतन बढ़ जाता है। अभी बिहार में 3% बढ़ाया है। हम के किसान के ₹2200 कह के 2000 के लिए आता है। हम कई जो पक्ष अध्यक्ष उनसे कहा कि भाई किसान नेता बन गए आंदोलन करो। हम तुम्हारे साथ हैं तो कहता कि सर कलेक्टर लेता ₹00 ₹ क्विंटल प्रधानम हम कह कि तो लड़ो तो हमने हम कह कि हम ज्ञान देते हैं संगठित करो और एक बात हमको लगा कि हम बुजुर्ग हो गए अनुभव बढ़ रहा है लेकिन लड़ने की शक्ति मुझ में कम है और नौजवान कर सकता है इसलिए इस मंच के माध्यम से आज मैं नौजवानों को भी अपील करता हूं कि एक बार देश जिंदा रहेगा, देश खुशहाल रहेगा, देश लड़ाकू रहेगा तभी आप चंद से रहेंगे नहीं तो नहीं रहेंगे। और एक बात अंतिम में यह भी कह देता हूं कि साथियों देश में भ्रष्ट भ्रष्टाचार और भय मुक्त भारत का निर्माण कैसे होगा? क्योंकि आप जानते हैं कि देश के भ्रष्ट अफसर हैं और भयभीत नेता है। बगार्ड पर नेता चल रहे हैं। चुनाव जीत गए पांच को बगार्ड चाहिए। अब पहले उनको बगार्ड नहीं चाहिए था। अब सभी वही हाल है। तो देश के आम जनता प्रदेश चल रहा है और लंबा कहानी है। मेरे जीवन में आईपीएस अफसरों को भी हराया बाप से। इसलिए मुझे खुशी होती है कि जिंदगी में अगर एमपी हो जाए, एमएलए हो जाए तो कलेक्टर को डांट नहीं सकता है। लेकिन जब मैं डांटा और उसने हार माना तब कहा कि थैंक यू नेता जी। तो हम कह इतना करने के बाद मुझे लगा कि जिंदगी कबीर की जिंदगी गांधी की जिंदगी और भगत सिंह की जिंदगी जीना देश में कुछ सोचने वाले लोगों के लिए धन्यवाद की बात है और तभी हमारा देश आज हम लोग बोल रहे हैं नहीं तो नहीं बोल पाते इनहीं सब चंद शब्दों के साथ मैं अपनी बात खत्म करता हूं और आगे भी हम लोग मिलेंगे जय हिंद अब इस बैठा सत्र की कारवाई समाप्त की जाती है।
लक्ष्मण प्रसाद:
हां, बहुत-बहुत धन्यवाद हमारे अध्यक्ष जी और ये सत्र समापन हुआ लेकिन अभी एक सत्र अभी और छोटा सा सत्र है एक घंटे का। समाज सृजन के कला मार्ग। इसके लिए राम जी यादव जी को मैं आमंत्रित करता हूं और आप आए और आगे के सत्र की कार्यवाही को शुरू करें। राम जी यादव जी …
शब्दांकन [TRANSCRIPT]
विडियो लिंक: https://www.youtu.be/mGKuMkmD0iI
7 अक्टूबर 2025: पहला दिन, सत्र 3 (शा. 5.00 से शा. 6.00): समाज सृजन का कला मार्ग
रामजी यादव: [गाँव के लोग]
कला किसी न किसी रूप में विचारों को नियंत्रित करके उसको सही दिशा में ले जाने का काम करती है और बहुजन विमर्श की कला मार्ग बहुजन समाज के वे असंख्य कलाकार हैं जो सदियों से इस देश की सांस्कृतिक जागृति के लिए काम कर रहे थे कर करते रहे हैं और करेंगे उन्हीं के ऊपर दारोमदार है कि जब हम नया समाज बनाने का सपना देखेंगे देख रहे हैं तब उनको आगे आना पड़ेगा दो सत्रों के अनुशासित विमर्श के बाद अब एक खुला सत्र होने जा रहा है और मैं चाहूंगा कि इसमें जो सहभागी हैं वे मंच पर आएं। चित्रा भाबरा जी कजरी की गायिका हैं। लब्ध प्रतिष्ठ नाम है उनका। मैं उनसे निवेदन करता हूं कि वे मंच पर आ जाए और संजीव जी मंच पर आ जाए। संजीव जी का पूरा नाम इतना ही है तो संजीव जी समझ ले कि उन्हीं को बुलाया जा रहा है। अगर कुछ और है तो भी उनको सूचना दी गई होगी। इस हिसाब से आ जाए। नूर फातिमा जी आ जाए और अंशिका तथा अपर्णा जी वे भी मंच पर आए और इस सत्र की शुरुआत हो और मैं देख रहा हूं कि भाषा का जो पूरा विस्तार है पहले जैसे जैसे शहरीकरण बढ़ा है जैसे जैसे टेक्नोलॉजी की जो उसका प्रभाव है आगे बढ़ा है तो भाषा में जो एक लोक का पक्ष था वह गायब होता गया है। भाषा में लोक का पक्ष इतना गहरा था कि वह सदियों के अनुभव और उनके अपने मानकों के साथ आता रहा है। जैसे बनारस में प्रचलित था बातचीत में लंबा टीका मधुरी बानी दगाबाज की यही निशानी। इसी तरीके से अर्थशास्त्र जो है जिसकी समझ किसान मजदूर कारीगर को है क्योंकि जब अपना उत्पाद लेकर बाजार में जाते हैं या अपनी मजदूरी मांगते हैं अपनी मजदूरी चाहते हैं तो उनको जिस तरीके से सबसे कम दिया जाता है उसको लेकर एक कहावत जैसे प्रचलित थी पहले अब कहीं दिखती नहीं है और किसी कहानी की भाषा में भी इस तरह से नहीं मिलती है रोजमर्रा की बातचीत में भी नहीं मिलती है कि करे वाला आठ पावे करा वाला 12 और बैठल बैठल बात बना पावे 18 … तो इस तरीके का जो स्तरीकरण है अर्थशास्त्र का हमारी भाषा से गायब हुआ और गायकी से गायब हुआ हमारे तमाम सारे ऐसे व्यवहारों से गायब हुआ अभी सवेरे जब स्वराज और आज सत्संग चल रहा था तो उसमें कबीर की एक वाणी गाई सामू भगत ने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से उसको गाया … और वो है कि तेरा मेरा मनवा कैसे होई एक रे मैं कहता हूं आखन देखी तू कहता कागज की लेखी … ये जो फर्क है किताब से बोलने का, किताब से समझने का और अनुभव से सीखने का और अनुभव से बोलने का यह बहुत बड़ा फर्क है। यही लड़ाई जब बहुत आगे बढ़ती है और बहुत उसके लिए तमाम जब जद्दोजहद की जाती है तो इसी फर्क के साथ वो लड़ाई चलती है। अभिजन समाज और बहुजन समाज का यही फर्क है कि बहुजन समाज अपने अनुभवों से सीखता है और उसका अनुभव शास्त्र ही उसका संविधान है और अभिजन समाज किताबों की बातें जब उस पर लादता है उसको नियंत्रित करता है और उसकी हर मांग को उसकी हर जायज आवश्यकता को वह जिस तरीके से सीमित करता है। यह फर्क है। कबीर साहब के यहां से शुरू होती है बात यह और आज आप देख रहे हैं कि बहुजन समाज की अवधारणा को जानने के लिए उसकी सांस्कृतिक और उसकी हर तरह की देन को रेखांकित करने के लिए यह बात हो रही है। तो अभी चित्रा जी आ गई हैं। चित्रा … अच्छा चित्रा जी का नाम था यह बहुत गलत तरीके से लिखा है … और भाबरा कोई है अलग से तो भाबरा जी भी आ जाए कजरी गायिका वो आ गई है … नहीं है … तो अंशिका है अपर्णा जी है … नूर फातिमा आ गई हो तो वे भी आ जाए … तो नहीं है सांस्कृतिक का मतलब लोग आमतौर पर गाने बजाने से लेते हैं गाना बजाना मैं समझता हूं विचारों को लोक में प्रवाहित करने प्रसारित करने का सबसे सशक्त माध्यम भी है। तो लेकिन यह चर्चा है खुली हुई तो मैं चाहूंगा इस चर्चा की शुरुआत हमारी युवा साथी अंशिका करें कि एक नया समाज बनाने के लिए बहुजन समाज बनाने के लिए किस तरीके से किस तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। किसकी जरूरत है? आइए …
अंशिका:
यहां बैठे सभी लोगों को मेरा नमस्कार और आज सुबह से सभी को सुनते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा और बहुत कुछ जाना। उसके सामने मेरे मेरी बात मुझे उतनी महत्वपूर्ण नहीं लग रही और क्योंकि मैंने अभी तक बहुत ज्यादा अनुभव नहीं किया है तो मैं बस अपनी बात रखूंगी अपने अनुभव रखूंगी और उसको और अच्छे से समझने की कोशिश करूंगी। तो मेरा सवाल था जब आप जब आज मैं कला के ऊपर बोलना बोलना है मुझे तो कला क्या है? सबसे पहला सवाल यह आया तो मैंने ये समझा कि मैंने ये समझा कि जब मैंने कला को समझना शुरू किया उसके पहले से ही कला ने मुझको समझा है। ये हमेशा से ही मेरे साथ थी। चाहे मैं बचपन में रो के अपनी मम्मी को बुलाना चाहूं खाने के लिए। अलग तरह से रोना जब मैं घूमना चाहती हूं। वहां भी वो कला होगी। कला कहां नहीं है? ये भी सवाल मुझे आया। कला अगर हम लोग चलते हैं तो वह ताल लय की समझ संतुलन क्या वो कला नहीं है क्या जब हमारे हम सांस लेते हैं वो आरोह अवरोह क्या वो कला नहीं है क्या जब मम्मी आलू छीलती है इतने सफाई से इतने तरीके से क्या वो कला नहीं है तो कला तो हमारे बीच हमेशा से थी और क्या है जो इसको चलाता है इसको आगे बढ़ाता है इसका संचार करता है। तो जब मैं सुनील जी से बात कर रही थी तब उन्होंने मुझे यह उत्तर दिया कि यह भाव है, भाव प्रधान है कला तो वो बहुत सारी चीजों का सृजन कर सकती है। वो भाव इतना पाक होता है कि निर्जीव चीजों में भी वो जान डाल सकता है। जैसे कि कथककार या कोई भी नृत्यकार जब अपने घुंघरू को गुथता है तो एक-एक घुंगरू, एक-एक गु्थी उसमें अपने भाव डालता है। वो साधक अपनी साधना पे ये राह पे उसको अपना साथी बनाता है। तो कला में ऐसी क्षमता है कि वो कि वो किसी भी चीजों से भाव रिश्ता सब उत्पन्न कर सकता है और मैंने कुछ लिखा था छोटा सा मैं वो पढूंगी। जब सैकड़ों मीलों दूर से सूरज की सुनहरी किरणें नाचते लहराते पत्तों से छन मेरे आंगन में आ झिलमिलाएं तो अगर मेरे मुख से दो शब्द निकले तो उसे मात्र शब्द मत समझना वो सैकड़ों मीलों दूर से आई ऊर्जा है जो भाव कला कविता के रूप में मैंने नहीं मेरे द्वारा जन्म दी गई है तो यह सफर अभी लंबा है। मैंने समझना शुरू ही किया है कि समाज में कठिनाई क्या है? समस्या क्या है? तो क्योंकि मेरा जीवन हमेशा से कला से जुड़ा रहा है तो मैं इसको अपने अपने तरह से समझूंगी धीरे-धीरे और मुझे काफी खुशी है कि आज पहली बार मैंने किसी पंचायत में हिस्सा लिया और अपने बात को भी रख पाया। तो धन्यवाद। [प्रशंसा]
रामजी यादव:
बहुत-बहुत धन्यवाद अंशिका जी और आपने कला को जहां देखने की कोशिश की निश्चित रूप से हमको उन जगहों पर फिर से देखने की कोशिश करनी चाहिए। मैं बहुत सारे ऐसे घरों में गया हूं जहां लहसुन काटने के तरीके बताते हैं कि कितना शिद्दत के साथ उन्होंने खाना बनाने का काम एक कला के तौर पर विकसित किया है और एक समाज शास्त्री एलिन जिलिएट आई थी महाराष्ट्र में तो उनके बारे में मैंने सुना कि वे मसालों की गंध से महाराष्ट्र में पता लगा लेती थी कि यह किस समाज के किस समुदाय के लोगों का घर है। इतना गहरे उतर कर देखने का काम बिना कला की दृष्टि के संभव ही नहीं है। क्योंकि तथ्य इकट्ठा करने के लिए तो आप जो भौतिक वेरिएबल्स दिखाई पड़ रहे हैं उनको पकड़ लेंगे। लेकिन वास्तव में जीवन कैसा चल रहा है और उसके क्या मिजाज है यह जानने के लिए तो गहरे उतरना पड़ेगा और यह काम हमेशा कला करती है। मैं एक आजकि बहुजन और अभिजन के बीच में एक फरियाने वाली बात चल रही है। तो मैं चाहता हूं कि एक नज्म हबीब जालिब साहब की मैं पढूं। हबीब जालिब साहब 1928 में होशियारपुर में पैदा हुए पंजाब में और बहुत ही शिद्दत के साथ वे मजदूर आंदोलनों और किसान किसानों के बीच में सक्रिय रहे। जब भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ तब वे जाना नहीं चाहते थे पाकिस्तान यहीं रहना चाहते थे। लेकिन उनके सारे रिश्तेदार चले गए और उनके ऊपर दबाव बना तो वे भी चले गए। लेकिन वहां जाने के बाद उन्होंने हमेशा मजदूरों और किसानों के लिए लिखा। जेल गए कभी समझौता नहीं किया। फैज अहमद फैज और अहमद फराज के टक्कर के शायर थे हबीब जालिब साहब। उनकी एक बहुत मशहूर नज़्म है – ‘दस्तूर’।
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मसीहा तुमको कोई भी माने लेकिन मुझे बिल्कुल इस बात की परवाह नहीं है कि लोग तुमको क्या मानते हैं। मैं तुमको नहीं मानता हूं और तुम दर्दमंदों के दुखियों के कोई नाक नहीं हो। इस तरीके से अपने पक्ष को रखने वाले व्यक्ति और अपने पक्ष का मतलब यह है कि जनता के पक्ष को रखने वाले बहुजन के पक्ष के रखने वाले शायर की याद के साथ इस बात को आगे बढ़ाई जाए और अभी संजीव जी जब बात कह रहे थे मैं थोड़ा आराम कर रहा था लेकिन पूरी बात उनकी सुनी मैंने इंदौर के तमाम सारे साथियों के साथ जो गांव गिराव में सक्रिय हैं। उनके साथ वे आए भी हैं और उनके साथ बरसों से उनका काम चल रहा है। उन्होंने बहुत तरह के अनुभव अपने जो सुनाए मैं समझता हूं कि वह विचार और कला दोनों के साथ उनके साथ जुड़े हुए हैं। संजीव जी आए और इस बहस को इस बातचीत को आगे बढ़ाएं।
संजीव दाजी:
इस सत्र में कला के ऊपर कुछ जो कला कार्य हमारे साथियों ने किए हैं उसका भी जिक्र करना चाहूंगा मैं। तो मुख्य रूप से इंदौर और उसके आसपास के जो लोग हैं उनके साथ जो भी वार्ता हुई उसमें यह प्रमुखता से मुझे दिखाई दिया कि स्त्री पुरुष दोनों मिलकर सृजन कार्य जब करते हैं तो उसमें पूर्णत्व की दिखाई देता है। कला कार्य में भी इसी प्रकार का कुछ अनुभव मिला। और फिर एक जो सत सामने दिख रहा है वो यह सत्य यह है कि जो किसान कारीगर और छोटे-छोटे दुकानदार और महिलाएं यह ज्ञानी हैं और ज्ञानी होते हुए भी आज के हमारे ढांचों में उनको कोई मान सम्मान और मूल्य नहीं है। यह भी सामने दिख रहा है तो ज्ञानी होते हुए भी उसको अज्ञानी मान लेना यह जो असद फैला हुआ है सत्य तो यह है कि वह ज्ञानी है और असत यह फैलाया जा रहा है कि वह ज्ञानी नहीं है। मजदूर है, लेबर है। उनको उतना मान सम्मान देने की जरूरत नहीं है। ऐसे ढांचे तैयार हुए हैं कि जिसमें मिलना ही असंभव है। तो यह जो असत फैला हुआ है उसको कैसे दूर करें तो हमें कला के माध्यम से इस सत्य को बाहर निकालना है सच को पुनर्जीवित करना है और यह सत्य को पुनर्जीवित करने का जो कार्य है यह समय समय पर हमारे संतों ने किया और उसका मार्गदर्शन उसकी परंपरा हमारे साथ तो जब सत्संगी हमें दिखे कि यह सत्संगी ज्ञान की बात करते हैं। वह सत्य की बात करते हैं। आज मेरे साथ जो यहां सत्संगी आए गांवों से छोटे-छोटे गांवों से वह लिखना पढ़ना तक नहीं जानते। अक्षर ज्ञान नहीं है। लेकिन आप पाओगे कि इन सत्संगियों के पास तमाम संतों की बातें हैं। रात-रात भर यह सत्संग करते रहते हैं। परंपरा है आज 40 लोग हमारे बीच में है वो। उनके ज्ञान के खजाने को। मैं सब लोगों के सामने खोलना चाहता हूं। लेकिन समय कम है तो कल इन सत्संगियों का कार्यक्रम रखा है गंगा घाट पर। हमारे बीच में इतने अच्छे सत्संगी आए हैं। साजो सामान लेते हुए आए हैं। और यह जो कलाकारी ये करते हैं। इनसे बहुत प्रेरणा मिली। और इंदौर में पिछले 3 साल पहले हमने लोकविद्या कला केंद्र की स्थापना की इंदौर के अंदर। और अब यह लोकविद्या कला केंद्र उन गांव में भी खोलने जा रहे हैं। छोटे-छोटे गांव में लोकविद्या कला केंद्र खोल रहे हैं जो इस सत्य को स्थापित करेंगे कला के माध्यम से। तो कुछ प्रयोग हुए यानी कुछ नृत्य बिठाए गए। मतलब कला के हर विधाओं में कुछ न कुछ इस दृष्टिकोण को रखते हुए कला कार्य हुआ। तो इंदौर में जितने नृत्य थे उन नृत्यकारों से संपर्क किया गया। उनके कुछ आयोजन किए गए। मैं बोल सकता हूं ना थोड़ा सा दो मिनट। और फिर वो उन्हीं नृत्यों से कुछ बातें सामने आई कि भाई नया सोचे नया करें। नया यह सोचना है कि लोकविद्या के जो ज्ञानी लोग हैं उनके ज्ञान को बाहर सम्मान का स्थान देने के लिए कैसे नृत्य बनाए जाए? तो नए-नए हमने नृत्यों के बोल तैयार किए और नए-नए लोग नृत्य करने लग गए। गांव के अंदर तो सत्संग के साथ महिला पुरुष नृत्य करते ही हैं। लेकिन इन बोलों को बनाकर शहर में भी शहर के कलाकारों को और गांव के कलाकारों को जोड़ते हुए नए नृत्य बनाए गए। उस कलाकारी को उस केंद्र में किया जाता है। तो जैसे मैंने बताया कि नृत्य होते हैं वैसे ही इन सत्संगियों ने नए सत्संग बनाए। आज हमारे बीच में कुछ सत्संगी आए। उन्होंने खुद ने बोल तैयार किए। लिखना पढ़ना नहीं जानते। वो लिख के नहीं रखते कि ये हमारे ये बोल है। वो बोलते हैं कि हम तो गाएंगे बस। तो वो गाने लगते हैं। उनको अक्षर ज्ञान नहीं है। मेरे साथ ही आइए। इनमें से तमाम लोग जो है बिल्कुल अक्षर ज्ञान भी नहीं रखते लेकिन नए नए उन्होंने सत्संग बनाए नए बोल बनाए हुए लोकविद्या के नए बोल बनाए तो ये सुनने लायक है और ये नया सोचे नया करे के अंतर्गत जो है ये कला कार्य्य सत्संग में भी हुआ है नृत्य में हुआ सत्संग में हुआ उसके बाद में कुछ नाटक जमाए गए यानी लोकनाट्य भी जमाए गए एकांगी भी जमाए गए तो उसकी भी ऐसी थीम बनाई गई नाटकों की कि जिसके ऊपर कुछ इस यह बात को सामने लाया जा सके। कुछ नाटक बने। फिर हमने एक फिल्मांकन का अनुभव प्राप्त किया कि छोटी-छोटी फिल्में जो जिनके अंदर मोबाइल से भी शॉट्स आप ले सकते हैं। हमारे हमारे बीच में सपरे साहब बैठे हैं। पिछले तीन सालों से ये गांव में मेरे साथ घूम रहे हैं और लोगों के साथ में हम शॉर्ट फिल्म्स बनाते हैं। छोटी-छोटी फिल्में तो लोगों के साथ में हमने फिल्में बनाना चालू की। फिल्में इसलिए बना रहे हैं कि लोग अपनी बात को अपने तरीके से यह लोकविद्या के दर्शन को कैसे समझ रहे हो और कैसे वो खुद एक्सप्रेशन दे रहे हैं उसको कैसे उसके ऊपर उनकी प्रतिक्रिया क्या है वो क्या बोलना चाह रहे हैं ऐसे मंचों पर वो बोलते नहीं है कोई भाषण देते नहीं है लेकिन हां कला एक ऐसा क्षेत्र है कि कला के माध्यम से वो उन बातों को रख सकते हैं तो ये मंचों का महत्व केवल वैचारिक स्तर पर जो भाषण सुन सकते हैं, दे सकते हैं। अभी जो आए हैं वो भाषण सुनने में बोर हो जाते हैं। बड़ा मुश्किल है उनको ऐसे भाषणों को सुनना। लेकिन वही चीज यदि कला के माध्यम से पेश होगी। मैं यह बोलना चाह रहा हूं कि कला में इतनी ताकत है कि वो लोकविद्या के ज्ञानी लोगों की बात को बहुत बड़ा प्लेट मतलब बहुत बड़े रूप में वो सामने लोगों के दिलों तक पहुंचाने की उनमें इल्म है। तो उस बात को कैसे हम अ बना सकते हैं नई चीजों को तो हमने इसीलिए फिल्मांकन किए जिसमें कि महिलाएं सामने आने लगी। महिलाएं अपनी बातों को उन फिल्मों के माध्यम से बोलने लग गई ना हमने कोई डायलॉग दिए थे ना कुछ किए थे तो ऐसी छोटी-छोटी फिल्में हमने बहुत सारी बनाना शुरुआत किया। यानी कला के अलग-अलग विधाओं में यह कार्य जो है चलता रहा। कविताओं में तो यह रहा कि कुछ कविताएं एक दर्शन को एक्सप्रेशन देने के लिए अलग-अलग अनुभवों के आधार पर की गई। अब इन सब कलाओं के अंदर जो मुख्य पात्र हैं वो एक स्त्री और पुरुष बनाए गए यानी पारो दरिया। पारोदरिया कलाकारों से संवाद करते हैं। अब जब शहर के कलाकार हमारे सामने आते हैं तो उनसे कोई संवाद होता है इन पारो दरिया का और यह पारो दरिया गांव के स्त्री और पुरुष है। तो गांव के स्त्री पुरुष यह बोल रहे हैं कि भाई कलाकार तुम हमारी बात सुनो कि हमारे ज्ञान को क्यों ऐसा मान सम्मान और मूल्य नहीं मिल रहा है जितना दूसरे किसी ज्ञान को यानी साइंस और विश्वविद्यालय से पढ़े हुए लोगों को मिलता है। तो हमारी बात को कला के माध्यम से हम कैसे एक्सप्रेशन दे? कैसे बताएं? तो वो पारो दरिया कलाकारों से संवाद करते हैं। तो हमने ऐसे कुछ कार्यक्रम डिजाइन किए हैं। यानी संगीत का जब कोई कार्यक्रम होता है तो पारो दरिया संवाद करते हैं कि भाई हमारी बात सुनो हम ज्ञानी हैं। तो कलाकार पूछता है आप कैसे कह सकते हो कि आप ज्ञानी हो? आप तो मजदूर लग रहे हो। आप तो गरीब दिख रहे हो। आपने तो ढंग से कपड़े भी नहीं पहने हुए हैं ना जूते चप्पल ढंग से हैं तो इस प्रकार की बातें होती है तो वो जो पारोदरिया होते हैं वो धीरे धीरे धीरे यह समझाते हैं कि हम ज्ञान ज्ञानी कैसे हैं हमारा ज्ञान का दर्शन क्या है यानी पारोदरिया उन कलाकारों से संवाद कर रहे हैं तो कलाकार समझता है कि हां अच्छा ये बात को हमको कहना है कला के माध्यम से इस बात पर हमें कविताएं लिखना है इस इस बात पर हमें यह करना है। तो इस इस भूमिका के साथ कुछ कला कार्य हुए हैं और आप उन कला जो कार्य हुए हैं उनसे वाकिफ हो सकते हैं। इन्हीं लोगों के माध्यम से या और हम लोगों के पास में कुछ शॉट्स भी हम लाए हैं। तो जिन्हें भी अगर इंटरेस्ट हो तो एक उसपे से ऐसी बहुत सारी कविताएं बनाई। मैं एक थोड़ी सी एक कविता पढ़कर बस अपनी वाणी को विराम देता हूं ठीक है …
ओ कलाकार सुनते हो …
एक फकीर बोल रहा है:
ओ कलाकार सुनते हो?
कलाकार! तुम हो दार्शनिक!
मानवी चेतना को जिंदा रखने वाले,
पाखंड को उजागर करने वाले,
मूल्यों का सतत नवीनीकरण करते,
सत्य का निर्माण करने वाले, कलाकार!
कुछ सुन रहे हो?
क्या आज भी लोगों के नजदीक हो तुम?
हवा का झोंका पत्तों को उड़ा ले गया,
ज्ञान-क्षेत्र में आया बवंडर तुम्हें भी उड़ा ले गया?
जब विश्वविद्यालय के पक्ष-विपक्ष एक ही दिखाई दे रहे
लोकदृष्टि का नजरिया तुम्हें ढूंढ रहा
कलाकार! तुम तो दार्शनिक हो?
क्या लोगों के नजदीक हो तुम?
कलाकार! कहां हो तुम?
कहीं अहम को बढ़ाने के मार्ग तो नहीं गढ़ रहे?
सृजन छोड़ सृजनकर्ता के नाम के पीछे तो नहीं?
नहीं! नहीं! यकीन नहीं होता है,
यह नहीं हो सकता
दर्शक और श्रोता को ज्ञानी मानते
उनकी प्रतिक्रिया को गंभीरता से लेने वाले,
सदैव ही ज्ञान मार्ग पर रहने वाले,
ज्ञान को सामाजिक गुण मानने वाले,
उत्सर्ग की स्थिति को प्राप्त कर
लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले,
कलाकार! तुम कहां हो?
तो कलाकार बोलता है:
अरे … नहीं! नहीं! ओ …. फकीर तुम सच कहते हो
इस बवंडर में, किंकर्तव्यविमूढ़, हतप्रत से हो
हम भी गुड़ के, गुलाटी खाए
लेकिन, अपनी गांठ के ज्ञान को टटोलते
तुम्हारी हांक पर नींद से जागते
हम आ रहे हैं …
लोगों के पास …
सुनो, अरे, किसानों, कारीगरों,
ओ आदिवासियों, और छोटे दुकानदारों,
और सबके परिवार की ज्ञानी महिलाओं
ओ लोकहित के पारखी,
हमारी चित्रकला, नाट्य, अभिनय,
गीत, संगीत और लेखन को
बेहिचक लोकहित और न्याय
की तराजू में तौलिये
सही है कि ज्ञान क्षेत्र में भूचाल आया है
लेकिन क्या अबकी बार भी
तुम्हारे ज्ञान संसार को समझने में
हम कलाकार चूक कर रहे हैं?
फैसला आपके हाथ में,
हम आपकी ज्ञान पंचायत में जरूर आएंगे
जरूर आएंगे, जरूर आएंगे!
धन्यवाद।
रामजी यादव:
बहुत-बहुत धन्यवाद संजीव जी। लोगों के साथ जुड़ने का जो व्यवहार का जो आलम है वह बहुत ही अलग-अलग तरीके के अनुभवों और दायरों से होकर गुजरता है। पिछले दिनों लोकविद्या जन आंदोलन और गांव के लोग ने मिलकर एक पहल कदमी शुरू की और उस पहलदमी में एक शुरुआत यह हुई कि बिरहा जो यहां की प्रसिद्ध लोक विधा है और बहुत लोकप्रिय भी है। उसमें कबीर को गाया जाए। कबीर को मालवा में जहां की अभी संजीव जी जहां की बात कर रहे थे। मालवा में अद्भुत गायक गायिकाएं वहां हैं जिन्होंने कबीर को हजारों तरह से गाया है और ऐसे तमाम सारे अनाम गायक भी होंगे गायिकाएं होंगे जिन्होंने कबीर पर बहुत तरह के प्रयोग किए होंगे और बहुत प्रसिद्ध विश्व प्रसिद्ध गायक भी हैं वहां और इसी तरीके से बिरहा में जब हम लोगों ने कहा कि हर जगह की स्थानीयता जो है उसकी लय की स्थानीयता ही असल में वह गायकी है जिससे कोई भी व्यक्ति कोई भी महान कलाकार अपनी रचना के साथ अगर वहां जाएगा लोगों के बीच में तो पकड़ में आएगा अन्यथा वो सिर के ऊपर से गुजर जाएगा। तो इसी लय और लबो लहजे से हमने काम करने की शुरुआत की तो बिरहा में कबीर तो हुआ। फिर हमने रैदास के कुछ पदों को कुछ गायकों को दिया और कबीर और रैदास का समय बहुत ज्यादा दूर नहीं है। आसपास के ही लोग हैं। लेकिन रैदास को अपनी लय में वह नहीं ले आ पाए। कई गायकों से मैंने इस पर गायिकाओं से कहा कि इस पर देखिए आप क्या कर सकते हैं। उन्होंने कहा लय पकड़ में नहीं आ रही है। मैं मालवा की एक प्रसिद्ध गायिका जो पहले कबीर गायकी में उसका कोई दिलचस्पी उसकी नहीं थी। लेकिन जब वह शादी उसकी हुई और अपनी ससुराल आई तो देखा कि उसकी सास गा रही है और उसकी दिलचस्पी नहीं थी। बस उसने कोई बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी उसको। लेकिन धीरे-धीरे उसकी दिलचस्पी बनी और बहुत महान गायिका बनी गीता पराग नाम की महिला। जब उसकी गायकी पर मैंने देखा कि उसने कौन सी ऐसी चीज है जो अपने लय में ढाला। कबीर के बहुत सारे पदों में आने वाले शब्दों को उसने अपने तरीके का एक शब्द बना लिया और वह शब्द धीरे-धीरे इतना रूढ़ होता गया कि उसका अर्थ भी वहीं से निकलता है और रैदास को यहां के गायक नहीं बना पा रहे हैं या कहीं के भी नहीं बना पाएंगे तो यह संकट है कि स्थानीय लयों को जब तक हम पकड़ नहीं पाएंगे कला का मार्ग बहुत दूर तक बहुत बड़े विचार को नहीं ले जा सकता संजीव जी से को सुनने का आज मौका दोबारा मिल रहा है। बातचीत भी होगी। उनको बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने एक खास अंचल में जो काम हो रहा है और लोकविद्या के हिसाब से काम हो रहा है। उस पर उन्होंने रोशनी डाली। अब मैं अपर्णा को बुलाना चाहूंगा। अपर्णा का परिचय यह है कि उन्होंने बहुत लंबे समय तक रंगकर्म किया। बच्चों के रंगकर्म पर उनका एक लंबा अरसा। लगा है लगभग 18 वर्षों तक और उसके अलावा प्रौढ़ रंग मंच पर भी उनका दो दशक का समय बीता है। बनारस में आकर अपर्णा ने गांव देहात की पत्रकारिता के लिए समर्पित किया और छत्तीसगढ़ और भोजपुरी छत्तीसगढ़ और भोजपुरी के बीच कोई बहुत गहरा सेतु नहीं है। 500 किलोमीटर की दूरी है जहां वे रहती थी पहले और जहां अब हैं। लेकिन उन्होंने पूरे पूर्वांचल में घूम-घूम कर लोगों को उनकी संस्कृतियों को उनके संकटों को उनके संघर्षों को जिस तरीके से देखा और पत्रकारिता में ले आई हैं। यह पत्रकारिता भी लोकविद्या का एक बड़ा पहलू है जो आज उससे छूट चुकी है। आज जनता की पत्रकारिता करना इतना जोखिम भरा है कि उसमें कोई पैसा नहीं है, कुछ नहीं है। इसलिए जनता की पत्रकारिता से लोग दूर हो गए हैं। अपर्णा ने लगातार इस बात को रखा है सामने विद दूरदराज के इलाकों में गई तो मैं चाहता हूं कि रंगकर्म और पत्रकारिता के अपने अनुभवों के साथ लोकविद्या की जो बात है उसकी उसके बारे में अपर्णा कहें।
अपर्णा जी:
धन्यवाद बहुजन स्वराज पंचायत में आज मुझे बोलने का मौका मिल रहा है। यह खुशी की बात है। जब मैं इधर आई थी तो मुझे जाति की जो राजनीति है उसकी एकदम समझ नहीं थी। क्योंकि हमारे छत्तीसगढ़ में जहां से मैं आती हूं वहां इस तरीके की राजनीति मैंने कभी देखी नहीं थी। कि कोई ब्राह्मण है, कोई दलित है, कोई शूद्र है। इस तरीके की राजनीति मैंने कभी नहीं देखी थी। लेकिन जब यहां आई और पहले जब सुनती थी तो मुझे ऐसा लगता था कि नहीं यह सब खत्म हो चुका है। यह अब नहीं बचा है। लोग ऐसा बोलते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में आने के बाद और जब दूरदराज के गांव में मुझे जाने का मौका मिला, लोगों से मिलने का मौका मिला और यहां लगातार जिस तरीके की खबरें प्रकाशित होती रही हैं। जिसका जिससे मैं पढ़ती रही, देखती रही, तो मुझे समझ में आया कि यूपी और बिहार में जो जाति की राजनीति है, वो बहुत अंदर तक धंसी हुई है। हर एक आदमी इससे त्रस्त है। खास खासकर बहुजन समाज पर ही निशाना साधा जाता है। जो मनुवादी अह के पीछे चलने वाले लोग हैं, वह बहुजन समाज पर ही प्रहार करते हैं। जबकि देखा जाए तो जो बहुजन समाज है। वह पूरे समाज को या देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण यानी भूमिका अदा करता है। देखा जाए तो चाहे वो पर्यावरण सहेजने का काम हो जो आदिवासी करते हैं। आदिवासी अपने इलाके में जो जंगलों से अपने उपयोग के लिए चीजें लेते हैं वो उतनी ही लेते हैं जितनी उनकी जरूरत होती है। वो कभी भी उसको इकट्ठा करके या चार दिन की चिंता करके वो नहीं लेते हैं। उनको जितनी जरूरत होती है वो लेते हैं और कभी भी पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। इसी तरीके से साफ सफाई का काम हो और जितने कलाएं हैं वो बहुजन समाज की ही देन है। जितने लोक लोकगीत हैं, जितने लोक नृत्य हैं वो भले अह जो ऊंची जाति के लोग हैं उसको मनोरंजन के लिए अपना अपनाते हैं, देखते हैं, अपने शौक पूरे करते हैं। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो जो बहुजन समाज की परंपरा है या लोक कलाएं हैं। वो उनके दर्द को और जीवन की सच्चाई को बयां करते हैं। ये मुझे यहां आने के बाद पता चला और लगातार देख रही हूं, सीख रही हूं और जब से मैं विद्या आश्रम आने लगी लोकविद्या आश्रम में चित्राज जी और सुनील जी से जब संपर्क बढ़ा तब मुझे बहुत सारी चीजें और भी क्लियर हुई कि जो इन्होंने कहा कि यूनिवर्सिटी में जाने के बाद जो लोगों का ज्ञान है वो एकदम थोता हो जाता है या वो पढ़ाई तो कर लेते हैं लेकिन जो मौलिकता होती है या जो जमीनी जो उनका ज्ञान होता है वो जो बहुजन समाज से आए हैं उनको वही होता है लेकिन वो हमेशा पिछड़े रहते हैं। उनको कभी भी सामने नहीं लाया जाता। चाहे किसान की बात किसानी की बात कर लें। किसान जो खेती किसानी करता है वो मौसम को देखकर जमीन को देखकर आसानी से पता कर लेता है कि किस तरीके की चीजें अभी मौसम कैसा है, कौन सा बीज कब डाला जाएगा, पानी कितनी मात्रा में डालना है या खाद कब डलेगा। इसके लिए उनको किसी कृषि विश्वविद्यालय में जाने की आवश्यकता नहीं होती है। उनका वो ज्ञान पर्याप्त होता है। इसी तरीके से कोई बढ़ाई है, कोई मोची का काम करने वाला है और समाज में इस तरीके से बहुजन समाज जो है वो विविध कलाओं से भरा हुआ है और यह हमको स्वीकार करना पड़ेगा कि यदि वह समाज नहीं रहेगा तो आप और हम इस रहने यानी इस धरती पर रहने लायक नहीं रहेंगे। क्योंकि वो जिस तरीके की साफ सफाई पर्यावरण संतुलन और बाकी जो चीजें हमारे उपयोग की है वो हमको मुहैया कराते हैं वो बहुत जरूरी पक्ष है। तो यहां आने के बाद मुझे लगा और रंगकर में भी मैं बच्चों के साथ लगातार काम की हूं। हालांकि बच्चों के साथ लोग जो लोक कहानियां होती थी फोक स्टोरी उसको लेकर ही इंप्रोवाइज करके मैंने लगातार काम किया है और अधिकतर इंप्रोवाइज करने और जो लोक कथाएं होती थी उनको इंप्रोवाइज करने का एक अपना आनंद भी होता था बच्चे भी आनंद लेते थे और एक चीज और है कि यदि जो भी लोक कलाएं हैं जैसे अभी राम जी ने बोला कि स्थानीय जो चीजें हैं चाहे बोली हो भाषा हो उसको लेकर यदि किया जाए तो सीखने और सिखाने वाले दोनों को बहुत मजा आता है। बहुत अच्छा लगता है। क्योंकि मैं छत्तीसगढ़ से आती हूं रायगढ़ से तो छत्तीसगढ़ मुझे आती है तो जब बच्चों के साथ मैं ये काम करती थी तो छत्तीसगढ़ में जब बच्चों को सिखा थी तो वो बड़े बच्चे बड़े आसानी से बोल पाते थे। ये मैंने प्रयोग करके भी देखा कि कोई हिंदी नाटक है या हिंदी कहानी जब उनका इंप्रोवाइजेशन किया जाता था तो वो डायलॉग भूल जाते थे। वो उसको याद करने में उनको कठिनाई होती थी। लेकिन जैसे ही उनको ये बोला गया कि आप छत्तीसगढ़ में इस बात को बोले या इस डायलॉग को छत्तीसगढ़ में बोल कर देखें तो वो इतना अच्छा मुहावरे कहावत लगाकर उस बात को लेते थे और मजा करके करते थे कि ये समझ में मुझे आया कि यदि लोकल भाषा में या स्थानीय बोली में यदि उनको काम कराया जाए तो वो आसानी से सीखते हैं और ये तो बीच में जैसे जशपुर में सादरी जनजाति के लोग बहुत है आदिवासी जो हैं उनके लिए ये सा वहां वहां के जो आदिवासी बच्चे थे जब उनको स्कूल में पढ़ाया जाता था तो हिंदी में अनार का आम का या जो भी तो वो सीखने में बहुत रुचि नहीं लेते थे लेकिन सरकार की तरफ से जब आदेश आया कि आप शादी अपनी पांचवी तक अपनी लोकल जो बोली है भाषा उसमें आप पढ़ा सकते हैं तो बच्चे बहुत एंजॉय करके बहुत आसानी से उसको सीखें। तो बहुजन समाज जो है वो बहुत मजबूत और विविध कलाओं से भरा हुआ समाज है और इसको जो भी नकारता है या जो इसको नहीं मानता है वो झूठ बोलता है क्योंकि बहुजन समाज की देन ही है कि हम हर चीज सुख सुविधा है चाहे लोक कला में हो या जीवन में जो चीजें अपनाते हैं वो बहुजन समाज की ही देन है। इसको मानना ही पड़ेगा। तो और मुझे मैं एक कहानी पढूंगी। यह कहानी है राम जी यादव की परजुनिया। राम जी की कहानियां जो होती हैं वो जिसमें लोक बसा होता है जिसके नायक नायिका या जो कैरेक्टर होते हैं केंद्रीय जो पात्र होते हैं वो अब अपने बीच के लोक फोक समाज के होते हैं उनकी बोली उनकी भाषा तो हो इसमें कहीं-कहीं गाली भी आए तो उसको अन्यथा नहीं लेंगे क्योंकि जो समाज में जिस तरीके से जीता है वही कहानियों में भी शामिल है। मैं पढूंगी कहानी परजूनिया। परजूनिया का मतलब होता है प्रजा या जनता।
झिलमिट की शादी थी। बरच्छा भत्तवान कल एक साथ निपट गया था। आज बारात जानी थी। कल नाऊ का जलवा था। आज नाऊ की आफत थी। बैठक के एक कोने में शोभा दादा उस तरह कैंची लेकर बैठे हुए थे। घर और पड़ोस के लोगों समेत कुछ मेहमानों ने भी दाढ़ी बनवाई। बाल कटवाए। लड़कों ने बंगला छटवाया। दूल्हा और सहबाला अपने बाल शिवपुर के किसी हेयर कटिंग सेलून में कटवा चुके थे। क्योंकि शोभा के पास नई तकनीक नहीं थी। शोभा दादा इसलिए बैठे रहे कि जो भी बारात में जाएगा उसे चिकन बनाएंगे। यह पहले था कि जब बारात जाती थी तो नाओं को बुलवाया जाता था। लोग बारात में जाने वालों की दाढ़ी बनाई जाती थी। हो सकता है गांव में यह प्रचलन आज भी हो। एक तरफ एक तरह से दाढ़ी बनवाना बारात जाने की अहरता थी। जो भी दाढ़ी बनवाता वो बारात में जरूर जाने वाला होता। शायद शोभा दादा अलसा गए थे या उन्हें भूख लगाई थी। जो भी हो लेकिन उनके हावभाव से लग रहा था कि वे ठिया छोड़ना चाहते थे। अभी वे अपने पैरों को हिलाने भी ना पाए थे कि दल्लू आ गए। दल्लू घें चराते थे। उनकी धोती उनकी धोती इस तरह बंधी होती थी कि एक पंचाचा घुटने के नीचे रहता और दूसरा जांग के ऊपर चढ़ जाता। अक्सर उनके लंगोट का पुछ्ला बीच से लटकता रहता था। जिससे पता चलता था कि उन्होंने अंदर भी कुछ पहना हुआ है। अन्यथा उनकी पसेरी का दोलन देखकर प्राय यह भ्रम टूट जाता है कि लंगोटधारी भी हैं। उनके सामने के दो दांत गिर चुके थे। बाल बेतरतीब थे और दाढ़ी बड़ी हुई थी। पैरों में मोटी-मोटी बीवाइयां फटी हुई थी। गोया पूरी एड़ी कुदाल से कुतरी गई हो। उन पर मैल चढ़ी हुई थी। लेकिन दल्लू जिस तत्परता से चलते थे उसे देखकर लगता था कि वे इसकी कतई परवाह नहीं करते थे। दल्लू गरीब थे और गरीबी को भी अपने तरीके से मात देते थे। मसलन एक बार उनके पैर उनका पैर कुल्हाड़ी से कट गया। दूसरा कोई होता तो घबरा कर मर गया होता। लेकिन दल्लू ने घाव पर इत्मीनान से पेशाब किया और घर आकर खौलता हुआ तेल डालकर सो गए। उन्होंने शोभा के मन की हलचलें दूर से भांप ली थी। इसलिए तुरंत पहुंचे और बोले अरे का शोभा भैया उठने के फेर में हो का शोभा समझ गए कि इनको निपटाए बिना उठना संभव नहीं है। फिर भी उठ गए तब बोले हां हो तनिक पेशाब कर लूं। भूख भी लग गई है। अब तो कोई बाराती में भी नहीं जाने वाला है। दल्लू तनिक रोश में रोश से बोले अरे के नहीं बारात में जाएगा। शोभा ने कहा अब तो कोई नहीं लौटता। अरे तोहार भी मर्दवा आ है कि आलू अरे घर की बारात में हम ना जाऊंगा तो कौन जाएगा तू जाएगा तू जाओगे नहीं तब का खाली तुम ही जाओगे शोभा ने समझ लिया कि अब बिना हजामत किए जान छूटने वाली नहीं है इसलिए उन्होंने नरमी खाते हुए बोले इसलिए थोड़ी नरमी खाते हुए बोले पता नहीं बाबा हमें तो ना ही विश्वास की है कि तुम जाओगे दल्लू ने ऊंची आवाज ने कहा अरे बनाओगे बना बनाओगे नहीं तो कहा लड़ू जाएंगे चले हो पदाने शोभा ने निष्प्रियता और हिकारत के मिलेजुले स्वर में कहा आओ आओ गांव भर में जिन जनाओं की बारात में जाना चाहते हो दल्लू जाकर बैठ गए थी पर बैठते हुए शोभा ने सोचा कि केवल दाढ़ी बनाना ही पर्याप्त होगा इसलिए दाढ़ी पर पानी लगाने लगे यह देखकर दल्लू बिगड़ गए देखो शोभा लान मत चटाओ प्रजा हो तो प्रजा की तरह रहा हो। ये बाहर का सरग है। सरग में मिलाओगे तब ना बनाओगे। अंतत शोभा को हार माननी पड़ी। वे दल्लू का बाल काटने का उपक्रम करने लगे। बड़ी मेहनत से बाल छांटे। दाढ़ी बनाई, मूछे तराशी और जब सब हो गया तो दल्लू ने बंगले खोल दी। घिसिया कर शोभा उस तरह तेज करने लगे। फिर भी चुप ना रह गया। नाक सिकोड़ कर बोले अरे यार छोड़ो ये कुत्ता के। लेकिन दल्लू यह मौका कब छोड़ने वाले थे? जब सब ठीक हो गया तब कई देर तक दल्लू ने शोभा के धूमिल पड़ चुके आईने में अपने को देखा और मुस्कुराए। इतना खिलकर मुस्कुराए कि आगे के दांत पूरे नजर आया। पूरे नजर आए। फिर बोले हां ठीक है। सब झकाझक। शोभा ने भुनकर उन्हें देखा। अब तो हजामत कर ही चुके थे। इसलिए पहले पेशाब किया और हाथ मुंह धोए। भीड़ तो कोई नहीं थी। इक्कादुक्का लोगों की ही पंगत थी। शोभा भी एक और बैठ गए। उन्हें तो बारात में जाना ही था। वर का पानी ले जाना था। दूल्हे को संभालना था। कुल मिलाकर आज 50 60 की कमाई के आसार थे। यह कमाई तो तब भी होती जब कोई बाराती ना होता। बारात के चक्कर में तो शोभा को 202 लोगों की दाढ़ी और बाल बनवाना पड़ा। नाहक मेहनत थी। लेकिन परजुनिया होने का यही तो दुख है। अंजई का बेगार करना, बेमन से दिया गया पद स्वीकार करना। अक्सर लड़के वाला नाऊ होने पर वे सवा5 मांगते तो बड़ी मुश्किल से 20 आना मिलता। 101 प्रकार के अनुष्ठानों में जहां 100 सवा सौ की प्राप्ति जायज रहती वहां रोधोकर 2025 ही मिल पाते। कभी कोई बंबई कलकत्ते कमाने वाला लड़की वाला होता तो एक आध धोती कुर्ता भी मिल जाता। कभी बढ़िया होता और कभी इतना खराब कि अवर्णय अवर्णनीय होता। लड़की वाला नाई लड़की वाला लड़की वाला नाई होने पर भी यही गति थी। नाउन के लिए जो साड़ी मिलती उसे देखकर कभी-कभी शोभा और शोभा बो दोनों जन का खून खौल उठता। लेकिन कहते कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। इसलिए कुछ कहना तो नहीं चाहिए। लेकिन शोभा वो पीढ़ियों की प्रजा के अधिकार के नाते लड़ पड़ती और कभी-कभी अच्छी साड़ी प्राप्त कर लेती। कभी-कभी तो कहासनी के बाद भी हाथ मलना पड़ता था। जहां लोग अपनी स्थितियों से पहले ही परिचित रहते वहां बिना मतलब की मेहनत के से बचे रहना ही बुद्धिमानी और उपलब्धि होती। शोभा अपनी कमाई के बारे में आश्वस्त थे। इसलिए बिना मतलब लोगों को दाढ़ी छीलते रहना और बालों में कैंची मारते रहना बेकार था। इसलिए जब भी कोई उनके सामने आकर बैठता तो उसे दो-तीन बार जरूर दरियाफ्त करते कि बारात में जाना है कि नहीं जाना है। घर में ऐसा कोई जरूरी काम तो नहीं पड़ गया जो बारात में जाने से ज्यादा जरूरी हो। अगर है तो बारात में जाने से नुकसान छोड़ नफा नहीं होने वाला है। कहा भी गया है बर्रे कांटे तो बेस है लेकिन बारात में जाना नहीं। इस चक्कर में शोभा एक दो झिड़कियां भी खा चुका था। खा चुके थे। दिन उदासी और कोफ्त भरा हुआ था। दोपहरिया लंबी हो चुकी थी। फिर से अपने ठिएहे पर बैठे शोभा इन्हीं बातों को दहा रहे थे। 2025 मिनट बाद वे ठिए से उठकर नींद की छांव में बैठे थे। तब देखा कि दल्लू गाय लेकर चरवाहों पर जा रहे थे। शोभा ने ध्यान से देखा दल्लू ही थे। शोभा ने मुठ्ठियां भी शोभा की मुट्ठियां भी गई। वे किचकिचा कर बोले तोरी बाप की बिटिया के फलान चीन में बारात में जा रहे हैं सर। कहे होते तो झाट भी छील देता। सार हमारे तोरी किस्मत ने बस दऊ की बारात लिखी है। इतने पर भी उनका मन ना भरा। उन्होंने मंगू को बुलाया और बोले देख लो भैया बारात में जा रहे हैं। घंटे पर घंटे भर से ऊपर मेहनत करवाए हैं। मंगू ने देखा वे जानते थे कि लल्लू बारात में नहीं जाने वाले हैं। लेकिन दरवाजे पर उन्हें हजामत बनवाने से थोड़ी ही रोक सकते थे। फिर कौन जेब से देना था? इसलिए मुस्कुराते हुए बोले समझो शोभा नाउन के नौ बुद्धि और नाउन के 36 कही जाती है लेकिन अहीर के दिमाग की कोई था नहीं है ना चाहते हुए भी शोभा मुस्कुरा दिए.
अब आप लोग कहानी सुने हैं, और आप लोगों को जो किताब यहां से मिली है आज रजिस्ट्रेशन के दौरान उसमें भी ये छोटी सी कहानी है पढ़िएगा और बुनिएगा धन्यवाद.
रामजी यादव:
शुक्रिया अपर्णा जी. और यह कहानी जिसको मैं बहुत तरजीह नहीं दिया करता था। लेकिन सुनील जी और चित्रा जी ने इसको इस किताब में जगह दी। और आज जब मैं अपर्णा जी पाठ कर रही तो मैं सुन रहा था। मुझे लगता है कि पहले जो मैं लिखता था थोड़ा उसे सीख रहा हूं कि जनता की भाषा और ठीक होने की करने की जरूरत है समझने की जरूरत है। मैं लगातार ये देख रहा हूं कि जैसे-जैसे हमारे समाज में टेलीफोन मने ये जो मोबाइल फोन और रील का दौर आया है। तो दो तरह की बातें हुई। एक तो यह है कि इसमें बहुत तरह की ऊटपटांग सूचनाएं और तथ्य रखे जाते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह हुआ कि पूरे देश में तो नहीं होगा। अलग-अलग भाषाओं में जरूर होगा लेकिन भोजपुरी और अवधी में बहुत सारे जो लोकल थे वहां के प्रचलित गीतों को बहुत सारी महिलाओं ने और पुरुषों ने उनके टुकड़ों को पकड़ा। उनको गाया एक बहुत बड़ी परिघटना है यह कि जो चीजें स्मृतियों से गायब हो रही थी उसको YouTube ने काफी हद तक हमारे उसमें स्मृति में फिर से जीवंत कर दिया अभी मैं लोकगीत इकट्ठा करने के चक्कर में मैंने 40 जत्सार गीत इकट्ठे किए और जतसार गीत मुझे लगता है कि दुनिया के महानतम और क्रांतिकारी गीतों में है जिसमें महिलाओं का प्रतिरोध … उनका दुख तो है … उनका प्रतिरोध भी है। वे उस पारिवारिक व्यवस्था की विद्रूपताओं के खिलाफ भी सोचती हैं। यही उनकी क्रांति की शुरुआत बिंदु है। वह है और मैंने 40 के करीब इकट्ठा किया और मुझे लगता है 100 से ज्यादा इकट्ठा कर सकूंगा लोगों से गाने का और धान लगाती हुई महिलाएं जो कजरी गाती थी उस तरह के गीतों को रिकॉर्ड करने के लिए मैं कोशिश में हूं कि अगले मौसम में ऐसा किया जाएगा। बहुत कुछ है जो अनेक म नहीं सामने आ रहा है उनको जानने की जरूरत है और उसमें सीखने की जरूरत है और वही चीजें हैं जो हमारी लय को बहुजन विमर्श को बहुजन स्वराज पंचायत को बहुजन की अवधारणा को लोकविद्या जन आंदोलन को सबको आगे बढ़ाएंगी और इस मामले में मैंने विद्या आश्रम में चित्रा जी को हमेशा ऐसा पाया कि जितना उनसे मैं बात करके पिछली बार समझ पाया था, उनको अगले दिन बातचीत करने के बाद लगता है मैं एक नई चित्रा जी से मिल रहा हूं। और यह पक्ष ऐसा है जो उनके जीवन के लगभग 50 सक्रिय वर्ष जो उन्होंने अपनी युवा अवस्था से अब तक गुजारे और जनता के बीच गुजारे। आईआईटी दिल्ली से पढ़ने के बावजूद उन्होंने नौकरी में जाना या किसी और की सेवा करना कॉरपोरेट की सेवा करना मंजूर नहीं किया। जनता की सेवा करना उन्होंने मंजूर किया। उनके उन अनुभवों को जब मैं सुनता हूं तो मुझे लगता है कि हर बार उनसे कुछ नया मैं जान रहा हूं और यह भी कि उनके तमाम सारे अनुभवों को अंकित करने की जरूरत है। रिकॉर्ड करने की जरूरत है। मैंने शुरुआत भी कर दी है। चित्रा जी इस पूरे आयोजन की धुरी है और इसकी अवधारणा और कला को लेकर खासतौर से सुनील जी तो बार-बार हर आयोजन में कहते हैं कि चित्रा जी ही कला की पारखी है। मैं तो कुछ जानता नहीं। हालांकि सुनील जी भी बहुत अद्भुत बोलते हैं कला के पक्ष पर। मैं जी से चाहूंगा कि आज की कार्यक्रम की अध्यक्ष के तौर पर अभी जो तीसरा सत्र है वे इस आयोजन में … यह जो तीसरा सत्र है कला मार्ग का … उस पर अपनी बात रखें और यह सत्र फिर समाप्त हो. चित्रा जी …
चित्रा जी:
देखिए आज की बहुजन स्वराज पंचायत का कला से क्या रिश्ता है? बहुजन समाज का कला से क्या रिश्ता है? यह सवाल हम लोगों के सामने बराबर बना रहा है। कला क्या केवल किसी विचार को प्रस्तुत करने का माध्यम है? कला क्या ऐसा ऐसी कोई विधा है जो मनुष्य में उसके जन्मतः आती है। जिस तरह से विद्या आती है। कला को अगर विद्या माने तो वो किस तरह की विद्या है? इस इन सवालों पर मंथन शुरू हुआ। और सबसे बड़ा सवाल तो यह रहा कि आज जो समाज है हमारे सामने जिस समाज को हम देखते हैं और जिसकी आज के इस दूसरे सत्र में बहुत बात हुई कि बहुजन समाज में बहुज जातियां हैं। जातियों के आपस में बहुत संघर्ष है। ऊंचनीच है। तमाम तरह की नकारात्मक बातें हैं। लेकिन यह एक सच्चाई है हम मानते हैं। लेकिन हम लोग उसके लिए यहां नहीं इकट्ठा हुए हैं। हम लोग इकट्ठा हुए हैं कि बहुजन समाज को आज राजनीतिक क्षेत्र में आर्थिक क्षेत्र में सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से बाहर कर दिया गया है तो इसका रास्ता क्या हो सकता है और उसका रास्ता एक रास्ता हम लोग सोचते हैं कि बहुजन स्वराज में हो सकता है और अगर बहुजन स्वराज में हो सकता है तो बहुजन समाज के पास शक्ति के वो कौन से स्रोत हैं जो गड़बड़ियां है वह तो बहुत गिना दी गई लेकिन वो वास्तविक नहीं होती है दिखाई वास्तविक जरूर देती है जिस तरह से राजनीति में चर्चा की लेकिन आप राजनीति के तहत देख रहे हैं इसलिए आपको लगता है कि उसमें जाति ियों का यह हो रहा है। बिहार और उत्तर प्रदेश फसे हुए हैं। अरे बिहार और उत्तर प्रदेश क्या आधुनिक राजनीतिक दुनिया में कहीं भी हो वो केवल गैर बराबरी के रिश्तों को बनाए रखने की ही राजनीति है। तो उसमें और अधिक और क्या देखें हम? यहां नहीं तो दूसरे देश में वो यही तरीका है। वो वहां रो रहे हैं। यहां रो रहे हैं। रास्ता कुछ नहीं निकलता है। तो बहुजन स्वराज पंचायत यह कहती है कि हम कमजोरियों पर अपनी दुनिया की इमारत नहीं खड़ी करते हैं। हम समाज की शक्तियों पर अपनी इमारत खड़ी करेंगे। हम बहुजन समाज के पास क्या है जिसके बल पर हमारा स्वराज खड़ा होगा इसकी बात करते हैं और जब हम इसकी बात करते हैं तो आज इस कला के सत्र में मैं इस बात को कहना चाहती हूं कि समाज निर्माण की समाज सृजन के अनेक मार्ग कला क्षेत्र में दिखाई देते हैं। उससे भी आगे मैं यह कहना चाहती हूं कि स्वराज चेतना जिसकी बात करते हैं कि स्वराज कैसा होगा? उसमें मनुष्य की जिम्मेदारियां क्या होंगी? उसमें आपसी संबंध हमारे क्या होंगे? एक समाज का दूसरे समाज के साथ क्या रिश्ता होगा? किस तरह की नियमों से हम बंधे रहेंगे? किन मूल्यों के तहत अपना जीवन का संगठन करेंगे? यह सारी बातें कला के मार्फत, कला के मार्फत अगर हम सोचे तो कैसी दिखाई देंगी। कुल मिलाकर हमारा यह कहना है कि आज जो समाज व्यवस्थाएं हैं उसमें आधुनिक राज्यसत्ता साइंस आज किसी ने दोहराया भी। विद्या उसका विद्यागत आधार साइंस में है और पूंजी इनके गठबंधन ने बहुजन समाज पर सारी जातियां की है। इस गठबंधन को ने एक अपना आदर्श बनाया है। आदर्श कहे अब उसको तो वो गलत लक्ष्य कहे हम। वो लक्ष्य ये है विकास का। कुछ चंद लोगों के इतिहास विकास का बहुजन समाज को मिटाकर हम यह खोज रहे हैं कि बहुजन समाज जब स्वराज की बात करेगा तो अपने सामने कौन से लक्ष्य रखेगा कौन से आदर्श रखेगा हमें लगता है कि कला के मार्ग से वो लक्ष्य वो आदर्श हमारे सामने मूर्त रूप लेते हैं। हमारा कहना है कि स्वराज चेतना का एक स्रोत कला कर्मों में होता है। चाहे वो कहानी लिखें, कविता लिखें, नाट्य करें, नृत्य करें, संगीत करें, गल्प करें, संवाद चलाएं, कॉमेडी करें, सिनेमा बनाएं, नाट जो भी है। लेकिन उसमें अलग तरह के जीवन के चित्र होते हैं। जीवन के मूल्य होते हैं। हमको उन्हें गहराई से देखना है। क्योंकि हमारे ऊपर आज की व्यवस्था इतनी हावी है कि हम बहुजन समाज के सारे कष्टों को हम उन्हीं चश्मे से देखते हैं जो हमें आधुनिक शिक्षा ने दे दिए हैं। तो हमें वो दिखाई ही नहीं देता। एक बार की बात है। हम एक विद्या कॉलेज में गए थे और वहां की महिलाएं छात्राएं हैं। उन्होंने कहा हम गांव में जाते हैं और महिलाओं को बताते हैं कि किस तरह से सफाई से रहना, बच्चों को ठीक से रखना, खाना सफाई से बनाना वगैरह वगैरह सिखाते हैं। तो हम क्योंकि लोकविद्या पर बात कर रहे थे। उनसे बात करने गए थे तो उन्होंने पूछा कि और क्या कर सकते हैं हम? तो हमने कहा कि उनसे आप केवल एक सवाल पूछिए कि आप इतने कम आमदनी में अपना घर कैसे चलाती है हमें सीखना है इस पर वो एकदम बिखर गई क्योंकि उनके जैसा गांव की महिलाओं जैसा उनको बनना ही नहीं है। उनसे कोई उनका तालमेल ही नहीं है। वो समझ रही है कि गांव की महिलाओं को हमें सिखाने जाना है। तो यह संबंध बनता है। कला में ऐसा नहीं है। इसीलिए कला को हमको अधिक गहराई से सोचना है। तो इसमें हमने जब काम शुरू किए कई तरह के जैसे इंदौर में इन्होंने किए। कई लोगों के काम देखे और कुल मिलाकर कला में कार्यक्रमों में हम गए तो दो तीन बातें बहुत साफ दिखाई देती है। एक तो यह है कि कला की कला कर्म करने की कोई शर्त नहीं होती कि वो प्रशिक्षित हो बहुत इसी तरह से प्रशिक्षित हो। इसी तरह के माध्यम से काम करें। ऐसी कोई शर्त नहीं है। कोई भी महिला बढ़िया चित्र बना सकती है। कोई भी महिला गा सकती है। हो सकता है उसे पता ना हो कि राग कौन सा है? ये चित्रकला की प्रथा कौन सी है? उस चौखट में वो बनती नहीं है। लेकिन कलाकार है। तो इसकी कोई शर्त नहीं होती। यह शर्त नहीं होना यह बहुत बड़ी बात है। सामान्य जीवन बहुजन समाज का जो जीवन है वो कला का क्रीड़ा स्थल है। कला के निर्माण का स्थल है और कला और जीवन इतना ज्यादा घुलमिल जाते हैं कि जीवन के मूल्य और कला का दर्शन एक हो जाता है। उसको अलग करना मुश्किल है। जैसा इन्होंने बताया कि जो कविता पढ़ी आपने बहुत सुंदर कविता थी पंक्ति बहुत सुंदर थी। तो हमारा यह कहना है कि बहुजन समाज और राम जी ने जैसे उल्लेख किया कि लोक से कला की दूरी हो रही है आज के समय वो इसलिए हो रही है कि कला में जो मूल्य है जो जो सत्य है जो सुंदरता का पैमाना है जो नैतिकता का पैमाना है वो आज के जीवन में कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा है और हमको सिखा दिया है कि अगर कलाकार को कुछ करना है तो समाज के दुख का दुख को प्रदर्शित करें। चाहे नाटक हो, चाहे संगीत हो रोए। उसका रोना बहुत जरूरी है। महिलाओं के बारे में बात करेंगे तो उनके कष्टों के बारे में रोएंगे। गरीब की बात करेंगे तो उनके कष्टों के बारे में रोएंगे। प्यारे भाई महिलाओं में जो ताकत है जिसके बल पर वो इतनी गरीबी में भी अपने बच्चों को का लालनपालन कर रही हैं। तरह-तरह की उत्पादन में जुटी हुई है। देश की संपत्ति में समृद्धि ला रही है। उसका कहीं जिक्र ही नहीं है। या हम कलाकार को पहचान ही नहीं रहे हैं। कि कहां कला है, समाज में कहां कला है, कहां नैतिकता है, कहां सौंदर्य है, इसको हम देख ही नहीं पा रहे। हम रो रहे हैं। और यह रोने देना आज की सत्ता के लिए बहुत बढ़िया है। आज की राजसत्ता और आज की राजनीति और आज की ज्ञान का प्रकाश विश्वविद्यालय ये चाहते हैं कि आप रोते रहे। हमारी तनख्वाह बनी रहे। हम विकास के काम करते रहे। तो इस षड्यंत्र को तोड़ने में कला का बहुत की बहुत बड़ी भूमिका है और मैं बहुत लंबी बात ना करके थोड़े से इस पर तीन चार बातों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं कि कला की खासियत यह है कि वो सामाजिक होती है। समाज में जिंदा रहती है और सब कोई कलाकार नहीं भी है तभी भी उस कला के मूल्य उस आदमी तक पहुंच जाते हैं। जैसे आपने जिक्र किया कि सुनील जी कहते हैं कि हम सुनील जी ही नहीं अक्सर हमने लोकविद्या समूह में जो कि ज्यादातर साइंस में पड़े हुए लोग हैं वो कहते हैं कि कला से हमारा रिश्ता नहीं है। हमने कभी कला का ये नहीं किया है। ऐसा नहीं होता है कला में। कला अगर समाज में जिंदा है तो आपको छुएगी जरूर। कहीं ना कहीं से आपके जीवन में हो सकता है कि आप अपने आसपास के जो पारिवारिक संबंध है उसमें ही कला के मतलब वो भावुक क्षण बना ले जिससे आपको उसका स्पर्श हो जाए। तो यह पूरा समाज सिंचित होता है उस कला के मूल्यों से आदर्शों से और उसमें से जिसको जो चाहिए वो लेता रहता है। यह खासियत है तो बहुजन समाज इस कला के बल पर जिंदा है जिसकी कोशिश आप कर रहे हैं राम जी जो कि वापस लोग उससे अपनी ताकत को एकत्र करें। बहुजन समाज के का जो नया नरेटिव हम लोग बनाना चाहते हैं उसमें इनकी यह भूमिका हो सकती है। तो एक तो यह है कि ये सामाजिक है। दूसरा इसकी जो खासियत हमारे भारत के संदर्भ में बताई जैसे हम तो बनारस की भूमि पर बैठे हुए हैं। और बनारस में एक परंपरा रही कि यहां कुछ मतलब जो कहानियां हम लोग पढ़ते लिखते हैं पौराणिक और खासतौर से बनारस के बारे में जो पढ़ी है उसमें यह है कि यहां के राजा क्षत्रिय कहलाते थे ऐसा मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। हां लेकिन वो दार्शनिक जरूर होते थे। दार्शनिक राजा यहां की राज परंपरा का आदर्श है। उसको तलवार भाजना बहुत आदर्श नहीं है। उसको पड़ोसी से युद्ध में जीतना ये उसका आदर्श नहीं है। दार्शनिक होना राजा जनक भी मिथिला के बीच दार्शनिक राजा थे। अजात शत्रु दार्शनिक राजा थे। यहां की कहानी यह है कि देवोदास का बेटा प्रतर्दन ये दार्शनिक था। देवदास स्वयं भी दार्शनिक थे। लेकिन प्रतन भी दार्शनिक था और उसकी दी हुई कला दर्शन में एक बहुत बड़ी बड़ा योगदान है एक अवधारणा का वो ये कहता है जिसको बाद में कला के क्षेत्र में भारत में सब जगह माना गया। मतलब इन्हीं का योगदान ऐसा नहीं ऐसा कई लोगों ने कहा है। हम क्योंकि बनारस में बैठे हैं इसलिए हम प्रता का नाम ले रहे हैं। ऐसा कई लोगों ने कहा होगा। उनका कहना था कि कला के क्षेत्र में विषय और विषय आप जिसको विषय बना रहे हैं जिसके ऊपर लिख रहे हैं जिसकी कहानी बना रहे हैं जिसका अभिनय कर रहे हैं वो विषय और बनाने वाले में भेद जितना कम होगा उतनी ही कला आपकी उच्च श्रेणी की बनेगी। अब यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है और यह कोई कला का ही आदर्श है ऐसा नहीं है। जीवन का आदर्श है। यह जीवन का आदर्श राजसत्ता के आदर्शों की बुनियाद भी बन सकती है। जो थी एक समय जो मानी गई है जो गांधी जी ने बार-बार जिसका जिक्र किया है और यह कहा है कि स्वराज वही है जिसमें बाहरी शासन कम से कम हो। वो शून्य तक हो तो वो तो आदर्श है। तो राजा और प्रजा में कोई भय ही नहीं है। आप प्रजा हो राजा हो ये नहीं आपका विषय और विषय ही एक हो। जीवन आपका भी है, हमारा भी है। एक जैसा हम भाईचारे से तो ये कला का आदर्श क्यों नहीं हम आज अपना सकते? हमें ऐसी राज्यसत्ता का निर्माण करना है। स्वराज ऐसा बनाना है जिसमें हमारे क्षेत्र पर राज हमारा होगा। यहां के लोगों की राय मानी जाएगी या जो भी प्रकार हो कई लोगों की कई तरह की बातें होंगी पर कुल मिलाकर यह होगा कि मोदी जी यहां गुजरात के दीपक तो नहीं ला पाएंगे और भी कई बातें ये तो छोटी सी बात है तो एक तो बात ये है और ये आपको पिछले मतलब मैं नहीं जानती लेकिन हिंदी साहित्य कविता में ये जरूर मूल्य दिखाई देगा जगह जगह कि इस तरह की अव अवधारणा रही है। दूसरी बात एक यह है कि कला आप तभी कला कर्म कर सकते हैं जब आप दूसरे की संवेदनाओं को खुद की दूसरों की पीड़ाओं को खुद समझे कि मुझे पीड़ा हो रही है। उसके बिना कलाकार नहीं बन सकते। आप कला तभी बढ़िया कलाकार कहलाएंगे जब जिस विषय को आप बना रहे हैं उसे खुद महसूस करें। ये एक मूल्य है इसका। दूसरी बात है कि जो दूसरे ढंग से सोचता है जो सामने का व्यक्ति सोच रहा है वैसा आप सोचना शुरू कर दे संवेद और संवेद होने की कहा जाता है इसको संवेद होना मतलब आप उसकी पीड़ा को महसूस करना खुद संवेध्य होना मतलब उसके ज्ञान के साथ आप उसके ज्ञान को समझना उस ज्ञान में आप सोचने लगना उसके जैसा सोचने लगना तो लोकविद्या धर्म में हम यही कह रहे हैं लोकविद्या जन आंदोलन में कि लोकविद्या धर समाज एक ऐसा समाज था जो एक दूसरे के प्रति संवेद भी था और संवेद्य भी था। एक दूसरे के उत्पादन के इस्तेमाल को सम्मान भी देता था और उसकी पीड़ा को समझता भी था। वो बहुत अमीर गरीब नहीं था। लेकिन बहुत अमीर नहीं था लेकिन वह एक दूसरे के साथ सहजीवन की धारा को मजबूत करता था। ये कला की मूल्य है और ये आज भी कोई भी कलाकार होगा तो वो इसको मानता है कि हां ऐसा तो होता है आपने नाटक में ही उस समय ये कहा कि आप भूमिका कैरेक्टर चरित्र के अंदर जाते हैं तो प्रसन्ना जी ने बाद में ये भी कहा कि आपको वापस भी आना है वरना ये नाट्य नहीं कहलाएगा खैर वो तो चर्चा का विषय हो सकता है तीसरी बात जो हम बताना चाह रहे हैं कि कला में सहजीवन का एक बहुत मजबूत आधार होता होता है। कला कभी भी अकेले आदमी की नहीं होती है। शायद ये तो आधुनिक समाज में यह आया है कि एक ही कलाकार राग अलापता रहे या एक ही कलाकार वाद्य बजाता रहे। हमेशा समूह में होता है। वादक कई तरह के होते हैं और गायक भी कई तरह के होते हैं। ये सब मिलकर जब एक नई रचना में अपना अपना योगदान देते हैं तब उच्चतम कला का निर्माण होता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इन्होंने अपना अस्तित्व खो दिया। ऐसा नहीं होता है। हारमोनियम की भी आवाज उसमें सुनाई देगी। अलग से ढोलक की भी सुनाई देगी वन की भी सुनाई देगी हर चीज की आवाज स्वर भी सुनाई देंगे और अलग-अलग लोगों के स्वर भी सुनाई देंगे लेकिन केवल आप वही नहीं ठहरेंगे अरे ये आ गया ऐसा नहीं करेंगे आप उस पूरी रचना का आनंद लेंगे और वो रचना बनेगी सुंदर स्वराज ऐसे ही बनना है विविध समाजों से उनके इसमें जो ताल और सुर उनके मिलेंगे तब स्वराज का निर्माण होगा और एक खुशहाल समाज बना पाएंगे जो न्याय त्याग और भाईचारे पर आधारित होगा। हमारा यह कहना है कि आज हम कला के जो मूल्य हैं जीवन मूल्य आदर्श लक्ष्य इनको अपनाएंगे नहीं तब तक स्वराज चेतना हम में आएगी नहीं। वास्तव में किस तरह का समाज बनना है यह दिखाई नहीं देगा और हम जो बहुत अभी जो चल रही है राजनीति और आर्थिक गतिविधियां बस उन्हीं के खिलाफ लड़ते रहेंगे उन्हीं के माध्यम से उन्हीं के ज्ञान से उन्हीं के हथियारों से और मरते रहेंगे और रोते रहेंगे। तो हमारा यह कहना है कि कलाकार और कला कर्म जितना सामने आ सकते हैं आपस में जितना संवाद हो सकता है समाज के सृजन में उनका योगदान बढ़ता चला जाए यही स्वराज की जरूरत है, आवश्यकता है. धन्यवाद!
रामजी यादव:
बहुत-बहुत शुक्रिया चित्रा जीित्रा जी ने जिस मूल्य व्यवस्था की बात की जो कला से शुरू होती है उसके सैकड़ों उदाहरण हैं। कहानियों में नाटकों में अभिनेताओं गायकों सब में मुझे दो चीजें याद आ रही है जिनका मैं उल्लेख करना इसलिए चाहूंगा कि मूल्य व्यवस्था और कला का कितना गहरा अंतर संबंध है। राजस्थान के कुछ बहुरूपीय समुदाय के लोग बहु जो बहुरूपिया का काम करने वाले लोग जब हमको कुशीनगर में मिले तो हमने उनसे उनके जीवन की घटनाएं सुनी। उन्होंने अपने पिता के बारे में बताया। उनका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा है। उन्होंने कहा कि मेरे पिता एक बार इनकम टैक्स के अफसर बनकर एक सेठ के यहां गए। और उन्होंने कहा कि तुमने पता नहीं कितने टैक्स की चोरी की है और अब तुम जेल जाओगे। तो सेठ ने तुरंत सरेंडर कर दिया क्योंकि वह टैक्स की चोरी किया था उसने और बाद में उसने बहुत सारा पैसा देने का प्रयास किया। पेशकश की कि लो 500 एक लाख या ₹ लाख जो भी राशि रही हो उस समय तो लेकिन यह वह समझ नहीं पाए कि बहुरूपिया है। बाद में उन्होंने देखा कि मामला गंभीर होता जा रहा है। वह गिड़गिड़ा रहा है। तब उन्होंने कहा कि देखो भाई मैं कोई इनकम टैक्स ऑफिसर नहीं हूं। मैं एक बहुपया हूं। तुम मेरे इस काम का जो ₹100 बनता है वो दे दो। वही मेरी मजदूरी है। एक कलाकार ने कहा। वो चाहते तो आराम से पैसा लेते और चले जाते। लेकिन मर्यादा उनकी कला की यह नहीं थी। उन्होंने ₹100 मांगे। सेठ ने हिकारत से ₹50 उनके तरफ फेंके और कहा तुरंत यहां से दफा हो जाओ। एक बहुत महान कहानीकार राजस्थानी के हैं। राजस्थान के थे। विजय दथा जिनको हम लोग वि जी के नाम से जानते हैं। वि जी ने कम से कम 150 कहानियां ऐसी लिखी हैं जो लोक कलाकारों और दूसरे ऐसे पेशे के लोगों की हैं जिनकी मर्यादाएं होती थी। उन्होंने एक फितरती चोर नाम का की नाम की कहानी लिखी जिस पर चरणदास चोर नाम का एक नाटक बनाया। हबीब तनवीर जैसे महान नाटककार ने निर्देशक ने और पूरी दुनिया में उसको ले गए। वह सत्य बोलने की जो उसकी बात है। एक दूसरी कहानी उन्होंने लिखी रिजक की मर्यादा जिसको कई लोगों ने उस पर एकल प्ले किया। मैंने जेएनयू में अजय कुमार के द्वारा अभिनीत वो नाटक देखा। बड़ा भाण तो बड़ा भाड़ और उसमें यह है कि एक बहुरूपिया जो अपनी कला के माध्यम से राजा का विश्वास पात्र हो जाता है और तमाम सारी ऐसी चीजों के बारे में वह बताता है कि कहां-कहां आपके राज्य में गड़बड़ियां हो रही हैं और राजा भी उसके ऊपर सूचनात्मक रूप से निर्भर करता है। उसके उसकी बातों पर भरोसा करता है और बाद में एक दिन ऐसा हुआ कि इसको रानियों ने सोचा कि हमारे भेद खुले इससे पहले इसको कला के माध्यम से ही मार डालो। उन्होंने उसको एक स्वांग करने का देवी का स्वांग करने के लिए कहा और उस स्वांग का की पराकाष्ठा थी कि स्वांग करते करते यह अपनी गर्दन या आग में नहाने की बात थी कूदने की बात थी वो कूदेगा और मर जाएगा। वह जानता था कि मैं मर जाऊंगा लेकिन उसके काम की मर्यादा थी। पेशे की मर्यादा थी। एक कलाकार की मर्यादा थी। उसने वह किया और मर गया। जब हम पूरी दुनिया के इतिहास को देखते हैं जिसमें सत्य को लेकर दार्शनिकों ने कलाकारों ने और दूसरे तमाम सारे लोगों ने संघर्ष किया। जब हम सुकरात को देखते हैं। सुकरात ने कहा सत्य के लिए मैं अगर मैं जो कह रहा हूं सत्य है तो मुझे जहर का कटोरा से डर नहीं लगता और पी गया। कला और जीवन के अंतर संघर्ष की पराकाष्ठा थी। जब हम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को देखते हैं कि फांसी पर वो चढ़ गए और इंकलाब जिंदाबाद ही करते रहे अंततः तो ये कला और जीवन की पराकाष्ठा थी। कला यही सिखाती है। कला हमारे भीतर एक नैतिक बोध और बल पैदा करती है। जो पूंजी कभी नहीं पैदा करती। आप किसी पूंजीपति को किसी मूल्य व्यवस्था के लिए समझौता करते हुए तो देखते होंगे या सुनते होंगे, पढ़ते होंगे लेकिन उसने उसका कोई मूल्य नहीं है। मुनाफा ही उसका मूल्य है और उस मुनाफे के लिए वह हजार तरह के समझौते और भ्रष्टाचार करता है। पाप करता है। कला बहुजन समाज की सबसे बड़ी थाती है जिसके लिए बहुजन समाज अपनी जान देता है। बहुजन समाज एक नया समाज बनाने के लिए चलता है। मैं समझता हूं कि बहुजन स्वराज पंचायत की का यह सत्र जो कला मार्ग से कैसे बहुजन समाज अपनी लड़ाई आगे ले जाएगा। एक बहुत महत्वपूर्ण सत्र था जिसमें संजीव जी को हमने सुना चित्रा जी को सुना अपर्णा जी को सुना अंशिका को सुना और भी लोग रहते तो बहुत अच्छा होता। कविताएं भी होती हालांकि अपर्णा जी ने कहानी पढ़ ही दी। यह सत्र और इसके पहले के दोनों सत्र एक बहुत गर्मजशी के साथ हुए। आज का पूरा दिन पानी बरसने और सामने कीचड़ होने के बावजूद ऐसा नहीं लग रहा है कि हम किसी ऐसी प्राकृतिक दिक्कत का सामना किए हैं। हम सुन रहे हैं। मैं धन्यवाद देना चाहूंगा। लेकिन एक अंतिम बात यह है कि कुछ युवा साथियों ने एक चित्र प्रदर्शनी लगाई है। उन्होंने चित्र बनाए हैं और उस कमरे में प्रदर्शित किया गया है। मैं निवेदन करूंगा कि सब लोग जाने से पहले खाने से पहले उसको देखें और उनको प्रोत्साहित करें। मैं इस सत्र के लिए और आज के पूरे दिन के लिए आप सब लोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं। नमस्कार।